जलवायु

आईपीसीसी रिपोर्ट: इस शताब्दी में फट सकता है बड़ा ज्वालामुखी, बदल सकता है जलवायु चक्र

आईपीसीसी की ताजा रिपोर्ट के अनुसार, अगर ज्वालामुखी फटता है तो सतह का वैश्विक तापमान एक से तीन साल तक कम हो जाएगा

Bhagirath

जलवायु परिवर्तन पर अंतर सरकारी पैनल यानी इंटर गवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) की छठी असेसमेंट रिपोर्ट में जलवायु परिवर्तन के खतरे से आगाह कहते हुए कहा गया है कि इस सदी में बड़ा ज्वालामुखी विस्फोट हो सकता है। यह विस्फोट वैश्विक स्तर पर धरती की सतह का तापमान एक से तीन साल तक कम कर देगा। साथ ही, वैश्विक मॉनसून को भी प्रभावित करेगा और जलवायु को प्रभावित करने वाले बहुत से कारकों को बदल देगा।

अगर ऐसा विस्फोट होता है तो इसके लिए अस्थायी तौर पर मानवीय गतिविधियों से होने वाला जलवायु परिवर्तन जिम्मेदार होगा। आईपीसीसी ने यह अनुमान जलवायु विज्ञान के विस्तृत अध्ययनों और ऐतिहासिक प्रमाणों के आधार पर लगाया है।

रिपोर्ट के अनुसार, औद्योगिक काल से पहले विस्फोटक ज्वालामुखी जलवायु में बदलाव लाने के सबसे बड़े कारक रहे हैं। रिकॉर्ड बताते हैं कि पिछले 2,500 सालों में -1W m-2 (वॉट वर्गमीटर)  प्रभावी रेडियेक्टिव ताकत (ईआरएफ) से अधिक के ज्वालामुखी 100 सालों में दो बार फटते हैं। 1991 में पिनाटुबू में फटा ज्वामुखी इसका उदाहरण है (ऋणात्मक ईआरएफ वाले ज्वालामुखी में राख और धुआं अधिक रहता है जिससे जलवायु ठंडी होती है, जबकि सकारात्मक ईआरएफ वाले ज्वालामुखी गर्मी बढ़ाते हैं)।

इस अवधि में -5W m-2 ईआरएफ वाले 8 बड़े ज्वालामुखी फटे हैं। 1257 में इंडोनेशिया के समालास पर्वत और 1815 में तंबोरा पर्वत पर फटा ज्वाालमुखी इसके उदाहरण हैं। समालास पर्वत जैसे ज्वालामुखी औसतन 1000 साल में एक बार फटते हैं। रिपोर्ट के अनुसार आमतौर हर 400 साल में तीन बार एक न एक ज्वालामुखी -1W m-2  ईआरएफ वाला होता है। आईपीसीसी की रिपोर्ट के अनुसार, बड़े ज्वालामुखी एक्सट्रीम ठंड की फ्रीक्वेंसी बढ़ा देते हैं और यह ठंड दशकों तक जारी रह सकती है।  

तंबोरा और समालास के ज्वालामुखी का असर वैश्विक तापमान पर पड़ा था। तंबोरा के ज्वालामुखी के बाद पर्वत की ऊंचाई 14,100 फीट से घटकर 10,000 फीट रह गई थी। इस ज्वालामुखी से निकली राख और धुआं उत्तरी गोलार्द्ध पर छा गया था जिससे सूरज की रोशनी धरती पर ठीक से नहीं पहुंच पाई और सतह का तापमान 3 डिग्री सेल्सियस तक कम हो गया था। जिस साल ज्वालामुखी फटने की यह घटना हुई, उस साल गर्मियों का मौसम नहीं आया था। इसी वजह है 1815 को “ईयर विदाउट समर” कहा जाता है। उस साल दुनिया के कई हिस्सों में फसल खराब हो गई थी और भुखमरी के हालात पैदा हो गए थे। रिपोर्ट के अनुसार, अध्ययन बताते हैं कि 21वीं शताब्दी के शुरुआती में संभावित ज्वालामुखी वैश्विक तापमान को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ने से कुछ समय के लिए रोक सकते हैं।