वायु

वायु का शुद्धिकरण

Rakesh Kalshian

नवंबर में जहरीली हवा शहर को अपनी आगोश में ले लेती है। इसके साथ ही यह बेहद आम लगने वाले घटनाक्रमों को जन्म देती है–असंतोष से जनता और मीडिया के बीच अधिक चिंता और विषाद की स्थिति, राजनीतिज्ञों द्वारा आपस में आरोप-प्रत्यारोप और अंत में जब खतरा लाल निशान से ऊपर पहुंच जाता है तब न्यायालयों द्वारा कड़ी कानूनी कार्रवाई। स्कूलों में छुट्टियां घोषित कर दी गईं, स्वास्थ्य संबंधी दिशा–निर्देश जारी कर दिए गए, निर्माण संबंधी कार्य स्थगित कर दिए गए, थर्मल ऊर्जा संयंत्र बंद कर दिए गए और हजारों की संख्या में व्यावसायिक ट्रकों को शहर की सीमा पर रोक दिया गया। इस बीच मास्क और एयर प्यूरीफायर निर्माता अप्रत्याशित मुनाफा कमाने लगे।

हालांकि, इस बार थोड़ी राहत थी, क्योंकि सर्वोच्च न्यायालय ने दिवाली के दस दिन पहले व दस दिन बाद पटाखों की बिक्री पर रोक लगा दी अपितु यह रोक पटाखे फोड़ने पर नहीं थी। इसके बावजूद कुछ लोगों ने पटाखे जलाए। इन 15 दिनों में प्रदूषण का स्तर भयानक स्तर पर बढ़ा, लोगों में सामान्य भावना यह रही कि यदि पटाखे जलाने पर रोक नहीं लगाई होती तो वायु और प्रदूषित होती।

इस तरह दिल्ली के प्रदूषण के लिए निर्धारक कारकों में पटाखों की भूमिका को बढ़ा कर प्रस्तुत किया गया, जबकि यह वातावरण में एक छोटे से कण के बराबर है। देखा जाए तो यह वर्ष में केवल एक बार होता है। समस्या यह है कि वायु प्रति वर्ष इसी समय भयानक स्तर पर जहरीली हो जाती है। कई घटनाएं एक साथ घटती हैं। तमाम तरह के भयावह परिणाम- जैसे मर्करी का नीचे जाना, निष्क्रिय वायु, पराली जलना और पश्चिमी एशिया से आने वाली धूल भरी हवाएं, इन सबके साथ मिलकर पहले से चिन्हित कारक जैसे वाहनों का धुआं, सड़क की धूल और ऊर्जा संयंत्रों से निकलने वाला धुआं, दिल्ली को एक दमघोंटू गैस चैंबर में बदल देते हैं। हवा मे पार्टिकुलेट मैटर (हवा में मौजूद खतरनाक बारीक कण) 2.5 का स्तर 6-13 गुना बढ़ जाता है जो स्वीकृत नहीं किया जा सकता।

निश्चित तौर पर यह आत्मघाती है। प्रदूषण और स्वास्थ्य विषय पर लांसेट की रिपोर्ट के अनुसार, बाह्य वायु प्रदूषण (मुख्यतया पार्टिकुलेट मैटर 2.5- छोटे कण जो मनुष्य के बाल की चौड़ाई से 30 गुना छोटे होते हैं और यह हमारे फेफड़े की आंतरिक अवतल पर बैठ जाते हैं) से प्रतिवर्ष तकरीबन 45 लाख लोग काल का ग्रास बन जाते हैं। इनमें से आधी आबादी चीन और भारत की है। इससे भी अधिक भयावह सच यह है कि प्रत्येक व्यक्ति पर प्रत्येक प्रदूषक या उनके मिश्रण का अलग-अलग असर पड़ता है, इसीलिए वैज्ञानिक किसी भी तरह के मापदंड तय करने में असहज हैं। किसी भी तरह का मापदंड स्वास्थ्य से अधिक अर्थशात्र का विषय है। यूरोपियन यूनियन में यह प्रति क्यूबिक मीटर पर 25 माइक्रोग्राम है। अमेरिका में 12 माइक्रोग्राम तो भारत मे 60 माइक्रोग्राम। हालांकि वैज्ञानिकों ने इस बात से जरूर सावधान किया है कि वायु प्रदूषण से हृदयाघात, कैंसर, अल्जाइमर जैसे घातक रोग उत्पन्न हो सकते हैं। अधिक चिंता की बात यह है कि यह नन्हे बच्चों के अतिसंवेदनशील शरीर में घुस कर बैठ जाता है।

