वायु

आवरण कथा: हवा ने बदली चाल, दिल्ली की जहरबुझी हवा के लिए है कितनी दोषी?

कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन में वृद्धि और उसके कारण होने वाली गर्मी गंगा के मैदानी क्षेत्र में सतही हवा की गति को धीमा कर रही है

Anumita Roychowdhury

सर्दी के मौसम में जाने-अनजाने पेड़ों के पत्तों को हिलते देखना हमारी आदत में शुमार हो गया है। इससे हमें पता चलता है कि हवा चल रही है या नहीं। इस तरीके से हम अंदाजा लगाते हैं कि सर्दी के मौसम में दिल्ली और गंगा के मैदानी इलाकों में छाई स्मॉग की मोटी चादर हटेगी या नहीं। हमारे लिए हवा का ठहराव एक बुरी खबर है।

हर साल सर्दी के मौसम में दिल्ली और गंगा के मैदानी इलाकों में फैला स्मॉग बहस का मुद्दा रहता है। वातावरण की स्थिति में बदलाव से बड़ी मात्रा में प्रदूषक हमारी नाक के करीब पहुंच जाते हैं। स्वास्थ्य के सामने खड़ा होने वाला यह गंभीर संकट हवा और तापमान की जटिल क्रिया का नतीजा है, जिसे अक्सर ठीक से नहीं समझा जाता।

यह जानलेवा स्मॉग आम भाषा में कहे जाने वाले विंटर इनवर्जन (व्युत्क्रमण) का नतीजा है। सर्दी के दौरान धरती की ठंडी सतह धरती के आसपास का तापमान कम कर देती है और हवा को ऊपर जाने और फैलने से रोकती है। गर्म हवा की ऊपरी परत नीचे की ठंडी हवा को रोक और फंसा लेती है। इससे इनवर्जन परत के नीचे प्रदूषण का एक बड़ा हिस्सा फंस जाता है।

ऐसी स्थिति में केवल हवा से ही बचाव संभव है। प्रदूषण तभी हटेगा जब शहर और आसपास हवा चले। हवा की गति और दिशा के साथ-साथ हवा के तापमान में परिवर्तन भूमि की सतह पर प्रदूषण के जमाव को प्रभावित करते हैं। हवा में तापमान परिवर्तन के कारण वायु के दबाव में फर्क पड़ता है।

गर्म हवा ऊपर उठती और चलती है तथा कम दबाव वाले क्षेत्रों को पीछे छोड़ती है। गैसें उच्च दबाव वाले क्षेत्रों से निम्न दबाव वाले क्षेत्रों में जाती हैं और प्रदूषण को छितरा देती हैं। कम दबाव वाले क्षेत्र में गैसें कम सघन जबकि उच्च दबाव वाले क्षेत्रों में अत्यधिक सघन होती हैं।

दिल्ली में 2023-24 की सर्दियों में सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट (सीएसई) द्वारा किए गए एक अध्ययन से हवा के पैटर्न और प्रदूषण की सघनता के बीच संबंध स्पष्ट रूप से उजागर हुआ।

उस दौरान पंजाब और हरियाणा में पराली में आग लगाने की घटनाओं में पिछली सर्दियों की तुलना में बहुत ज्यादा बदलाव नहीं आया, न ही इस क्षेत्र में प्रदूषण गतिविधियों में कोई अन्य असामान्य वृद्धि नहीं हुई थी। साथ ही उस मौसम में काफी बारिश भी हुई थी, फिर भी दिल्ली में पीएम 2.5 की सघनता में वृद्धि हुई, जिसका असर वार्षिक प्रदूषण के स्तर पर दिखा।

उस दौरान प्रदूषण की स्थिति के लिए हवा की गति में बदलाव का योगदान अहम रहा। नवंबर के दौरान दिल्ली में सतही हवा की औसत गति 9.8 मीटर प्रति सेकंड थी। यह इससे पहले के छह वर्षों के दौरान रिकॉर्ड की गई औसत हवा की सबसे कम गति थी। उस अवधि में हवा की गति 21 प्रतिशत धीमी थी।

हवा और प्रदूषकों की ऊर्ध्वाधर गति पहले से ही इनवर्जन के कारण सीमित थी, ऊपर से हवा की धीमी गति के कारण प्रदूषकों की क्षैतिज गति भी सीमित हो गई। इसने पीएम 2.5 के वार्षिक औसत स्तर में वृद्धि में योगदान दिया, जिससे दिल्ली में प्रदूषण में लंबे समय तक गिरावट की प्रवृत्ति खत्म हो गई। यह क्षेत्र में बहुत अधिक प्रदूषण के स्तर और हवा की गति में कमी का एक घातक मेल था।

