जलवायु

सदी के अंत तक 3.2 डिग्री तक बढ़ सकता है तापमान, अब तक के प्रयास नाकाफी

Avantika Goswami

पर्याप्त स्वच्छ विकल्प के बावजूद दुनिया में इन विकल्पों पर प्रयास नहीं हो रहा है और इस तरह वक्त तेजी से हाथ से निकल रहा है। यह बात 4 अप्रैल, 2022 को इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) की छठवीं मूल्यांकन रिपोर्ट के तीसरे संस्करण में कही गई है।

करीब 3,000 पृष्ठों की इस रिपोर्ट में कहा गया है कि साल 2019 में मानवकृत कार्बन डाईऑक्साइड का उत्सर्जन 59 गीगाटन था, जो साल 1990 के मुकाबले 54 प्रतिशत अधिक था। कार्बन डाईऑक्साइड के उत्सर्जन में ये इजाफा ऊर्जा के लिए और उद्योगों में जीवाश्म ईंधन जलाने और मीथेन के उत्सर्जन से आया (देखें, चिंताजनक संकेत)। उत्सर्जन किस क्षेत्र में कितना होता है, इसकी शिनाख्त भी समान रूप से नहीं की जाती, जो इस तरफ इशारा करता है कि कार्बन उत्सर्जन व्यापक स्तर पर सब जगह समान मात्रा में नहीं होता।

साल 2019 में वैश्विक स्तर पर होने वाले कार्बन उत्सर्जन में कम विकसित देशों की भागीदारी सिर्फ 3.3 प्रतिशत थी। कम विकसित देशों में साल 1990 से 2019 के बीच प्रति व्यक्ति कार्बन डाईऑक्साइड का उत्सर्जन 1.7 टन था, जबकि उसी उवधि में औसत वैश्विक उत्सर्जन 6.9 टन था। साल 2019 में दुनियाभर की आबादी का 41 प्रतिशत हिस्सा उन देशों में रहता था, जहां प्रति व्यक्ति कार्बन डाईऑक्साइड का उत्सर्जन 3 टन से कम था।

रिपोर्ट में इकलौता सकारात्मक पहलू यह है कि ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में सालाना बढ़ोतरी पहले के मुकाबले कम हुई है। साल 2010-2019 के बीच ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में सलाना 1.3 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई जबकि साल 2000-2009 के बीच ये बढ़ोतरी 2.1 प्रतिशत थी। दुनिया के 18 मुल्कों ने कार्बन रहित ऊर्जा उत्पादन और ऊर्जा की जरूरतें कम कर 10 सालों में लगातार ग्रीनहाउस गैस का उत्सर्जन कम किया है। हालांकि, वैश्विक तापमान में इजाफे को औद्योगिकीकरण के पूर्व के स्तर पर लाने यानी 1.5 या 2 डिग्री सेल्सियस पर सीमित करने के पेरिस समझौते के लक्ष्य को हासिल करने के लिए जिस स्तर पर ग्रीनहाउस गैस के उत्सर्जन में कमी लाना है, उसके मुकाबले ये प्रयास नाकाफी हैं।



अगर साल 2020 में लागू की गई मौजूदा नीति को मजबूत नहीं किया गया, तो साल 2100 तक वैश्विक तापमान में 3.2 डिग्री सेल्सियस तक का इजाफा तय है। यहां तक कि पेरिस समझौते (जिसे नेशनली डिटर्मिंड कंट्रीब्यूशन भी कहा जाता है) पर हस्ताक्षर करने वाले देशों ने जो शपथ ली हैं, वे भी अपर्याप्त हैं। आईपीसीसी की रिपोर्ट के मुताबिक, पेरिस समझौते के तहत अक्टूबर 2021 तक अपनाए गए उपायों को भी शामिल कर लिया जाए, तो वैश्विक तापमान में साल 2100 तक 2.8 डिग्री सेल्सियस तक का इजाफा हो सकता है। इस विफलता में मौजूदा कोयला, तेल व गैस जैसे जीवाश्न ईंधन पर निर्भर ढांचे से होने वाले कार्बन डाईऑक्साइड के उत्सर्जन की भूमिका है।

