“अंग्रेजों ने भारत को सोने की चिड़िया समझ अपने आर्थिक लाभ के कारण पर्यावरण को नष्ट करने कार्य प्रारंभ किया। विनाशकारी दोहन नीति के कारण पारिस्थितिकीय असंतुलन भारतीय पर्यावरण में ब्रिटिश काल में ही दिखने लगा था। स्वतंत्र भारत के लोगों में पश्चिमी प्रभाव, औद्योगीकरण तथा जनसंख्या विस्फोट के परिणामस्वरूप तृष्णा जाग गई जिसने देश में विभिन्न प्रकार के प्रदूषणों को जन्म दे दिया।”
यह पर्यावरण चेतना और संरक्षण पर काम करने वाले कुशाग्र राजेंद्र और विनीता परमार द्वारा संयुक्त रूप से लिखी गई पुस्तक “धरती के न्याय” का वह हिस्सा है जो आजाद भारत में पर्यावरण के नुकसान और उसके व्यापक शुरुआत पर रोशनी डालता है। सेतु प्रकाशन से प्रकाशित यह पुस्तक मानव सभ्यता और भारतीय संस्कृति में प्रकृति के महत्व और वर्तमान में व्यापक व अपूरणीय पर्यावरणीय क्षति दोनों की पड़ताल करती है। साथ ही पर्यावरण के समझ व कानूनों की विकास यात्रा कराती है। बकौल लेखक पांच खंड और 22 अध्यायों में विस्तारित इस किताब की बुनियाद में पर्यावरण संरक्षण और जलवायु न्याय मौजूद है।
वह लिखते हैं, “बीसवीं सदी के प्रारंभ में सिन्धु घाटी सभ्यता की खुदाई में मिली सीलें और रंगे हुए मिट्टी के पात्र में पीपल और बबूल के पेड़ों के प्रतीकात्मक चित्रण से यह संकेत मिलता है कि मुअनजोदड़ो और हड़प्पा की सभ्यता में भी इमारतों के लिए लकड़ियों का प्रयोग होता था।”
वह जंगल के महत्व को उकेरते हैं, ब्रिटिश शासन में सरकार और आदिवासियों के टकराव की मुख्य वजह जंगल ही थे। लेखक साल 1855 में भारत के पहले वन कानून का जिक्र करते हैं और बताते हैं कि इंडियन फॉरेस्ट एक्ट, 1855 के जरिए अंग्रेजों ने देश के संपूर्ण वन क्षेत्र पर अपने आधिपत्य की घोषणा कर दी थी। सन 1876 में इस अधिनियम में संशोधन किया गया और नए संशोधनों के साथ फॉरेस्ट एक्ट 1878 लागू किया गया था। लेखक कानून का जिक्र करते हुए लिखते हैं, इससे यह संदेश दिया गया, “ग्रामीणों द्वारा वनोपज का उपयोग उनका अधिकार नहीं बल्कि एक सुविधा है जिसे ब्रिटिश सरकार कभी भी वापस ले सकती है।” वह उस घटना की याद दिलाते हैं जिसके बाद भारत सरकार ने पर्यावरण संरक्षण के प्रति सोचना शुरू किया। 1972 के स्टॉकहोम सम्मेलन में देश की पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के भाषण का जिक्र करते हैं, “हम नहीं चाहते कि आने वाले समय में पर्यावरण को थोड़ा सा भी नुकसान पहुंचाया जाए, फिर भी हम एक पल के लिए अपने यहां बड़ी तादाद में मौजूद लोगों की भयंकर गरीबी को नहीं भूल सकते।”
सरकार ने 1976 में संविधान में संशोधन करके दो अहम अनुच्छेद 48ए और 51 ए (जी) जोड़े। अनुच्छेद 48ए राज्य सरकार को निर्देश देता है, “पर्यावरण की सुरक्षा और उसमें सुधार सुनिश्चित करे तथा देश के वनों तथा वन्य जीवन की रक्षा करें।” वहीं, अनुच्छेद 51ए (जी) नागरिकों को कर्तव्य प्रदान करता है, “वे प्राकृतिक पर्यावरण की रक्षा करे तथा उसका संवर्धन करे और सभी जीवधारियों के प्रति दयालु रहें।”
लेखक 1972 के वन्यजीव संरक्षण अधिनियम से लेकर एक व्यापक पर्यावरण संरक्षण अधिनियम,1986 तक के कानून क्रम का जिक्र करते हैं।
