जलवायु

अनिल अग्रवाल डायलॉग 2024: हर साल हिमालय पर बढ़ता जा रहा है खतरा

डाउन टू अर्थ द्वारा प्रकाशित सालाना रिपोर्ट स्टेट ऑफ इंडियाज एनवायरमेंट 2024 में हिमालयी क्षेत्र में दिख रहे जलवायु परिवर्तन के प्रभावों का आकलन किया गया है

Raju Sajwan

2013 से 2022 के बीच भारत में जितनी आपदाएं हुई, उनमें से 44 प्रतिशत आपदाएं हिमालय क्षेत्र में हुई। साल 2023 में हिमालयी क्षेत्र में मूसलाधार बारिश और बादल फटने की घटनाओं से यह स्पष्ट लगने लगा है कि हिमालयी राज्यों में आपदाओं का दौर हर साल बढ़ता जाएगा। 

सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट और डाउन टू अर्थ द्वारा प्रकाशित सालाना रिपोर्ट स्टेट ऑफ इंडियाज एनवायरमेंट 2024 में हिमालयी क्षेत्र में दिख रहे जलवायु परिवर्तन के प्रभावों का आकलन किया गया है। यह रिपोर्ट राजस्थान के निमली स्थित अनिल अग्रवाल एनवायरमेंट ट्रेनिंग इंस्टीट्यूट में आयोजित सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट (सीएसई) के मीडिया कॉन्कलेव अनिल अग्रवाल डायलॉग में जारी की गई। 

एसओई 2024 के मुताबिक अप्रैल 2021 से अप्रैल 2022 के बीच देश भर में भूस्खलन की 41 घटनाएं दर्ज की गईं, इनमें से 38 घटनाएं हिमालयी राज्यों में हुईं, जिनमें सर्वाधिक सिक्किम में (11) देखी गई।

रिपोर्ट में सीएसई की पर्यावरण संसाधन इकाई की प्रमुख किरण पांडे लिखती हैं: “आंकड़ों पर बारीकी से नजर डालने पर एक असहज करनेवाली प्रवृत्ति दिखाई देती है। हाल के दशकों में ये आपदाएं बार - बार घटित हो रही हैं और साथ ही अधिक गंभीर भी होती जा रही हैं, जिससे जान-माल की भारी क्षति हो रही है और संपत्ति को भी भारी नुकसान हो रहा है।''

सबसे अधिक नुकसान हिमालय के ऊपरी इलाकों में देखा जा रहा है। हिमालय में सतह के औसत तापमान में वृद्धि के कारण ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं और तीव्र गति से पीछे हट रहे हैं। नेपाल स्थित इंटरनेशनल सेंटर फॉर इंटीग्रेटेड माउंटेन डेवलपमेंट के एक अध्ययन के अनुसार, हिंदू कुश हिमालय में ग्लेशियर पिघलने की दर में 65 प्रतिशत तेजी देखी गयी है।

स्टेट ऑफ इंडियाज एनवायरनमेंट 2024 रिपोर्ट में आईसीआईएमओडी की उप महानिदेशक इजाबेला कोजील लिखती हैं : “हिंदू कुश हिमालय के ग्लेशियर पृथ्वी प्रणाली का एक प्रमुख घटक हैं। एशिया में दो अरब लोग यहां के ग्लेशियरों और बर्फ में मौजूद पानी पर निर्भर हैं और इस क्रायोस्फीयर को नुकसान पहुंचाने के परिणाम इतने व्यापक हैं कि सोचा भी नहीं जा सकता। इस आपदा को रोकने के लिए सरकारों को तत्काल कार्रवाई करने की आवश्यकता है।''

ग्लेशियरों से पिघली बर्फ हिमालय के पहाड़ों में हिमनद झीलों का निर्माण कर रही है। उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश के पूर्व में ऐसी झीलों की संख्या 2005 में 127 से बढ़कर 2015 में 365 हो गई है। बादल फटने की बढ़ती आवृत्ति और तीव्रता के कारण ये झीलें ओवरफ्लो हो रही हैं या उनके किनारे टूट रहे हैं और नीचे के हिस्सों में तबाही मचा रहे हैं।

कुल मिलाकर, हिमालय पहले ही अपनी 40 प्रतिशत से अधिक बर्फ खो चुका है, और इस सदी के अंत तक 75 प्रतिशत तक का ह्रास होने की आशंका है। इससे हिमालय में वनस्पति रेखा 11 से 54 मीटर प्रति दशक की दर से ऊपर की ओर खिसक रही है।

चूंकि 90 प्रतिशत हिमालयी कृषि वर्षा आधारित है इसलिए अब इस क्षेत्र में रहनेवाले लोगों के जीवनयापन पर संकट तो आएगा ही, साथ ही हिमालय से निकलने वाली नदियों के पानी का इस्तेमाल करनेवाले मैदानी इलाकों में भी दिक्कतें आएंगी।

अध्ययनों के अनुसार पश्चिमी हिमालय में 2002-04 और 2018-20 के बीच 8,340 वर्ग किमी पर्माफ्रॉस्ट क्षेत्र का ह्रास हुआ था; 1970-2000 और 2001-17 के बीच उत्तराखंड हिमालय में लगभग 965 वर्ग किमी क्षेत्र में पर्माफ्रॉस्ट गायब हो गया। इस ह्रास से पर्यावरण के बुनियादी ढांचे को नुकसान हो सकता है।

आईसीआईएमओडी की वरिष्ठ क्रायोस्फीयर विशेषज्ञ और अनिल अग्रवाल डायलॉग के वक्ताओं में से एक डॉ मिरियम जैक्सन कहती हैं, "पर्माफ्रॉस्ट के पिघलने के कारण होने वाले भूस्खलन की घटनाएं बढ़ रही हैं। यह एक उदाहरण मात्र है, इसके अलावा भी कई तरह की आपदाएं घट रही हैं।"

डायलॉग के एक अन्य वक्ता, देहरादून स्थित वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी के प्रमुख डॉ कलाचंद सैन ने कहा कि “हिमालय में विकास को रोकना समाधान नहीं है - इस विकास को सभी हितधारकों के परामर्श से तैयार दिशानिर्देशों के साथ उचित तरीके से करने की आवश्यकता है।”

आपदाओं को कम करने और उनके मूल कारण को समझने के लिए हर किसी - राष्ट्रीय सरकारों, स्थानीय लोगों, विशेषज्ञों, पत्रकारों - को शामिल करने और रुचि रखने की आवश्यकता है।