वायुमंडलीय स्थिति में ऐसा जबर्दस्त प्रभाव 2023 में मुंबई में भी देखा गया। तब मुंबई में प्रदूषण सुर्खियां बन गया था। अमूमन मुंबई को तटवर्ती क्षेत्र होने के नाते प्राकृतिक लाभ मिलता है। यहां तुलनात्मक रूप से तेज सतही हवाएं प्रदूषकों को जल्दी छितरा देती हैं। साथ ही हवा का बदला रुख तेजी से प्रदूषकों को हटा देता है।

भारतीय उष्णकटिबंधीय मौसम विज्ञान संस्थान के पूर्व प्रसिद्ध वायुमंडलीय वैज्ञानिक डॉ. गुफरान बेग ने कई मौकों पर देखा है कि 2022 से इस क्षेत्र में मौसम प्रणालियों में बड़े पैमाने पर गड़बड़ी देखी गई है।

बढ़ते स्थानीय प्रदूषण के साथ मिलकर इसने शहर और क्षेत्र की शहरी वायु गुणवत्ता को प्रभावित किया है। 2023 में अक्टूबर-नवंबर के दौरान पश्चिमी भारत के अधिकांश हिस्सों में सतही हवा की गति धीमी हो गई थी, जिसके कारण प्रदूषक जमा हो गए थे। 2023 में मॉनसून की वापसी में देरी और एंटीसाइक्लोन सर्कुलेशन ने भी इस प्रवृत्ति को प्रभावित किया।

वैश्विक तापमान से संबंध

अब वैज्ञानिक चेता रहे हैं कि वैश्विक तापमान में वृद्धि से वैश्विक स्तर पर मौसम प्रणाली पर असर पड़ने की उम्मीद है, जिसका विभिन्न स्थानीय भौगोलिक क्षेत्रों में प्रदूषण की सघनता पर भी गहरा असर पड़ेगा।

भारत में इस तरह के प्रभाव के स्थानीय प्रमाण सामने भी आने लगे हैं। गंगा के मैदानी इलाकों में किए गए वैज्ञानिक अध्ययनों से पता चलता है कि कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन में वृद्धि और उसके कारण होने वाली गर्मी क्षेत्र में सतही हवा की गति को धीमा कर रही है।

इसके परिणामस्वरूप सर्दियों के मौसम में महीन कणों की मात्रा बढ़ने की उम्मीद है। इस प्रकार वैश्विक तापमान के कारण होने वाले मौसम संबंधी परिवर्तन गंगा के मैदानी इलाकों में प्रदूषण की समस्या बढ़ा सकते हैं। इसे देखते हुए प्रदूषण को तेजी से कम करने की जरूरत है।

एडवांसिंग अर्थ स्पेस साइंसेस जर्नल में सितंबर 2022 में प्रकाशित एक अन्य अध्ययन गंगा के मैदानी इलाकों में पीएम 2.5 की सघनता और कार्बन डाईऑक्साइड के उत्सर्जन से गर्मी बढ़ने की ऐसी ही प्रवृत्ति का सहसंबंध दिखाता है। अध्ययन ने कार्बन डाइऑक्साइड में वृद्धि के साथ सतही हवा की गति में कमी का अनुमान लगाया है।

इसके परिणामस्वरूप सर्दियों के समय पीएम 2.5 की औसत सघनता और अधिक बार उच्च प्रदूषण वाली घटनाएं होने की आशंका है। कार्बन डाइऑक्साइड में वृद्धि के साथ पश्चिमी विक्षोभ की आवृत्ति और तीव्रता में कमी गंगा के मैदानी इलाकों में सतही हवा में कमी लाने में योगदान दे सकती है। यह एक दोहरी मार है।

एयरशेड की अवधारणा

हवा जिस तरह प्रदूषण को फैलाती है, वह क्षेत्रों में समग्र वायु गुणवत्ता प्रबंधन का एक निर्णायक कारक है। इसके लिए न केवल प्रदूषण के स्थानीय स्रोतों पर ध्यान देना होगा, बल्कि हवा द्वारा बाहरी स्रोतों से क्षेत्र में लाए गए प्रदूषण को भी देखना होगा। प्रदूषक लंबी दूरी तक यात्रा कर सकते हैं, जिससे हवा के बहाव वाले राज्यों के लिए स्वच्छ वायु मानकों को पूरा करना कठिन हो जाता है।

प्रमाण पहले से ही साबित करते हैं कि दिल्ली जैसे शहर को शहर के बाहर से लगभग 60 प्रतिशत प्रदूषण प्राप्त होता है, जबकि दिल्ली स्वयं उत्तर प्रदेश के नोएडा में सर्दियों के पार्टिकुलेट प्रदूषण में लगभग 40 प्रतिशत का योगदान देती है।

