जलवायु

एक व्यक्ति की मृत्यु के लिए जिम्मेवार है 35 भारतीयों द्वारा किया जा रहा उत्सर्जन

Lalit Maurya

यदि देखा जाए तो औसतन 35 भारतीय अपने जीवन भर में इतना कार्बन उत्सर्जित करते हैं, जो एक व्यक्ति की जीवन लीला को समाप्त करने के लिए पर्याप्त होता है। अनुमान है कि एक औसत भारतीय अपने जीवन भर में करीब 127 मीट्रिक टन कार्बन उत्सर्जित करता है। वहीं यदि वैश्विक स्तर पर देखें तो दुनिया में एक औसत व्यक्ति करीब 347 मीट्रिक टन कार्बन उत्सर्जित करता है। इस लिहाज से देखें तो भारत द्वारा किया जा रहा प्रति व्यक्ति उत्सर्जन 173.2 फीसदी कम है। वहीं एक औसत अमेरिकी अपने जीवन भर में करीब 1,276 मीट्रिक टन कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जित करता है। 

यदि अमेरिका जैसे संपन्न देशों की बात करें तो उनकी जीवन शैली ऐसी है कि औसतन 3.5 अमेरिकी अपने जीवन भर में इतना उत्सर्जन करते हैं जो एक व्यक्ति की जान लेने के लिए काफी होता है, वहीं साऊदी अरब के लिए यह आंकड़ा 3.1 है। यह जानकारी हाल ही में जर्नल नेचर कम्युनिकेशन्स में छपे एक शोध 'द मोर्टेलिटी कॉस्ट ऑफ कार्बन' में सामने आई है।

हालांकि इसका यह मतलब नहीं है कि 3.5 अमेरिकी या 35 भारतीय मिलकर एक व्यक्ति की जान ले रहे हैं यह एक अनुमान है जो दर्शाता है कि 4,434 मीट्रिक टन कार्बन डाइऑक्साइड सदी के अंत तक एक व्यक्ति की मृत्यु के लिए जिम्मेवार होगा। वहीं यदि नाइजीरिया की बात करें तो वहां के करीब 146.2 नागरिक मिलकर अपने जीवन भर में इतना उत्सर्जन करते हैं। वैश्विक आधार पर देखें तो औसतन 12.8 व्यक्ति अपने जीवन भर में इतना उत्सर्जन करते हैं। वहीं यूनाइटेड किंगडम के लिए यह आंकड़ा 9.4 और ब्राजील के लिए 25.8 है।

यह सीधे तौर पर दर्शाता है कि विकासशील देशों की तुलना में विकसित देशों द्वारा कहीं ज्यादा उत्सर्जन किया जा रहा है, जिसका जलवायु पर उतना ज्यादा प्रभाव पड़ रहा है। यदि इसे दूसरी तरह समझें तो 2020 के बेसलाइन उत्सर्जन में 10 लाख मीट्रिक टन की वृद्धि से करीब 226 लोग मारे जाएंगे, जोकि 216,000 यात्री वाहनों द्वारा किए जा रहे उत्सर्जन के बराबर है। यह उतना उत्सर्जन है जितना 115,000 घर या 35 वाणिज्यिक एयरलाइन एक वर्ष में उत्सर्जित करते हैं। यही नहीं अनुमान है कि अमेरिका में एक थर्मल पावर प्लांट हर साल औसतन इतना कार्बनडाइऑक्साइड उत्सर्जित करता है, जो 904 लोगों की मृत्यु का कारण बन सकता है।

सदी के अंत तक और 8.3 करोड़ लोगों की मृत्यु का कारण बनेगा जलवायु परिवर्तन

शोध के अनुसार यदि जिस रफ़्तार से उत्सर्जन हो रहा है वैसा ही चलता रहा तो 2050 तक वैश्विक औसत तापमान में 2.1 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हो जाएगी। यह वह सीमा है जिसे पैरिस समझौते के तहत तापमान में हो रही वृद्धि को सीमित करने के लिए निर्धारित किया गया है। इसके बाद जलवायु परिवर्तन के परिणाम समय के साथ बद से बदतर होते जाएंगे। इस लिहाज से सदी के अंत तक तापमान 4.1 डिग्री सेल्सियस बढ़ जाएगा।

इस वृद्धि के चलते सदी के अंत तक करीब 8.3 करोड़ अतिरिक्त लोगों की जान जाएगी। अनुमान है की इनमें से ज्यादातर मौतें अफ्रीका, मध्य पूर्व और दक्षिण एशिया के देशों में होंगी जो पहले से ही गरीबी और बढ़ते तापमान का कहर झेल रहे हैं।

हालांकि इस शोध से जुड़े शोधकर्ताओं के अनुसार यह कार्बन उत्सर्जन के कारण होने वाली मौतों का सही आंकड़ा नहीं है क्योंकि यह सिर्फ तापमान में हो रही वृद्धि से जुड़ी मौतों को दर्शाता है। इसमें वायु प्रदूषण, बाढ़ आदि से होने वाली मौतों को शामिल नहीं किया गया है।  

यदि इस शोध से जुड़े प्रमुख शोधकर्ता ब्रेसलर की मानें तो डाइस मॉडल के अनुसार 2020 में हर एक मीट्रिक टन कार्बन डाइऑक्साइड की सामाजिक लागत करीब 37 डॉलर या 2,753 रुपए है। लेकिन यदि इसमें मृत्युदर में होने वाली वृद्धि को भी जोड़ दिया जाए तो यह लागत बढ़कर 19,197 रुपए (258 डॉलर) प्रति टन पर पहुंच जाएगी। 

गौरतलब है कि कार्बन की सामाजिक, या वित्तीय लागत की गणना अर्थशास्त्री विलियम नॉर्डहॉस ने सबसे पहले की थी। जो बाद में व्यापक रूप से उपयोग की जाने वाली मीट्रिक बन गई है। यह माप बदलती जलवायु के अनुकूलन के साथ एक टन कार्बन उत्सर्जन से होने वाले नुकसान की गणना करती है। इसका मतलब है कि हमें उत्सर्जन में बड़े पैमाने पर कटौती करने की जरुरत है, जिससे  2050 तक कार्बन उत्सर्जन को पूरी तरह रोका जाए। शोध के अनुसार यदि हम ऐसा कर पाने में सफल रहते हैं तो सदी के अंत तक तापमान में हो रही वृद्धि को 2.4 डिग्री सेल्सियस पर रोक पाने में सफल रहेंगें, जिससे करीब 7.4 करोड़ लोगों की जान बचाई जा सकेगी।