लेखक पुस्तक में एक दिलचस्प और रोमांच पैदा करने वाला अध्याय उकेरते हैं। यह स्त्री और पर्यावरण के बीच एक सार्थक गठजोड़ का अध्याय है। वह इस हिस्से में बताते हैं कि पुरातन काल से वनों में रहने वाली स्त्रियां वन एवं पर्यावरण के संरक्षण का काम करती रही हैं। वह प्रकृति पूजा और प्रकृति के प्रतीकों की पूजा का जिक्र करते हैं और लिखते हैं, “आदिवासी परंपरा में राऊड़ की प्रथा है, जो पर्यावरण संरक्षण का संदेश देती है। गांव के पास उपलब्ध जंगल के एक क्षेत्र को राऊड़ बनाया जाता है। जहां देव की स्थापना होती है। यानी क्षेत्र में पेड़ों की कटाई, आग लगाना पूरी तरह प्रतिबंधित रहता है।” लेखक देश के कई अहम पर्यावरण आंदोलन में स्त्रियों की भूमिका को उकेरते हैं। चाहे वह चिपको आंदोलन हो, हरित पट्टी आंदोलन हो या दुनिया के अन्य आंदोलन हों।
यह पुस्तक जैव विविधता और उससे जुड़ी परंपराओं को भी छूती है। वह पर्व में घुले-मिले जैव विविधता के मंत्र को देखते हैं। भारत के प्रमुख त्योहारों जैसे पोंगली, झारखंड का टुसु, मकर संक्रांति, ओणम, नुआखाई, बिहू, गुड़ी पड़वा, उगादी, बोनालू और पोम्बलांग नोंगक्रम जैसे पर्वों की एक लंबी सूची से परिचय कराते हैं। नव दुर्गा के रूप किस तरह से प्रकृति और किसानों से प्रेरित हैं, उसकी व्याख्या पेश करते हैं। वह लिखते हैं, “देवी रूप का नाम कुष्मांडा है, संस्कृत में कुम्हड़े को कुष्मांड कहते हैं।” वह आगे पुस्तक में लिखते हैं, “भारतीय संस्कृति का आधार ही प्रकृति है जिसमें दूब, घास से लेकर बाघ तक को बचाने का उपाय हमारे पूर्वजों ने किया।”
पुस्तक जलवायु विमर्श भी करती है। एक रिपोर्ट के हवाले से आगाह करती है, “अब तक पृथ्वी का तापमान बीसवीं सदी के औसत तापमान से लगभग 1.5 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ चुका है और एक अनुमान के मुताबिक, सदी के अंत तक ये बढ़ोतरी 2.8 डिग्री सेल्सियस तक होने की आशंका है।” वह आगे हीट के कारण पर्यावरण और मानव के तन-मन पर पड़ने वाले बदलावों का जिक्र करते हैं। लेखक भारत में तापमान में हो रहे बदलाव का एक अहम तथ्य भी सामने रखते हैं। किताब पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय के हवाले से एक अहम तथ्य सामने रखती है, “1901-2018 के बीच भारत में तापमान में 0.7 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हुई है। वहीं वैश्विक ऊष्मन की गति बहुत ही तेज और खतरनाक है। जलवायु परिवर्तन की वजह से हीटवेव के होने की संभावना 100 गुना अधिक बन जाती है।”
यह किताब 1972 के स्टॉकहोम से अब तक दो दर्जन से ज्यादा की गई जलवायु बैठकों का हवाला देते हुए कहती है कि जलवायु संकट से बचने के लिए किए गए सभी प्रयास अभी तक नाकाफी हैं। किताब चेताती है कि सदी के अंत तक तापमान में बढ़ोतरी असहनीय हो जाएगी। पुस्तक इस बात पर चिंता जाहिर करती है कि कैसे हजारों वर्षों के विकास क्रम में मनुष्य ने औद्योगीकरण के बाद बहुत ही कम समय में इस दुनिया को जीता-जागता नरक बना दिया है। प्राकृतिक संसोधनों के दोहन ने हमारे संतुलन को खत्म कर दिया है। किताब पर्यावरण को बर्बाद करने वाले हर मुद्दे जैसे प्लास्टिक, वायु और ध्वनि और नदियों के प्रदूषण, खनन, बाढ़ को छूने की कोशिश करती है। किताब ग्लोबल वार्मिंग का जिक्र करते हुए लिखती है, “अब वैश्विक गर्मी का दौर समाप्त हुआ और वैश्विक उबाल का काल आ गया है।” हालांकि, यह किताब जलवायु न्याय से दुनिया के बचने की उम्मीद करती है।