पिछले 400 से 700 वर्षों में, हिमालयी क्षेत्र के अधिकांश हिस्सों में ग्लेशियरों का लगभग 40 फीसदी हिस्से का नुकसान हो गया है। यह 28,000 वर्ग किलोमीटर से सिकुड़कर लगभग 19,600 वर्ग किलोमीटर रहा गया है। ग्लेशियरों के तेज दर से पिघलने के ताजे जल संसाधनों और महत्वपूर्ण सामाजिक-आर्थिक प्रभाव पड़ सकते हैं।
संसद में इस बात की जानकारी देते हुए, पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय ने लीड्स विश्वविद्यालय के एक हालिया अध्ययन का हवाला देते हुए कहा कि पिछले कुछ दशकों में हिमालय के ग्लेशियरों ने पिछले बड़े ग्लेशियर के विस्तार के बाद से औसतन 10 गुना अधिक तेजी से बर्फ खो दी है।
अध्ययन में विश्वविद्यालय की शोध टीम ने 14,798 हिमालय के ग्लेशियरों के आकार और बर्फ की सतहों का पुनर्निर्माण किया था, क्योंकि वे हिमयुग या लिटिल आइस एज के दौरान थे, जो कि 400 से 700 साल पहले का समय था।
विज्ञान और प्रौद्योगिकी और पृथ्वी राज्य मंत्री डॉ जितेंद्र सिंह ने लोकसभा में बताया कि, पिघलने वाले ग्लेशियरों का हिमालयी नदियों के जल संसाधनों पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है। सिंह ने कहा ग्लेशियर बेसिन जल विज्ञान में परिवर्तन, नीचे की ओर तेजी से बहने वाले पानी, फ्लैश फ्लड और गाद की वजह से होने वाले बदलाव का जल विद्युत संयंत्रों पर बहुत बड़ा प्रभाव पड़ता है। उपरोक्त जानकारी डॉ जितेंद्र सिंह ने लोकसभा में सांसद दुष्यंत सिंह के एक प्रश्न के उत्तर में दी।
डॉ सिंह ने कहा ग्लेशियर से बनने वाली झीलों की संख्या और मात्रा में वृद्धि हो रही है। फ्लैश फ्लड और ग्लेशियर की झीलों के फटने से बाढ़ और ऊंचे हिमालयी इलाकों में खेती के प्रभावित होने आदि के लिए तेजी से पिघलते ग्लेशियर जिम्मवार हैं।
भारत के जम्मू और कश्मीर, लद्दाख, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, सिक्किम और अरुणाचल प्रदेश जैसे राज्यों में ग्लेशियर मौजूद हैं। तिब्बत और नेपाल के ग्लेशियरों का भी भारत में बहने वाली कई सहायक नदियों और नदियों पर प्रभाव पड़ता है।
डॉ सिंह ने बताया कि मंत्रालय विभिन्न वैज्ञानिक अध्ययनों के माध्यम से हिमालय के ग्लेशियरों की निगरानी करता है। इसमें विभिन्न भारतीय संस्थान, विश्वविद्यालय और संगठन जैसे भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण, वाडिया हिमालय भूविज्ञान संस्थान, राष्ट्रीय ध्रुवीय और महासागर अनुसंधान केंद्र (एनसीपीओआर), राष्ट्रीय जल विज्ञान संस्थान (एनआईएच), अंतरिक्ष अनुप्रयोग केंद्र (एसएसी) आदि शामिल हैं। जो ग्लेशियरों के पिघलने और ग्लेशियरों में तेजी से होने वाले नुकसान की समय-समय पर जानकारी देते हैं।
हिंदू कुश हिमालय के ग्लेशियरों की औसत पीछे हटने की दर 14.9 से 15.1 मीटर प्रति वर्ष (एम/ए) है, जो सिंधु में 12.7 से 13.2 मीटर/ए, गंगा में 15.5 से 14.4 मीटर/ए और ब्रह्मपुत्र नदी घाटियों में 20.2 से 19.7 मीटर/ए से अलग-अलग है। हालांकि, काराकोरम क्षेत्र के ग्लेशियरों ने तुलनात्मक रूप से लंबाई में मामूली बदलाव दिखा है, शून्य से 1.37 - 22.8 मीटर / ए, जो स्थिर स्थिति का संकेत देता है।
मंत्रालय ने कहा कि विभिन्न विश्वविद्यालयों और अन्य शोध संगठनों द्वारा हिमालय के ग्लेशियरों के लिए किए गए मास बैलेंस अध्ययनों से यह भी पता चला है कि हिमालय के अधिकांश ग्लेशियर अलग-अलग दरों पर पिघल रहे हैं या पीछे हट रहे हैं।