फिर भी आश्चर्य की बात यह है कि इन भयावह आंकड़ों ने जनता को किसी भी तरह के सामूहिक प्रतिरोध के लिए उकसाया नहीं है। यहां यह हास्यास्पद है कि यह गरीब जनता को सबसे अधिक प्रभावित करती है, लेकिन केवल सुविधाभोगी वर्ग का एक तबका इसको लेकर परेशान हो रहा है। लोगों के परेशान न होने का एक तार्किक कारण यह हो सकता है कि इससे लोग एक साथ महामारी की तरह खत्म नहीं हो रहे हैं। यह एक धीमे जहर की तरह है जो हमारी प्राण शक्ति का हरण कर रही है, इसीलिए हममें से ज्यादातर तब तक सचेत नहीं होते जब तक हृदयाघात या कैंसर जैसी बीमारियां अचानक घेर नहीं लेतीं। यह थोड़ा अजीब लग सकता है लेकिन इस ओर अकेले ध्यान नहीं जाता बल्कि इन सभी–कीटाणुनाशक, विकिरण, विषाणु, दूषित भोजन, तनाव के साथ ध्यान जाता है।

वायु प्रदूषण के स्रोत बहुत पेचीदा हैं क्योंकि इसके परिणाम बहुत घातक होते हैं। हालांकि हमारे पास एक सामान्य अवधारणा है कि किन चीजों से वायु दूषित होती है, यहां फिर भी इस पर विवाद है कि बदलते मौसम के प्रभाव से अलग-अलग तरह के प्रदूषक एक दूसरे के साथ सम्मिलित होकर क्या प्रभाव डालते हैं। उदाहरण के लिए हाल में सरकारी वैज्ञानिकों के इस दावे पर विचार किया जा सकता है जो नवंबर माह के दूसरे सप्ताह में पार्टिकुलेट मैटर 2.5 में हुए बदलाव के लिए पश्चिम एशिया से धूल भरी हवाओं के योगदान को 40 प्रतिशत तक मान रहा था। इस मामले में भ्रामक व किसी भी सटीक अवधारणा का न होना राजनीतिक वर्गों की उदासीनता को दर्शाता है। इस मामले को राजनीतिज्ञों द्वारा गंभीरता से न लिए जाने के कारण अब चाहे अच्छा हो या बुरा, हमें वैज्ञानिकों की अवधारणा के भरोसे छोड़ दिया गया है, क्योंकि उन्हीं के पास इस तरह की विशेषज्ञता है कि वे बता सकें कि कब वायु स्वच्छ है, कब खराब है और कब आपात स्थिति है। वे ही वायु को प्रदूषित होने से लगातार बचाने के लिए उपाय सुझाएंगे। हाल ही में केंद्र सरकार द्वारा 2020 तक पूरे भारत में यूरो-6 ईंधन के प्रयोग करने का निर्णय इस परिप्रेक्ष्य को रेखांकित करता है।

यदि हमने सन 1990 के दौरान उत्पन्न हुए राजधानी के पहले वायु प्रदूषण के खतरे से सबक लेते हुए, जब हवा जहरीली हो गई थी, सहज रूप से कदम उठाए होते तो आज हम इतने बुद्धिहीन व असहाय न दिखाई पड़ते। तब भी सरकार बेपरवाह और संशय में थी और जनता असावधान। उसी दौरान सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट के अनिल अग्रवाल की अगुवाई में सक्रिय रूप से चलाए गए स्वच्छ वायु अभियान व इस विषय से संवेदित होते हुए उच्च न्यायालय के बीच बनी सहमति का नतीजा था जिससे सभी वाहनों व निजी डीजल वाहनों में सीएनजी चालित वैकल्पिक ईंधन लगाने और इसके साथ ही पुराने इंजन और दूषित ईंधन को हटाया गया। उस समय वायु प्रदूषण का विज्ञान इतना परिपक्व नहीं था, सुधार को बढ़ावा देने के लिए न्यायालय ने कदम उठाए।

