वायु प्रदूषण का जहरीला सफर गर्भ से शुरू होता है। गर्भावस्था के दौरान जब माएं प्रदूषित हवा के संपर्क में आती हैं तो गर्भ में पल रहे बच्चे को गंभीर खतरा पैदा हो जाता है। यही हवा नवजात शिशु से लेकर किशोर तक के लिए जीवन भर का बोझ बन जाती है। वायु प्रदूषण भारत सहित पूरे ग्लोबल साउथ (विकासशील एवं गरीब देश) में भयावह स्तर पर पहुंच चुका है। भारत इस बात के लिए बदनाम है कि वायु प्रदूषण के कारण दुनिया भर में जन्म के एक महीने के भीतर होने वाली शिशुओं की मृत्यु में से एक-चौथाई यहीं होती हैं।
स्थानीय और वैश्विक स्तर पर बढ़ते प्रमाण और अच्छी तरह से डिकोड किए गए विज्ञान में उन जैविक मार्गों को परिभाषित किया जा चुका है, जिनके माध्यम से प्रदूषक शरीर में प्रवेश करते हैं और अंगों को प्रभावित करते हैं। इनसे न केवल शिशुओं को प्रभावित करने वाले निचले श्वसन संक्रमण का पता चला है, बल्कि जन्म के समय कम वजन और समय पूर्व जन्म के कारण बच्चों की सेहत पर होने वाले असर के तथ्य सामने आए हैं। जीवन के पहले पड़ाव में बच्चे बेहद नाजुक होते हैं। वायु प्रदूषण उनके जीवन को बेहद असुरक्षित बना देता है। खासकर गरीब घरों के बच्चों को इसका खतरा अधिक होता है।
हवा में व्याप्त विषाक्त धूल कणों के संपर्क में आने वाली मां के गर्भ में पल रहे भ्रूण के जीवित रहने की संभावना कम हो सकती है। प्रदूषित हवा के कारण मृत बच्चे का जन्म, समय से पहले जन्म और जन्म के समय कम वजन जैसी घटनाएं हो सकती है। उन्हें बाद के जीवन में अंतःस्रावी (इंडोक्राइन) और चयापचय (मेटाबोलिक) के साथ-साथ मधुमेह जैसी कई बीमारियों का खतरा रहता है। यदि वायु प्रदूषण मां के श्वसन स्वास्थ्य पर असर डालता है तो गर्भ में पल रहे भ्रूण में ऑक्सीजन और पोषक तत्वों की कमी का कारण भी बन सकता है। गर्भाशय में फेफड़ों के खराब विकास से वायुमार्ग की बीमारी का खतरा बढ़ जाता है।
वैज्ञानिक समझाते हैं कि कणीय पदार्थ यानी पार्टिकुलेट मैटर की वजह से मांताओं की इम्युनिटी कम हो सकती है। समय से पहले या मृत बच्चे का जन्म या अविकसित दिमाग वाले बच्चे के जन्म का खतरा बढ़ सकता है। पैदा होने वाले कमजोर बच्चे अधिक संवेदनशील होते हैं और निचले फेफड़ों का संक्रमण (एलआरआई), दस्त, मस्तिष्क क्षति और सूजन, रक्त विकार और पीलिया के जोखिम का सामना नहीं कर सकते हैं।
प्रदूषित हवा के जल्दी संपर्क में आने से 5 वर्ष से कम उम्र के बच्चों के लिए खतरा ज्यादा बढ़ जाता है। यह मस्तिष्क व तंत्रिका संबंधी विकास, फेफड़ों की कार्यप्रणाली को प्रभावित करता है और मोटापे का कारण बन सकता है। इसके अलावा मानसिक विकार पैदा हो सकते हैं, जैसे ध्यान में कमी, कम बुद्धि, अविकसित दिमाग आदि। यहां तक कि बच्चों के फेफड़ों की कार्यक्षमता में स्थायी कमी हो सकती है, जिससे वे बड़े होने के बाद भी फेफड़ों की बीमारी की पुरानी बीमारी की चपेट में आ सकते हैं, जो उनके जीवन की गुणवत्ता को प्रभावित करता है। (पढ़ें अगला अध्याय)
यह प्रस्तावना सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट की पुस्तक “सांसों का आपातकाल” से ली गई है। इस किताब में बताया गया है कि पिछले 40 सालों में भारत ने वायु प्रदूषण और उससे लड़ने की कोशिशों का सफर कैसा तय किया है