अंतराष्ट्रीय शोधकर्ताओं के एक टीम द्वारा किए अध्ययन से पता चला है कि ग्लोबल वार्मिंग के चलते जिस तरह बायोक्रस्ट को नुकसान हो रहा है, उसके कारण अब के मुकाबले 2070 तक वातावरण में करीब 15 फीसदी ज्यादा धूल उत्सर्जित हो सकती है।
देखा जाए तो बायोक्रस्ट जिसे "पृथ्वी की जीवित त्वचा" भी कहा जाता है, भूमि के वो क्षेत्र हैं जो शुष्क तो हैं, पर रेतीले नहीं हैं। यह धरती की वो ऊपरी परत है जिसमें गैर-संवहनी पौधें, सूक्ष्मजीव और लाइकेन यानी काई पाई जाती है। यह सभी जैविक पदार्थ मिट्टी में मिलकर सख्त हो जाते है और एक परत का निर्माण कर देते हैं, जिसकी वजह से धूल के कण वातावरण में नहीं उड़ पाते। शोधकर्ताओं के मुताबिक यह बायोक्रस्ट एक तरह से धरती की जीवित त्वचा जैसी है, जो धरती का करीब 12 फीसदी तक हिस्सा कवर करती है।
जर्नल नेचर जियोसाइंस में प्रकाशित अपने इस शोध में वैज्ञानिकों ने इस धूल से जुड़े आंकड़ों का विश्लेषण किया है और यह समझाने का प्रयास किया है कि यह बायोक्रस्ट वैश्विक धूल चक्र को कैसे प्रभावित करती है। साथ ही जैसे-जैसे वैश्विक तापमान में वृद्धि हो रही है उसके चलते बायोक्रस्ट को होते नुकसान के भविष्य में क्या परिणाम सामने आ सकते हैं।
गौरतलब है कि अप्रैल 2022 की शुरआत से ही मध्य पूर्व के कई देशों जैसे ईरान, सऊदी अरब, बहरीन और इराक में धूल के कई भीषण तूफान आए हैं, जिनकी वजह से वहां कई शहरों में स्कूल, कार्यालय बंद करने पड़े थे। इतना ही नहीं पिछले सप्ताह आए दो तूफानों से तो स्थिति इतनी ज्यादा बदतर हो गई थी कि लोगों को सांस की तकलीफ शुरू हो गई थी जिसकी वजह से उन्हें अस्पताल तक में भर्ती करना पड़ा था।
भारत में भी रेत और धूल भरी आंधी के चलते खतरे में है 50 करोड़ लोग
अगस्त 2021 में एशिया प्रशांत क्षेत्र में धूल के तूफान से होने वाले नुकसान को लेकर जारी एक रिपोर्ट से पता चला है कि भारत में करीब 50 करोड़ से ज्यादा लोग रेत और धूल भरी आंधी के चलते खराब होती वायु गुणवत्ता के संपर्क में है।
इतना ही नहीं तुर्कमेनिस्तान, पाकिस्तान, उज्बेकिस्तान, तजाकिस्तान और ईरान की करीब 80 फीसदी आबादी पर इसका खतरा मंडरा रहा है। रिपोर्ट से पता चला है कि 2019 में इन जगहों पर करीब 6 करोड़ लोग साल के 170 दिनों में गंभीर धूल भरे हालात को झेलने के लिए मजबूर थे।
वैज्ञानिकों के मुताबिक इसमें कोई शक नहीं कि वायुमंडलीय धूल चक्र में बायोक्रस्ट की अहम भूमिका है, हालांकि इसके बारे में हमारी जानकारी बहुत सीमित है। यही वजह है कि उन्होंने इसके बारे में और ज्यादा जानने के लिए जलवायु में आते बदलावों और उसके बायोक्रस्ट पर पड़ते प्रभावों का अध्ययन किया है।
इस शोध में जो निष्कर्ष सामने आए हैं उनसे पता चला है कि बायोक्रस्ट हर साल करीब 700 टेराग्राम धूल को वातावरण में फैलने से रोक रही है। अनुमान है कि यदि यह परत न हो तो वातावरण में 55 फीसदी ज्यादा धूल उत्सर्जित होगी।
वहीं जलवायु मॉडल की मदद से किए विश्लेषण में सामने आया है कि यदि वैश्विक तापमान में होती वृद्धि जारी रहती है तो 2070 तक बायोक्रस्ट को जितना नुकसान होगा उसके चलते 15 फीसदी ज्यादा धूल उत्सर्जित हो सकती है। हालांकि शोधकर्ताओं ने यह भी माना है कि वैश्विक रूप से धूल के उत्सर्जन में होने वाली वृद्धि का पृथ्वी पर क्या परिणाम हो सकता है, या फिर किन स्थानों पर इसका सबसे ज्यादा प्रभाव पड़ेगा।
हालांकि पिछले शोधों से पता चला है कि वातावरण में बढ़ती धूल सौर विकिरण को बिखेर देती है। साथ ही यह बर्फ और बादलों को बनने में भी अहम भूमिका निभाती है। इतना ही नहीं धूल के यह कण पोषक तत्वों को अपने साथ दूर तक ले जा सकते हैं। वहीं कुछ मामलों में इनके जरिए बैक्टीरिया और वायरस को भी दूसरे स्थानों तक ले जाए जाने की घटनाएं सामने आई हैं।