तात्कालिक तौर पर सी1 एक बेहतर विकल्प हो सकता है। आईपीसीसी ने इस संबंध में बताया है कि तापमान में इजाफे को 1.5 डिग्री सेल्सियस पर सीमित करने के लिए क्या किया जा सकता है। हालांकि इसमें तात्कालिक रूप से तापमान में 1.5 डिग्री सेल्सियस से ज्यादा इजाफा हो सकता है, लेकिन तकनीक की मदद से इसमें कमी लाई जा सकती है। इस तकनीक में वायुमंडल से कार्बन डाईऑक्साइड को सोख लिया जाता है।

सी1 हासिल करने के लिए साल 2030 तक कार्बन डाईऑक्साइड के उत्सर्जन में 41 प्रतिशत तक कमी लानी होगी और उत्सर्जन को साल 2019 के स्तर पर यानी साल 2030 तक उत्सर्जन को 31 गीगाटन पर लाना होगा। सबसे जरूरी है कि साल 2050 तक साल 2019 की तुलना में कोयला, तेल और गैस के इस्तेमाल में क्रमशः 95 प्रतिशत, 60 प्रतिशत और 45 प्रतिशत तक की कमी लानी होगी। ऐसा संभव हो सकता है कि क्योंकि दुनिया में भारी मात्रा में किफायती समाधान मौजूद हैं और कुछ समाधानों के इस्तेमाल में तेजी भी आ रही है। साल 2010 के बाद से न्यूनतम कार्बन उत्सर्जन तकनीकों की कीमत में कमी आई है।

इकाई की कीमत के आधार पर सौर ऊर्जा तकनीक की कीमत में 85 प्रतिशत, पवन ऊर्जा तकनीक की कीमत में 55 प्रतिशत और लिथियम बैटरी की कीमत में 85 प्रतिशत तक की गिरावट आई है (देखें, हरित व किफायती)। साल 2010 के बाद से इसके इस्तेमाल में भी बढ़ोतरी हुई है। सौर ऊर्जा संचालित वाहनों के इस्तेमाल में 10 गुना और बिजली चालित वाहनों के इस्तेमाल में 100 गुना इजाफा हुआ है। रिपोर्ट में इस इजाफे की वजह “शोध व विकास, पायलट प्रोजेक्ट व प्रदर्शनी के लिए फंडिंग और मांग में बढ़ोतरी के लिए सब्सिडी जैसे लुभावने प्रस्ताव” को बताया गया है।

रिपोर्ट में कहा गया है कि उत्सर्जन कम करने के बहु-विकल्प जैसे सौर व पवन ऊर्जा, शहरी हरित बुनियादी ढांचा, वन व फसल/ग्रासलैंड, खाद्य कूड़ा प्रबंधन, खाद्य पदार्थों की कम बर्बादी तकनीकी रूप से व्यावहारिक और किफायती है तथा आम लोग इसे अपना भी रहे हैं। उत्सर्जन कम करने के कम खर्चीले उपायों से प्रति टन उससे कम कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन करने पर 100 अमेरिकी डॉलर खर्च होगा। इससे साल 2030 तक वैश्विक स्तर पर ग्रीनहाउस गैस का उत्सर्जन आधा हो सकता है। बल्कि रिपोर्ट में तो यह तक कहा गया है कि इन उपायों पर जो खर्च होगा, उसके मुकाबले वैश्विक ऊष्णता कम करने में ज्यादा फायदा होगा। कार्बन को कम करने में निवेश करने से वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) पर न्यूनतम प्रभाव पड़ेगा।

आईपीसीसी के वर्किंग ग्रुप-III में शामिल प्रियदर्शिनी शुक्ला ने कहा, “कम अनुकूलन लागत या जलवायु प्रभावों से बचने के आर्थिक फायदे को ध्यान में रखे बगैर अगर हम मौजूदा नीतियों को ही मानने की तुलना में वैश्विक तापमान को 2 डिग्री सेल्सियस या उससे कम पर सीमित करने के लिए काम करते हैं तो साल 2050 में ग्लोबल जीडीपी कुछ प्रतिशत अंक ही कम होगा।”

