जलवायु संकट एक ऐसा खतरा है जिसे और नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। इसकी कीमत आज सारी दुनिया भुगत रही है। भारत जैसे देशों में जहां आज भी बड़ी आबादी गरीबी और भुखमरी का शिकार है। वहां यह समस्या और गंभीर रूप लेती जा रही है। इसी समस्या का एक पहलु एक्शन ऐड द्वारा प्रकाशित नई रिपोर्ट ‘कॉस्ट ऑफ क्लाइमेट इनएक्शन’ में सामने आया है। इसके अनुसार 2050 तक भारत के 4.5 करोड़ से ज्यादा लोग जलवायु से जुड़ी आपदाओं के चलते अपना घर छोड़ने के लिए मजबूर हो जाएंगे। यह आंकड़ा वर्तमान से करीब 3 गुना ज्यादा है।
रिपोर्ट के अनुसार वर्तमान में सूखा, समुदी जलस्तर के बढ़ने, जल संकट, कृषि और इकोसिस्टम को हो रहे नुकसान जैसी आपदाओं के चलते देश में 1.4 करोड़ लोग पलायन करने को मजबूर हैं। गौरतलब है कि इन आंकड़ों में बाढ़, तूफान जैसी आपदाओं से होने वाले प्रवास को नहीं जोड़ा गया है, वर्ना यह आंकड़ा इससे कई गुना ज्यादा होता, क्योंकि यह देश बड़े पैमाने पर बाढ़ और तूफान जैसी अचानक आने वाली त्रासदियों का दंश झेल रहे हैं।
पश्चिम बंगाल सरकार की एक रिपोर्ट से पता चला है कि 2019 में आए ‘बुलबुल’ तूफान के चलते भारत में 35.6 लाख लोग प्रभावित हुए थे। इस आपदा में करीब 5 लाख घर नष्ट हुए थे। इससे करीब 15 लाख हेक्टेयर फसल बर्बाद हो गई थी, जबकि 13,286 मवेशियों की मौत हो गई थी। जबकि मछलीपालन को करीब 735 करोड़ रुपए का नुकसान हुआ था।
इस त्रासदी में यदि भारत के साथ दक्षिण एशिया के अन्य 4 देशों (बांग्लादेश, पाकिस्तान, नेपाल और श्रीलंका) को भी जोड़ दें तो इन आपदाओं चलते बेघर होने वाले लोगों का आंकड़ा 2020 में बढ़कर 1.8 करोड़ हो जाएगा। वहीं 2050 तक तापमान में हो रही वृद्धि को 3.2 डिग्री सेल्सियस पर रोकने में नाकाम रहते हैं तो यह आंकड़ा बढ़कर 6.3 करोड़ पर पहुंच जाएगा।
2050 तक अर्थव्यवस्था को होगा 7 से 13 फीसदी का नुकसान
दक्षिण एशिया के इन पांच देशों की बड़ी आबादी कृषि और मछलीपालन पर निर्भर है, जोकि उनके भोजन और आय का मुख्य स्रोत हैं। विश्व बैंक द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार नेपाल के 65 फीसदी, भारत के 41 फीसदी, बांग्लादेश के 38 फीसदी, पाकिस्तान के 36 फीसदी और श्रीलंका के 24 फीसदी श्रमिक कृषि कार्यों में लगे हुए हैं। इन देशों में खेती काफी हद तक जलवायु पर निर्भर है। ऐसे में यदि सूखा पड़ता है या बाढ़ आती है तो उसका खामियाजा सबसे ज्यादा कृषि को ही उठाना पड़ता है। भारत के 60 फीसदी खेतों की सिंचाई बारिश पर निर्भर हैं, ऐसे में यदि कृषि को नुकसान होता है तो उसका बोझ पहले से ही गरीबी में जी रहे किसानों पर बहुत ज्यादा पड़ता है।
इस वर्ष मैकिंसे ग्लोबल इंस्टीट्यूट द्वारा किए एक शोध से पता चला है कि यदि जलवायु परिवर्तन को रोकने की दिशा में कोई ठोस कदम न उठाए गये तो 2050 तक दक्षिण एशियाई देश अपने जीडीपी का 2 फीसदी खो देंगे। जो सदी के अंत तक बढ़कर 9 फीसदी हो जाएगा। इसमें जलवायु से जुड़ी चरम आपदाओं से होने वाले नुकसान को नहीं जोड़ा गया है, वरना यह आंकड़ा इससे कहीं अधिक होता। अन्य अनुमानों से पता चला है कि जलवायु से जुड़ी आपदाओं का सबसे ज्यादा असर दक्षिण एशिया के गरीब तबके पर होगा। जलवायु से जुड़ी आपदाओं के चलते 2050 तक इन देशों की जीडीपी को 7 से 13 फीसदी के नुकसान का अनुमान लगाया गया है।
आंकड़ें दिखाते हैं कि 1998 से 2017 के बीच बाढ़, सूखा, तूफान, हीटवेव, सुनामी जैसी आपदाओं के चलते 5,85,176 करोड़ रुपए (7,950 करोड़ डॉलर) का नुकसान हुआ था। एडीबी द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार सदी के अंत तक इन आपदाओं से निपटने के लिए दक्षिण एशियाई देशों को हर वर्ष अपनी जीडीपी के करीब 0.86 फीसदी हिस्से को खर्च करना होगा।
