इलेस्ट्रेशन: योगेंद्र आनंद 
वायु

भारत में आवाजाही: इलेक्ट्रिक वाहनों को लेकर दोबारा रणनीति बनाने की जरूरत

राष्ट्रीय स्वच्छ वायु कार्यक्रम, जिसका लक्ष्य देश के ज्यादा प्रदूषित शहरों की हवा साफ करना है, उसे एक साथ दोनों लक्ष्यों पर एक साथ काम करना चाहिए - स्वच्छ वाहन और कम वाहन

Sunita Narain

तीन मुख्य वजहें हैं, जिनके कारण देशों को अपने वाहन-बेड़ों का विद्युतीकरण करने की जरूरत है। पहली वजह है - जलवायु परिवर्तन। परिवहन क्षेत्र, बड़ी मात्रा में तेल यानी पेट्रोल और डीजल की खपत करता हैं और मोटे तौर पर वैश्विक स्तर पर सालाना 15 फीसदी कार्बन डाईऑक्साइड का उत्सर्जन करता है। शून्य उत्सर्जन वाले वाहन या इलेक्ट्रिक वाहन, तेल की जगह बिजली का इस्तेमाल करते हैं, जो आदर्श रूप में नवीकरण ऊर्जा संयंत्रों में पैदा की जाती है, इसलिए इन वाहनों को प्रदूषण के उपचार को तौर पर देखा जाता है। दूसरी वजह, जो हमारे शहरों के लिए ज्यादा महत्वपूर्ण है- वह यह कि पेट्रोल और डीजल वाहनों की जगह शून्य उत्सर्जन वाहनों के इस्तेमाल से स्थानीय प्रदूषण में कमी आएगी। और तीसरी वजह, तेल की खपत कम होने से हमारी कीमती विदेशी मुद्रा की बचत होगी।

ये तीनों इस दिशा मे काम करने के लिए बिल्कुल उचित वजहें हैं, लेकिन केवल यही अकेले उस बदलाव को नहीं ला सकतीं, जो हम सबके लिए बहुत जरूरी है। हमें नीतियों को दोबारा से सेट करने की जरूरत है - इसका मूल्यांकन करने की भी कि अभी हम क्या कर रहे हैं और क्यों कर रहे हैं, क्योंकि इसी से हम न केवल वाहनों का विद्युतीकरण करने के एजेंडे पर आगे बढ़ सकते हैं बल्कि उन लाभों को हासिल कर सकते हैं जिनकी हमें शिद्दत से जरूरत है।

आइए, पहले अपने शहरों को लेते हैं, जहां वाहनों का विद्युतीकरण अपने साथ दोहरे-तिहरे लाभ लेकर आ सकता है। यह जहरीले वायु प्रदूषण को कम करने, विदेशी मुद्रा की बचत करने के साथ ही ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन कम करने में अपनी भूमिका निभाता है। हालांकि यह सब अच्छा है, लेकिन तभी जब हम अपनी नीतियों को लेकर सपष्ट हों और उनके परिणाम को लेकर सोच-समझकर आगे बढ़ें कि हमें किस पैमाने पर यह करना है।

2019 में नीति आयोग ने देश में 2030 तक इलेक्ट्रिक वाहनों की महत्वाकांक्षा को रेखांकित किया था- उसका लक्ष्य था कि इलेक्ट्रिक वाहनों की बिक्री में सभी नई वाणिज्यिक कारों का 70 फीसदी, निजी कारों का 30 फीसदी, बसों का 40 फीसदी और दोपहिया - तिपहिया वाहनों का 80 फीसदी हिस्सा होगा। अभी जब हम 2025 के मध्य में हैं, हम इस लक्ष्य से बहुत दूर हैं। अकेला सेगेमेंट, जो बढ़ रहा है वह है तिपहिया वाहन, जिसमें करीब 60 फीसदी नए पंजीकरण इलेक्ट्रिक वाहनों के हैं। ये ज्यादातर बिना ब्रांड वाले तिपहिया वाहन हैं, जो स्थानीय स्तर पर बनाए जाते हैं। हालांकि ये सड़कों पर भीड़ बढ़ाते हैं लेकिन किराए के लिहाज से किफायती होते हैं। इलेक्ट्रिक वाहनों के बाकी बेड़े में जो तरक्की हो रही है, उसके बारे में कम बात करना ही बेहतर है। कारों, दोपहिया और यहां तक कि बसों के नए पंजीकरण में उनकी हिस्सेदारी महज 5-6 फीसदी है। इससे प्रदूषण को कम करने, तेल आयात को कम करने या कार्बन उत्सर्जन कम करने में कोई मदद नहीं मिलती।

यह तब है, जब हम यह जानते हैं कि जिस हवा में हम सांस लेते हैं, उसमें जहर घोलने में सबसे ज्यादा योगदान वाहनों का है। सवाल केवल उन अलग-अलग वाहनों की श्रेणियों का ही नहीं है, जो प्रदूषण फैलाते हैं बल्कि उनकी बढ़ती संख्या का भी है, जो सड़कों पर बढ़़ रही है और प्रदूषण बढ़ा रही है। तो, वायु प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिए हमें दोनों लक्ष्यों को एक साथ लेकर आगे बढ़ना चाहिए यानी स्वच्छ वाहनों का इस्तेमाल करना और वाहनों की संख्या को कम करना।

