आम चुनाव 2019 के परिणाम आ चुके हैं। पुरानी सरकार ही नई सरकार है। सरकार का पर्यावरण और विकास का एजेंडा क्या होना चाहिए? इस सवाल के जवाब से पहले हमें इन चुनावों के परिणाम और उसके मायने समझने होंगे। दरअसल, 2019 चुनाव में विकास कोई मुद्दा नहीं था। यह अलग बात है कि ग्रामीण भारत संकट से जूझ रहा है, बेरोजगारी चरम पर पहुंच गई है और देश के कई हिस्सों में सूखा विकराल हो चुका है। इसके अलावा आदिवासियों को अपनी जमीन छिनने का डर है। साथ ही प्रदूषण बढ़ रहा है, जो देश के कई हिस्सों में जनस्वास्थ्य के लिए आपातकालीन स्थिति पैदा कर रहा है।
यह तर्क दिया जा सकता है कि लोगों ने पुरानी सरकार को बने रहने के लिए मजबूती से वोट दिया, क्योंकि ये मुद्दे महत्वपूर्ण नहीं हैं। यह भी कहा सकता है कि ये मुद्दे वास्तविक नहीं हैं। अगर ऐसा है, तो सरकार को इन मुद्दों पर बात किए बगैर आगे बढ़ने का अधिकार है या सरकार को भरोसा है कि उसने पहले ही इन समस्याओं को ठीक कर दिया है और उनकी मौजूदा नीतियां सभी के लिए फायदेमंद हैं। सब कुछ ठीक है, वर्ना लोग दूसरी तरह की बात करते।
लेकिन यह वह जगह है, जहां हमें 2019 के चुनावों को पिछले पांच वर्षों की नीतियों पर जनमत संग्रह नहीं बनने देना चाहिए। मेरे विचार में, लोकतंत्र का यह फैसला पढ़ने में इतना सरल नहीं है। यह विकास के लिए वोट नहीं है, क्योंकि यह साफ है कि विकास के असली मुद्दे इस चुनाव के एजेंडे में कभी थे ही नहीं।
इस चुनाव में विपक्ष समावेशी विकास के लिए नीतियों की जरूरतों के बारे में बताने में पूरी तरह फेल साबित हुआ है। दूसरा, लोगों ने बदलाव के विरोध में मतदान किया, लेकिन चूंकि वे एक मतबूत नेतृत्व को वोट देना चाहते थे। इस तेजी से असुरक्षित, गंदी और असभ्य दुनिया में बढ़ती असुरक्षा के चलते लोग एक ताकतवर नेता को वोट दे रहे हैं। लोग मानते हैं कि यह नेता अज्ञात से उनकी रक्षा करेगा।
फिर सरकार का एजेंडा क्या होना चाहिए?
सबसे महत्वपूर्ण है, कृषि संकट। यह वास्तविक है। कृषि क्षेत्र ऐसा व्यवसाय साबित हो रहा है, जिससे करोड़ों लोग जुड़े हैं, लेकिन वे लाभ से लगातार वंचित हो रहे हैं। वे सब संकट में है और उनके पास शहरी इलाकों में जाकर बसने के अलावा कोई चारा नहीं है, जहां उन्हें अवैध में रह रहे लोगों के साथ रहना पड़ता है। यह व्यवसाय आगे चलकर बेमौसम मौसम का शिकार होगा। साथ ही, किसानों को अधिक पैदावार होने के कारण कीमतों में कम मिल रही हैं और अनाज का आयात किया जा रहा है।
पिछले पांच साल में सरकार ने दो काम मुख्य रूप से किए हैं। एक, किसानों को उनकी फसल का नुकसान होने पर बीमा प्रदान करना और उन्हें आवास, शौचलाय, गैस सिलेंडर जैसी मूल जरूरतें उपलब्ध कराना। लेकिन यह काफी नहीं है। इसके साथ-साथ यह सुनिश्चित करना चाहिए था कि किसानों की लागत उसके उत्पादों की कीमतों से अधिक न बढ़े। उनके लिए सिंचाई की व्यवस्था की जानी चाहिए और साथ ही यह भी व्यवस्था करनी चाहिए थी कि उनकी फसल को आवारा और जंगली पशुओं द्वारा तबाह न किया जाए।
दूसरा, जंगलों की नीतियों में भी बदलाव की जरूरत है। इसको लेकर अब तक स्पष्ट नहीं है कि असली एजेंडा क्या है कि गरीब आदिवासियों के लिए जंगल कैसे उनकी आजीविका का साधन बन सकते हैं। एक ओर, सरकार बांस के लिए नियम जारी करती है और उसकी खेती की इजाजत नहीं देती और छोटे वन उत्पादों के लिए समर्थन मूल्य में वृद्धि करती है तो दूसरी ओर सरकार वन नीति का मसौदा जारी करती है, जिससे जंगलों और उससे जुड़े व्यवसाय पर पूरी तरह से उसके विभाग का नियंत्रण हो जाएगा। विभाग ने वन अधिकार अधिनियम को वास्तव में लागू करने के लिए कुछ नहीं किया है जिससे गरीब समुदाय के लोग इन संसाधनों का फायदा उठा सकें।