ऐसे हालात अपने अद्वितीय मौसम विज्ञान, भूमिबद्ध पारिस्थितिकी तंत्र, उच्च प्रदूषण और जनसंख्या के कारण गंगा के मैदानी क्षेत्र के लिए बड़ी चिंता का विषय हैं। राष्ट्रीय हरित अधिकरण ने 9 सितंबर, 2021 के अपने निर्देश में अन्य क्षेत्रों की तुलना में यहां के उच्च पार्टिकुलेट प्रदूषण का संज्ञान लिया है और बेहतर वायु प्रदूषण निवारण उपायों को अपनाने को कहा है।

इसके परिणामस्वरूप केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अंतर्गत विशेषज्ञ समिति द्वारा गंगा के मैदानी क्षेत्र का एकीकृत मूल्यांकन और क्षेत्रीय उत्सर्जन सूची तैयार की गई है। इसने इस बात पर प्रकाश डाला है कि उत्तर प्रदेश इस क्षेत्र में सबसे अधिक पीएम 2.5 उत्सर्जक है, उसके बाद पश्चिम बंगाल, बिहार, पंजाब और हरियाणा का स्थान है।

अकेला उद्योग क्षेत्र यहां कुल उत्सर्जन में 48.5 प्रतिशत योगदान देता है। घरेलू खाना पकाने के लिए ठोस ईंधन का योगदान 19 प्रतिशत है। इसमें भी सबसे अधिक योगदान उत्तर प्रदेश, बिहार और पश्चिम बंगाल का है। किफायती खाना पकाने के ऊर्जा स्रोत चुनौती बने हुए हैं। परिवहन प्रदूषण में अहम योगदान देने वाले दिल्ली, कोलकाता, लखनऊ जैसे महानगर और औद्योगिक क्षेत्र हैं।

यदि सफाई का क्षेत्रीय लक्ष्य हासिल नहीं हुआ तो गंगा के मैदानी क्षेत्र में किसी भी शहर या कस्बे के लिए स्वच्छ वायु लक्ष्यों को पूरा करना चुनौतीपूर्ण है। एयरशेड के एकीकृत प्रबंधन की रूपरेखा को औपचारिक रूप से अब तक नहीं अपनाया गया है। इसके लिए एयरशेड में एक संरेखित और समन्वित कार्रवाई की आवश्यकता है, जिसमें कई प्रशासनिक और राजनीतिक दखल हो सकते हैं। इसके लिए एक ऑपरेटिव फ्रेमवर्क और राज्य परिषद की आवश्यकता होगी।

ऐसी मिसाल अब दिल्ली और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में स्थापित हो चुकी है। जन आंदोलन, न्यायिक हस्तक्षेप और उसके बाद दिल्ली-राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (एनसीआर) और उससे आगे के लिए वायु आयोग की स्थापना ने एनसीआर क्षेत्र के चार राज्यों के लिए क्षेत्रीय एकीकृत योजना के सिद्धांत को स्थापित किया है। अन्य सभी क्षेत्रों के लिए एक रूपरेखा बनाने के लिए इसका लाभ उठाने की आवश्यकता है।

वैश्विक स्तर पर राष्ट्रीय सरकारों ने देश के भीतर और देशों के बीच सीमा पार प्रदूषण के प्रबंधन के लिए इस तरह की रूपरेखा विकसित करना शुरू कर दिया है।

क्षेत्रीय कार्रवाई का क्रियान्वयन

मौसम विज्ञान, वायुमंडलीय रसायन विज्ञान और प्रदूषण सघनता के बीच जटिल संबंध को देखते हुए वायु गुणवत्ता प्रबंधन के लिए एयरशेड आधारित दृष्टिकोण अपनाना आवश्यक है। राष्ट्रीय स्वच्छ वायु कार्यक्रम (एनसीएपी) के तहत राज्य स्तरीय कार्य योजना तैयार करने के सबसे हालिया प्रयास ने राज्य के जिलों में और अधिक सामंजस्यपूर्ण कार्रवाई और अंतर-राज्यीय सहयोग के लिए अवसर पैदा किया है। एनसीएपी ने गंगा के मैदानी क्षेत्रों पर विशेष ध्यान देने के साथ क्षेत्रीय एयरशेड प्रबंधन की आवश्यकता को भी ध्यान में रखा है।

क्षेत्रीय कार्य योजनाओं, निगरानी रणनीति, कानूनी रूपरेखा, एकीकृत कार्रवाई के लिए परिचालन तंत्र और क्षेत्र एवं संघीय प्रणाली के भीतर विभिन्न प्राधिकरणों और अनुपालन प्रणाली की जिम्मेदारियों को विकसित करने के लिए और अधिक कदम उठाने की आवश्यकता है। सभी भौगोलिक क्षेत्रों में स्वच्छ वायु मानकों को पूरा करने के लिए यह रणनीति आवश्यक है।