इस अभियान से स्पष्ट रूप से हवा साफ हुई। सभी सरकारों को करना यह चाहिए था कि वे सस्ते व किफायती जन परिवहन व्यवस्था का निर्माण करतीं व इसके साथ ही सुनियोजित ढंग से उतरोत्तर इंजन और ईंधन की गुणवत्ता को सुधारने के प्रयास आरंभ करतीं। स्वच्छ वायु अभियान के कार्यकर्ताओं ने जल्द महसूस कर लिया था कि साफ ईंधन के परिणाम अच्छे और बुरे दोनों तरह के हैं। उदाहरण के लिए बिना सीसा के पेट्रोल के इस्तेमाल से सीसे से होने वाला प्रदूषण रुका, पर इसने बेंजेन का स्तर बढ़ा दिया, जो एक जाना हुआ कैंसर कारक है। इसी तरह अल्प सल्फर डीजल और नए डीजल इंजनों से पार्टिकुलेट मैटर 10 का स्तर घटा, पर इनसे अधिक मात्रा में NOx और अधिक भयावह रूप में पार्टिकुलेट मैटर 2.5 और छोटे कण उत्सर्जित हुए। यह तभी काम कर सकता है जब वाहनों की संख्या पर नियंत्रण रखा जाए। इस तरह देखा जाए तो शुरुआती लाभ धुएं में उड़ा दिए गए क्योंकि दिल्ली में वाहनों की संख्या में अचानक घातक स्तर पर वृद्धि हुई और परिणामस्वरूप यह दुनिया का सबसे प्रदूषित शहर बन गया।  

वायु प्रदूषण पर हाल की चर्चा में पार्टिकुलेट मैटर 2.5 को सबसे अधिक हानिकारक के तौर पर प्रस्तुत किया जा रहा है और दूसरे हानिकारक तत्वों जैसे-NOx, SOx, बेंजेन से ध्यान हटाया जा रहा है। जर्मनी के मैक्स प्लांक इंस्टीट्यूट फॉर कैमिस्ट्री के शोधकर्ताओं जोस लेलीवेल्ड और उलरिच पोसल द्वारा नेचर पत्रिका के हालिया लिखे लेख में कहा है कि हमें इन वायु-जनित सूक्ष्म-खलनायकों की प्रकृति को जानने के साथ, वे जो हमारे शरीर पर प्रभाव छोड़ते हैं, उनके अध्ययन के लिए विज्ञान में और शोध की आवश्यकता है। बहुत से अनसुलझे सवालों में उत्सर्जन स्तर और उसके स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभाव के बीच के संयोग अब भी अस्पष्ट हैं।

यह वैज्ञानिकों के स्वयं के बचाव के लिए की जाने वाली बयानबाजी हो सकती है, जिनके लिए यह कहने की हिमाकत की जा सकती है कि हम जिस जहरीली धुंध के बीच में खुद को फंसा पाते हैं, उसके लिए कहीं न कहीं वैज्ञानिक भी जिम्मेदार हैं। विज्ञान जटिल व्यवस्था-जैसे मानव पर्यावरण की जटिलता, स्वयं एक बुरे दौर से गुजर रहा है जहां यह बात निकलकर सामने आ रही है कि बहुत सारे शोध पुनरुत्पादित नहीं किए जा सकते। अब जो भी हो, हमारे राजनीतिक अर्थशास्त्र की मौजूदा प्रकृति के कारण जहरीली हवा की स्थिति बनी रहेगी। हमारे पास सुरक्षित रहने के लिए विज्ञान पर भरोसे के अलावा विकल्प नहीं है।

या जैसे दिल्ली ने 2001 में सीएनजी लागू करके जहरीली हवा से बहुत हद तक पार पाने में महत्वपूर्ण छलांग लगाई थी, इसी तरह हम अगले दो दशकों में विद्युत चालित वाहनों की ओर कदम बढ़ाकर अगली छलांग लगा सकते हैं। फ्रांस और यूके ऐसा अमल करने की घोषणा कर चुके हैं और भारत सरकार ने भी, हालांकि इस ओर बहुत उत्साह नहीं दिखा है। विद्युत चालित वाहन वायु प्रदूषण जैसी कठिन समस्या से निजात दिला सकते हैं। लेकिन, निश्चित तौर पर यह हमें हमेशा के लिए मोटरचालक होने का अधिकार नहीं देता। भविष्य में विध्वंसकारी प्रौद्योगिकी से हटकर एक राजनैतिक परिवर्तनकारी घोषणापत्र काम कर सकता है, जो पदयात्री व साइकिल चालक को मोटरचालक से अधिक महत्व देता है।

(यह मासिक खंड देश काल के अनुसार विज्ञान और पर्यावरण के विषय में आधुनिक विचारों के उलझाव को सुलझाने के लिए प्रयासरत है)