जब दिल्ली में 2000 के दशक के शुरुआती सालों में सीएनजी वाहनों का इस्तेमाल शुरू हुआ तो इसके निशाने पर बसें, टैक्सी और ऑटोरिक्शा जैसे प्रदूषण फैलाने वाले वाहन थे। सार्वजनिक और व्यावसायिक वाहनों की इस श्रेणी की गाड़ियां किसी भी शहर, खासकर दिल्ली में सबसे ज्यादा दूरी तय करती हैं। प्रदूषण का विज्ञान स्पष्ट है- दूरी जितनी ज्यादा होगी, उत्सर्जन भी उतना ज्यादा होगा। इसके अलावा सार्वजनिक परिवहन प्रणाली को उन्नत करने के लिए पुराने वाहनों की जगह नए सीएनजी वाहन लेने के सार्वजनिक सब्सिडी दी गई, जिससे वाहनों के बजाय लोगों को चलने के लिए स्थान उपलब्ध हो सके।

हालांकि दिल्ली की कहानी गलत हो गई - एक नीतिगत गलती, जिसे हमें दोहराना नहीं चाहिए, क्योंकि यह स्वच्छ हवा के फायदों को कम करती है और सार्वजनिक निवेश को बर्बाद करती है। सीएनजी क्रांति के दो दशक के बाद दिल्ली सार्वजनिक यातायात में इतना सुधार नहीं ला पाई कि सड़कों पर वाहनों की वृद्धि को कम किया जा सके।  दिल्ली में रोज करीब 1800 नए निजी वाहन बढ़ जाते हैं, जिनमें पांच सौ से ज्यादा निजी कारें होती हैं। जबकि पूरे देश में रोजाना दस हजार से ज्यादा निजी कारें सड़कों पर उतरती हैं। नए फ्लाई-ओवरों और सड़कों के नेटवर्क के बावजूद हमारी सड़कों पर वाहनों के इस अंतःविस्फोट का मतलब है कि हम यातायात के जाम में फंस चुके हैं और गाड़ियों की गति धीमी पड़ चुकी है। सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट में मेरे सहकर्मियों ने गूगल एपीआई का प्रयोग करके प्रति घंटे यात्रा समय के आंकड़ों का विश्लेषण किया और पाया कि सप्ताह के दिनों में, दिल्ली में सुबह के व्यस्त समय के दौरान औसत गति में 41 फीसदी और शाम के व्यस्त समय के दौरान 56 फीसदी की कमी दर्ज की जाती है। यातायात में गुजरने वाले समय और बढ़ते वायु प्रदूषण के बीच में संबंध अच्छी तरह से स्थापित हो चुका है। स्थिति तब और बदतर हो जाती है जब ऐसे जाम में बसें फंसती है जैसा कि मेरे सहकर्मियों ने एक दूसरे अध्ययन में पाया। जाम में फंसकर देरी होने का मतलब है कि लोग फिर ज्यादा विश्वसनीय यानी अपने निजी वाहनों का रुख करते हैं। दिल्ली मेट्रो, जिसकी पहुंच अब काफी बढ़ गई है, वह भी अंतिम छोर तक कनेक्टिविटी की कमी, ज्यादा किराये और दूसरी परेशानियों के चलते पिछड़ रही है।

इसलिए आगे बढ़ने का यही रास्ता है कि हम अपनी नीति पर फोकस करें और उस पर विचार-विमर्श करें। राष्ट्रीय स्वच्छ वायु कार्यक्रम यानी नेशनल क्लीन एयर प्लान-एनएसीपी, जिसका लक्ष्य देश के ज्यादा प्रदूषित शहरों की हवा साफ करना है, उसे एक साथ दोनों लक्ष्यों पर काम करना चाहिए यानी स्वच्छ वाहन और कम वाहन। यह काफी नहीं है कि हम केवल नई इलेक्ट्रिक बसों की गिनती करें, हालांकि वह भी महत्वपूर्ण है बल्कि ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि हम यातायात में इनकी भागीदारी भी देखें। ताकि हर शहर सार्वजनिक परिवहन का दायरा बढ़ाए और यह संभव बनाएं कि आने-जाने में हमारा कम पैसा और समय खर्च हो, जिससे कि हम घर में अपना क्वालिटी समय बिता सकें और सबसे महत्वपूर्ण यह कि हम ऐसी हवा में सांस ले सकें, जो हमें बीमार न बनाएं। फिर भी, यही सब कुछ नहीं है। सवाल यह है कि क्या वास्तव में हमें भारत में या बाकी पूरी दुनिया में निजी इलेक्ट्रिक वाहनों की जरूरत है? मैं अगली बार इस पर चर्चा करूंगी।