लेकिन यह भी सच है कि पिछली सरकारों की तरह इस सरकार ने भी वन्यजीव संरक्षण को लेकर कुछ खास नहीं किया है। जानवरों की सुरक्षा के बारे में शोर करना जारी रखा, लेकिन पिछले सभी सरकारों की तरह इस सरकार ने सड़कों, खनन या जलविद्युत परियोजनाओं के लिए जंगलों का इस्तेमाल और अधिक आसान कर दिया है। सभी ने कहा, गरीबों की आजीविका सुरक्षा के लिए जंगल और उसका विकास किया जा रहा है, लेकिन जंगलों का सरंक्षण सरकार की प्राथमिकता में शामिल नहीं रहा। यह बदलाव का एजेंडा है।
अब स्थानीय प्रदूषण जैसे जल और वायु, जो जहरीली हो चुकी है और स्वास्थ्य पर असर डाल रही है, की बात करते हैं। इसमें कोई शक नहीं है कि वायु प्रदूषण दिखता नहीं है और पिछले कुछ सालों में ईंधन की गुणवत्ता में और गाड़ियों की तकनीक में सुधार की दिशा में सरकार ने काम किया है। साथ ही, किसान फसलों के अवशेष न जलाएं, उन्हें मशीनों के लिए सब्सिडी दी है, लेकिन यह सभी कदम छोटे हैं और देर से उठाए गए हैं। सरकार साफ हवा चाहती है, लेकिन यह करते वक्त सरकार किसी को परेशानी में नहीं डालना चाहती। अब तक बिजली से चलने वाले वाहनों को लेकर कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया है और न ही साफ ईंधन जैसे गैस या बिजली की सस्ती और उपलब्धता को लेकर कुछ काम किया गया है।
सबसे अहम है कि प्रदूषण को कड़ाई से नियंत्रण करने के लिए कुछ नहीं किया गया है। हमें प्रभावी कदम उठाने की जरूरत है, लेकिन पिछले पांच साल के दौरान हमारे पर्यावरणीय संस्थानों को लगातार कमजोर किया गया है। इनदिनों, पर्यावरण विभाग और प्रदूषण नियंत्रत बोर्डों में नियुक्त ज्यादातर अधिकारियों का मानना है कि उनका काम प्रदूषण नियंत्रण नहीं है, बल्कि उद्योगों का बचाव करना है। विभागों में कार्यरत कर्मचारियों की संख्या कम है और उच्च अधिकारी भी नहीं हैं। केवल अदालत के आदेशों के बाद ही कार्रवाई होती है, जो उनकी और सरकार की इच्छा के खिलाफ होता है। यदि हम स्वच्छ पर्यावरण का अधिकार पाना चाहते हैं तो यह बदलना चाहिए, क्योंकि यह हमारे स्वास्थ्य से जुड़ा है।
पानी की कमी, जिसकी वजह से शौचालय बनाना बेकार रहा और नदियों का सौंदर्यीकरण भी एक एजेंडा है। यह इस कारण है कि हम ऐसे सूखे की हालात से गुजर रहे हैं और देश के बहुत बड़े हिस्से में फैल चुका है और इससे पहले कभी नहीं हुआ। चूंकि इस बारे में 2019 चुनाव में कुछ नहीं कहा गया, इसका मतलब यह नहीं है कि सूखा नहीं है। हर बाढ़ और हर सूखा हमारे देश को भूख की ओर धकेल रहा है और विकास को प्रभावित कर रहा है और देश के लागों को अधिक गरीब व अभाव की ओर ले जा रहा है।
आप यह तर्क दे सकते हैं कि यह केंद्र सरकार के लिए एजेंडा नहीं है। अगले विधानसभा चुनाव में लोग इन मुद्दों के लिए वोट करेंगे, लेकिन मैं इससे असहमत हूं, ये देशव्यापी मुद्दे हैं। सरकार, खासकर जिसे भारी बहुमत मिला है, को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि वह हमें समावेशी और टिकाऊ भविष्य दे। यह एजेंडा है, न इससे कम और न इससे ज्यादा।