ब्लैक कार्बन एक अल्पकालिक लेकिन अत्यधिक शक्तिशाली जलवायु प्रदूषक है। यह आज तक के वैश्विक तापमान में लगभग आधे हिस्से के लिए जिम्मेदार माना जाता है। यह न सिर्फ ग्लेशियर्स के पिघलने का बड़ा कारण बन रहा है बल्कि इसकी वजह से मानसून में भी व्यवधान पैदा हो रहा है।
यह बात क्लीन एयर फंड द्वारा जारी और इंटरनेशनल सेंटर फॉर इंटीग्रेटेड माउंटेन डेवलपमेंट (आईसीआईएमओडी) द्वारा किए गए अध्ययन में कही गई है। अध्ययनकर्ताओं ने चेतावनी दी है कि ब्लैक कार्बन उत्सर्जन में कटौती जलवायु परिवर्तन को धीमा करने और चरम मौसम को कम करने के सबसे प्रभावशाली तरीकों में से एक हो सकता है।
अध्ययन में पाया गया कि ब्लैक कार्बन जिसे आमतौर पर कालिख (सुट) के रूप में जाना जाता है। अन्य सुपर पॉल्यूटेंट्स के साथ मिलकर आज तक के वैश्विक तापमान में लगभग आधे हिस्से के लिए जिम्मेदार माना गया है और अरबों लोगों को मिलने वाले पानी के लिए एक गंभीर खतरा बन चुका है।
अध्ययन में चेतावनी दी गई है कि ब्लैक कार्बन ग्लेशियरों, बर्फ की चादरों और समुद्री बर्फ के पिघलने की प्रक्रिया को और तेज करता है। विशेषकर आर्कटिक और हिंदू कुश हिमालय में। दक्षिण एशिया में ब्लैक कार्बन के उत्सर्जन से मानसून की बारिश के पैटर्न भी बाधित होता है। इससे बाढ़ और चरम मौसम की घटनाओं का खतरा और बढ़ जाता है। वास्तव में यह खाद्य सुरक्षा और आजीविका को खतरे में डालता है।
रिपोर्ट में कहा गया है कि 2013 के आंकड़ों के आधार पर आवासीय ठोस ईंधन जलाने और ईंट भट्टों के कारण हिंदू कुश हिमालय क्षेत्र में मानवजनित ब्लैक कार्बन का जमाव 45 प्रतिशत से 66 प्रतिशत तक है। इसमें आठ देशों (अफगानिस्तान, बांग्लादेश, भूटान, चीन, भारत, म्यांमार, भारत और पाकिस्तान) के हिस्से शामिल हैं। अन्य प्रमुख योगदानकर्ताओं में ईंट भट्टे, चावल की मिलें और चीनी उद्योग शामिल हैं।
ब्लैक कार्बन एक महीन कण पीएम 2.5 का एक प्रमुख घटक होता है। इसके उत्सर्जन से स्वास्थ्य पर गंभीर प्रभाव पड़ते हैं। रिपोर्ट में अनुमान लगाया गया है कि ब्लैक कार्बन के कारण होने वाले वायु प्रदूषण ने 2021 में 8 मिलियन से अधिक अकाल मौतों के लिए जिम्मेदार है। ब्लैक कार्बन से संबंधित प्रदूषण का आर्थिक स्थिति पर भी बोझ पड़ता है। इसकी वजह से सालाना वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद का 6 प्रतिशत से अधिक खर्च होता है। इसका सबसे बुरा असर सबसे गरीब और सबसे हाशिए पर रहने वाले समुदायों पर पड़ता है।
अध्ययन ने ब्लैक कार्बन को आर्कटिक के तेजी से गर्म होने के अनेक कारणें में एक माना गया है। इसके कारण यह वैश्विक औसत से चार गुना अधिक तेजी से गर्म हो रहा है। इससे जलवायु परिवर्तन के जोखिम में तेजी आती है।
गंभीर जोखिमों के बावजूद ब्लैक कार्बन से निपटने के मौजूदा प्रयास पूरी तरह से अब तक अपर्याप्त हैं। रिपोर्ट में इसके लिए छह प्रमुख बाधाओं की पहचान की गई है। यह है, राजनीतिक, वैज्ञानिक, वित्तीय, नियामक, औद्योगिक और संचार संबंधी। रिपोर्ट में कहा गया है कि यदि इन बाधाओं को दूर कर दिया जाए तो आगामी 2030 तक ब्लैक कार्बन उत्सर्जन में 80 प्रतिशत की कमी संभव है। और यदि इन बाधाओं को दूर नहीं किया गया तो तब केवल 3 प्रतिशत की कमी ही संभव हो पाएगी।
आईसीआईएमओडी के उप महानिदेशक इजाबेला कोजील ने तत्काल कार्रवाई के महत्व पर जोर दिया। उन्होंने कहा कि स्वच्छ वायु पर तेजी हासिल करने का सबसे तेज तरीका आवासीय बायोमास दहन, परिवहन और उद्योग जैसे क्षेत्रों से आने वाले ब्लैक कार्बन और अन्य सुपर-प्रदूषक स्रोतों को कम करना है। हिंदू कुश हिमालय क्षेत्र में आईसीआईएमओडी के अनुभव से पता चलता है कि निरंतर अच्छी निगरानी और एक मजबूत नीति के साथ-साथ स्वच्छ प्रौद्योगिकियों में निवेश करने से दीर्घकालिक पर्यावरणीय, आर्थिक और स्वास्थ्य क्षेत्र में लाभ संभव है।
दूसरी ओर जहां तक भारत में ब्लैक कार्बन के उत्सर्जन करने का मामला है तो भारत में अकेले केरोसिन लैंप पर निर्भरता के कारण ही प्रति वर्ष 12.5 गीगाग्राम (जीजी) ब्लैक कार्बन जैसा जलवायु प्रदूषक उत्सर्जित होता है। एक नए अध्ययन के अनुसार यह कुल आवासीय ब्लैक कार्बन उत्सर्जन का लगभग 10 प्रतिशत है। इसमें खाना पकाना, हीटिंग और प्रकाश व्यवस्था आदि शामिल है। लगभग 30 प्रतिशत ग्रामीण परिवार बिजली कटौती के दौरान केरोसिन लैंप पर निर्भर होने पर मजबूर होते हैं, जबकि पूर्वी क्षेत्रों में यह आंकड़ा 70 प्रतिशत तक जा पहुंचता है।
एटमॉस्फेरिक पॉल्यूशन रिसर्च नामक पत्रिका में प्रकाशित अध्ययन में पाया गया कि पूर्वी भारत कैरोसिन लैंप से भारत के ब्लैक कार्बन उत्सर्जन में 7.5 गीगाग्राम या 60 प्रतिशत का योगदान होता है। हालांकि यह कहा जा सकता है कि भारत ने सौभाग्य योजना के तहत बिजली ग्रिड का विस्तार करके आवासीय केरोसिन की खपत को कम करने में थोड़ी प्रगति की है लेकिन अभी और काम किए जाने की आवश्यकता है। भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) बॉम्बे द्वारा किए गए एक अध्ययन में बताया गया है कि बिजली की मांग और आपूर्ति के बीच असंतुलन के कारण बार-बार बिजली गुल होने के कारण लोगों को केरोसिन लैंप जैसे गैर-स्वच्छ प्रकाश स्रोतों का उपयोग करने के लिए मजबूर होना पड़ता है।