यह संकट महिलाओं के लिए कहीं ज्यादा भारी होगा। दक्षिण एशिया में जहां 50 फीसदी से ज्यादा महिला श्रमिक या तो खेती में लगी हैं या फिर अपने घर से जुड़ी जिम्मेदारियों को निभा रही हैं, जिसके लिए उन्हें कोई मेहनताना नहीं मिलता। ऐसे में यदि फसल को नुकसान होता है या फिर परिवार को पलायन करना पड़ता है तो उनपर कहीं ज्यादा दबाव पड़ता है। साधनों के आभाव में पलायन करने वाले परिवार का या तो अपनी जमीन जायदाद बेचनी पड़ती है या फिर कर्ज लेना पड़ता है जोकि उन्हें गरीबी और कर्ज के भंवर जाल में फंसा देता है।
कौन हैं इन सबके लिए जिम्मेदार
रिपोर्ट के अनुसार अब तक हुए उत्सर्जन में दक्षिण एशिया का 5 फीसदी से कम हिस्सा है, जबकि वह दुनिया की एक चौथाई आबादी का घर है जो बड़े पैमाने पर जलवायु से जुडी आपदाओं जैसे बाढ़, सूखा, तूफान आदि का असर झेल रही है।
यदि 1990 से 2015 के आंकड़ों पर गौर करें तो दुनिया के 10 फीसदी अमीरों ने करीब 52 फीसदी उत्सर्जन किया था। जबकि इसके विपरीत गरीब तबके की 50 फीसदी आबादी केवल 7 फीसदी उत्सर्जन के लिए जिम्मेवार है। यह गरीब तबका आज भी रोज 400 रुपए (5.5 डॉलर) से कम पर अपना जीवन बसर कर रहा है। यदि सिर्फ दक्षिण एशिया की बात करें तो वहां की 80 फीसदी आबादी इसी वर्ग से सम्बन्ध रखती है। जबकि अमीर तबके की 50 फीसदी आबादी उत्तरी अमेरिका और यूरोपियन यूनियन से सम्बन्ध रखती है। वहीं इसमें 20 फीसदी लोग चीन और भारत के हैं।
उत्सर्जन का यह अंतर कितना बड़ा है इसे इस बात से समझा जा सकता है कि एक औसत अमेरिकी, एक औसत नेपाली की तुलना में करीब 51 गुना ज्यादा उत्सर्जन करता है।
अंतराष्ट्रीय संस्था ऑक्सफेम द्वारा जारी एक रिपोर्ट के अनुसार क्लाइमेट फाइनेंस के नाम पर अमीर देशों और विभिन्न संस्थानों द्वारा विकासशील देशों को करीब 4,40,637 करोड़ रुपए (60 बिलियन डॉलर) का वित्त दिया गया था, पर सच्चाई यह है कि उन देशों के पास इसका करीब एक तिहाई ही पहुंच पाया था। जबकि बाकि का पैसा ब्याज, पुनर्भुगतान और अन्य लागतों के रूप में काट दिया गया था।
अनुमान है कि 2017-18 के दौरान केवल 1,39,535 से 1,65,239 करोड़ रुपए (19 से 22.5 बिलियन डॉलर) की राशि ही इन देशों तक पहुंच पाई थी। गौरतलब है कि 2020 तक अमीर राष्ट्रों ने हर वर्ष 7,34,395 करोड़ रुपए (100 बिलियन डॉलर) विकासशील देशों को क्लाइमेट फाइनेंस के रूप में देने का समझौता किया था।
वहीं संयुक्त राष्ट्र और ओईसीडी के आंकड़ों पर आधारित इस रिपोर्ट के अनुसार क्लाइमेट फाइनेंस के रूप में दिया गया करीब 80 फीसदी पैसा कर्ज के रूप में था, जोकि करीब 3,45,166 करोड़ रुपए (47 बिलियन डॉलर) था। जबकि इसमें से करीब आधा 176,254 करोड़ रुपए (24 बिलियन डॉलर) गैर-रियायती था। जिसका मतलब है कि यह ऋण कड़ी शर्तों पर दिया गया था। ऐसे में यह कर्ज उन देशों के लिए और भारी साबित होगा।
क्या है समाधान
ऐसे में इस समस्या का क्या समाधान है यह चिंतन का विषय है। सबसे पहले तो पैरिस समझौते के लक्ष्यों को हासिल किया जाना चाहिए, जिससे उत्सर्जन में कटौती की जा सके और जलवायु में आ रहे बदलावों एवं तापमान में हो रही वृद्धि को रोका जा सके। साथ ही अमीर देशों को क्लाइमेट फाइनेंस में ज्यादा से ज्यादा योगदान करना चाहिए । जिससे जलवायु परिवर्तन की मार झेल रहे देशों की ज्यादा से ज्यादा मदद की जा सके।
विकसित देशों को कर्ज के बजाय क्लाइमेट फाइनेंस अनुदान के रूप में अधिक देना चाहिए। साथ ही जलवायु संकट से निपटने को वरीयता देनी चाहिए। जिसमें कमजोर देशों को अधिक प्राथमिकता मिलनी चाहिए।
कृषि क्षेत्र में सुधार करने की जरुरत है जिससे होने वाले नुकसान को सीमित किया जा सके। गरीब तबके के लोगों को सामाजिक आर्थिक सुरक्षा देनी चाहिए। जिससे इन आपदाओं के समय भी वो अपने आप को सुरक्षित रख सकें और एक अच्छा जीवन व्यतीत कर सकें।