आईपीसीसी की ताजा रिपोर्ट तैयार करने में प्रियदर्शनी शुक्ला भी शामिल रही हैं। ऊर्जा क्षेत्र में जीवाश्म ईंधन के इस्तेमाल में कमी, उद्योग क्षेत्र में ऊर्जा क्षमता और मांग प्रबंधन, भवन निर्माण में पर्याप्तता और क्षमता का सिद्धांत आदि उपाय रिपोर्ट में सुझाए गए हैं (देखें, बेहतर विकल्प)।

रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि जरूरतों को कम करने के उपाय मसलन पौधा-आधारित भोजन या पैदल चलना अथवा साइकिल का इस्तेमाल नई नीतियों को अपनाने के मुकाबले परिवहन, उद्योग, वाणिज्यिक व आवासीय सेक्टरों में वैश्विक स्तर पर साल 2050 तक ग्रीनहाउस गैस के उत्सर्जन में 40 से 70 प्रतिशत तक की कमी और लोगों की सेहत में सुधार ला सकता है।

रिपोर्ट कहती है कि मांग के आधार पर उत्सर्जन में कमी लाने की संभावनाएं अभी विकासित देशों में हैं। हालांकि वित्त एक बड़ी चुनौती बनी हुई है। यह सच है कि उत्सर्जन लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए जितने फंड की जरूरत है, उसके मुकाबले फंडिंग कम है। जलवायु अनुकूलन और प्रतिकूल प्रभावों को कम करने के मुकाबले जीवाश्म ईंधन के लिए फंडिंग अधिक है।

मगर फिर भी वैश्विक वित्त व्यवस्था बहुत बड़ी और वित्तीय खाई को पाटने के लिए पर्याप्त है। व्यावहारिक न्यूनतम कार्बन समाधानों की उपलब्धता के बीच राजनीतिक व वित्तीय जड़ता का ठीकरा तकनीकी व वैज्ञानिक बाधाओं पर नहीं फोड़ा जा सकता है। समस्या उद्योग जगत की लॉबी से है और इसका जिक्र पूरी रिपोर्ट में किया गया है।

रिपोर्ट के पहले अध्याय में ही बताया गया है कि किस तरह जलवायु नीतियों को लागू करने में औद्योगिक घरानों व संगठनों की तरफ से विरोध किया जाता है। वे उन उपायों के खिलाफ एकजुट होकर लॉबिंग करते हैं, जिन्हें वे अपने लिए हानिकारक मानते हैं। इस मामले में जीवाश्म ईंधन उद्योग की भूमिका स्पष्ट तौर पर नजर आती है और रिपोर्ट में कार्बन कम करने की पहलों को रोकने में मौजूदा जीवाश्म ईंधन कंपनियों की शक्तियों का जिक्र किया गया है।

रिपोर्ट आगे कहती है कि अमेरिका और आॅस्ट्रेलिया में जलवायु कार्रवाइयों के खिलाफ तेल व कोयला कंपनियों के अभियान के बारे में सभी जानते हैं, लेकिन साथ ही इसमें ब्राजील, कनाडा, नॉर्वे और जर्मनी के उदाहरणों का भी उल्लेख किया गया है।

सौर व पवन ऊर्जा उत्पादन के लिए वृहद ढांचा, परिवहन क्षेत्र का विद्युतीकरण, परिस्थितिकी की रक्षा और व्यक्तिगत स्तर पर कम ऊर्जा खपत वाला विकल्प चुनने के लिए बुनियादी ढांचे का विकास, सब संभव है। इसमें किसी तरह की देरी महंगी पड़ेगी। हर अतिरिक्त वर्ष का विलम्ब कार्बन बजट को घटाएगा और दुनिया को खतरनाक स्तर पर ले जाएगा।