जलवायु परिवर्तन के कारण धरती की कार्बन सोखने की क्षमता में भारी गिरावट आई है।
पेकिंग विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने एआई का उपयोग कर पाया कि 2024 में कार्बन अवशोषण पिछले दशक के औसत से आधे से भी कम रह गया।
यह गिरावट विशेष रूप से उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में देखी गई, जो गंभीर चिंता का विषय है।
वैज्ञानिकों ने इसके लिए वैश्विक तापमान में अचानक से हुई भारी वृद्धि को जिम्मेवार माना है।
बढ़ते तापमान के साथ जलवायु परिवर्तन की नई चुनौतियां सामने आ रही हैं, बाढ़, सूखा और तूफान जैसी आपदाएं अब आम हो चुकी हैं। लेकिन इसका असर सिर्फ इन घटनाओं तक सीमित नहीं है। एक नई रिसर्च में पाया गया है कि बढ़ती गर्मी के कारण धरती की कार्बन सोखने की क्षमता घटती जा रही है, जो भविष्य में गंभीर समस्या बन सकती है।
इस बारे में पेकिंग विश्वविद्यालय से जुड़े वैज्ञानिकों ने आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) का उपयोग कर अपने नए अध्ययन में चेताया है कि 2024 में, पिछले दशक के औसत की तुलना में धरती का कार्बन अवशोषण आधे से कम रहा गया है। वैज्ञानिकों ने इसके लिए वैश्विक तापमान में अचानक से हुई भारी वृद्धि को जिम्मेवार माना है। इस अध्ययन के नतीजे जर्नल साइंस बुलेटिन में प्रकाशित हुए हैं।
गौरतलब है कि भूमि, जंगलों, पेड़ों और घास के माध्यम से, कार्बन डाईऑक्साइड (सीओ2) के लिए एक सिंक (सोखना) के रूप में कार्य करती है, जिसका अर्थ है कि यह मानव गतिविधि से उत्सर्जित होने वाली कार्बन डाईऑक्साइड को सोख लेती है।
इसके साथ ही वे सीओ2 के एक स्रोत के रूप में भी कार्य करते हैं, जंगलों के जलने, कटाई या क्षरण से सीओ2 वापस वातावरण में मुक्त हो जाती है। यह प्रक्रिया लगातार चलती रहती है। लेकिन वैज्ञानिकों का कहना है कि वनों द्वारा सोखी गई सीओ2 की मात्रा आमतौर पर उनके द्वारा उत्सर्जित की जाने वाली मात्रा से अधिक होती है और इसलिए वे कुल मिलाकर कार्बन सिंक के रूप में कार्य करते हैं।
क्यों है यह चिंता की बात
वैज्ञानिकों के मुताबिक धरती की पारिस्थितिकी प्रणालियां, वैश्विक कार्बन चक्र में अहम भूमिका निभाती हैं। यह हर साल इंसानों द्वारा छोड़े कार्बन डाइऑक्साइड (सीओ2) का करीब एक-तिहाई हिस्सा सोख लेती हैं। साथ ही यह धरती के तापमान को संतुलित रखने में भी अहम भूमिका निभाता है।
लेकिन वातावरण में लगातार बढ़ती गर्मी और मौसम के बदलते पैटर्न के कारण अब इन पारिस्थितिकी तंत्रों की क्षमता पर गंभीर असर पड़ रहा है। यही वजह है कि आज जलवायु की गंभीर चरम स्थितियों के बीच इन प्रणालियों में हो रहे बदलावों को समय पर सटीक ढंग से पहचानना बेहद जरूरी हो गया है।
एआई से मुमकिन हुआ सटीक विश्लेषण
शोधकर्ताओं ने जानकारी दी है कि अब तक इस तरह के आकलन में एक साल की देरी होती थी, लेकिन पेकिंग विश्वविद्यालय की टीम ने “कार्बन माइंड” नामक एआई मॉडल विकसित किया है, जो रियल टाइम में धरती के कार्बन संतुलन का आकलन कर सकता है।
यह मॉडल जलवायु विसंगतियों के दौरान भी तेजिस से अपडेट होता है और कार्बन चक्र में हो रहे बदलावों को स्पष्ट रूप से समझने में मदद करता है।
वैज्ञानिकों का मानना है कि इस तकनीक से पृथ्वी के कार्बन और जलवायु तंत्र में हो रहे नए बदलावों को बेहतर ढंग से समझा जा सकेगा और नीतियों को अधिक प्रभावी बनाया जा सकेगा।
नतीजों में सामने आए गंभीर तस्वीर
इस अध्ययन के जो निष्कर्ष सामने आए हैं उनके मुताबिक 2024 में धरती की कार्बन अवशोषण क्षमता पिछले 10 सालों के औसत के आधे से भी कम रह गई। विशेष रूप से यह गिरावट उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में सबसे ज्यादा थी।
रिसर्च से यह भी पता चला है कि उष्णकटिबंधीय पारिस्थितिक तंत्र में घास के मैदान और सवाना क्षेत्रों में कार्बन सोखने की क्षमता में आई गिरावट वर्षावनों की तुलना में अधिक रही। यह बताता है कि सूखी-आर्द्र परिस्थितियों वाले क्षेत्र चरम घटनाओं के प्रति अपेक्षित रूप से अधिक संवेदनशील हैं।
आगे के विश्लेषण से पता चला कि भीषण गर्मी और सूखे के कारण वनस्पतियों की उत्पादकता में आई गिरावट ही उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में कार्बन अवशोषण घटने का मुख्य कारण है।
अध्ययन में यह भी सामने आया है कि उष्णकटिबंधीय, विशेषकर अर्ध-शुष्क घास के मैदान और सवाना पहले की तुलना में कहीं अधिक कमजोर और संवेदनशील हैं। यह स्थिति वातावरण में बढ़ती कार्बन डाइऑक्साइड की गति को और तेज कर सकती है।
'वर्ल्ड हेरिटेज फारेस्ट: कार्बन सिंक्स अंडर प्रेशर' नामक रिपोर्ट में भी सामने आया है कि मानव गतिविधियों के दबाव के चलते अब जंगल कार्बन सिंक से उत्सर्जक बनते जा रहे हैं।
रिपोर्ट के मुताबिक यूनेस्को विश्व धरोहर स्थलों में शुमार यह जंगल पर्यावरण, जलवायु और जैवविधता के दृष्टिकोण से बहुत मायने रखते हैं। लेकिन जिस तरह से जलवायु परिवर्तन और भूमि उपयोग के चलते इन पर दबाव बढ़ता जा रहा है उनसे इनकी कार्बन सोखने की क्षमता पर भी असर पड़ रहा है।