भारत की 96 फीसदी आबादी यानी 133 करोड़ लोग ऐसी हवा में सांस लेने को मजबूर हैं जहां पीएम 2.5 का वार्षिक औसत स्तर डब्ल्यूएचओ द्वारा जारी मानकों से सात गुणा खराब है; फोटो: आईस्टॉक 
वायु

जीवन के शुरूआती वर्षों में वायु प्रदूषण का संपर्क मानसिक स्वास्थ्य के लिए हो सकता है घातक

रिसर्च से पता चला है कि गर्भावस्था या बचपन के दौरान पीएम 2.5 के स्तर में 0.72 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर की मामूली वृद्धि से भी असामान्य या डरावनी चीजों को अनुभव करने की आशंका 11 फीसदी बढ़ गई

Lalit Maurya

इसमें कोई शक नहीं कि आज बढ़ता प्रदूषण दुनिया भर के लिए बड़ी समस्या बन चुका है, जिससे भारत, बांग्लादेश जैसे देश कहीं ज्यादा प्रभावित हैं। हवा में घुला यह जहर किस कदर हावी है इसका अंदाजा इसी से लगा सकते हैं कि यह जहर न केवल जन्मों बल्कि अजन्मों के स्वास्थ्य को भी गंभीर रूप से प्रभावित कर रहा है।

ब्रिस्टल विश्वविद्यालय के नेतृत्व में की गई एक नई रिसर्च से पता चला है कि अजन्मों के गर्भावस्था में वायु प्रदूषण के संपर्क में आने से आगे चलकर किशोरावस्था में मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी समस्याएं पैदा हो सकती हैं। इस अध्ययन के नतीजे जामा नेटवर्क ओपन में प्रकाशित हुए हैं। इस अध्ययन में किंग्स कॉलेज लंदन, यूनिवर्सिटी कॉलेज लंदन और कार्डिफ यूनिवर्सिटी के शोधकर्ता शामिल थे। अपने इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने जीवन के शुरूआती वर्षों में वायु और ध्वनि प्रदूषण के संपर्क में आने से मानसिक स्वास्थ्य पर पड़ने वाले दीर्घकालिक प्रभावों की जांच की है।

समय के साथ इस बात के प्रमाण बढ़ रहे हैं कि वायु प्रदूषण मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी समस्याओं में योगदान दे सकता है। गौरतलब है कि इन वायु प्रदूषकों में जहरीली गैसों जैसे कार्बन डाइऑक्साइड से लेकर महीन कण तक शामिल हैं। रिसर्च के मुताबिक यह जहरीला प्रदूषण कई तरह से मानसिक स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचा सकता है।

उदाहरण के लिए यह प्रदूषण रक्त के जरिए दिमाग में पहुंच सकता है, जहां पहुंचकर यह जहरीली गैसें और महीन कण मस्तिष्क में सूजन यानी न्यूरोइन्फ्लेमेशन और ऑक्सीडेटिव तनाव पैदा कर सकते हैं। इतना ही नहीं यह प्रदूषण मस्तिष्क की कोशिकाओं को सीधे तौर पर नुकसान पहुंचा सकता है।

शोध के यह भी कहना है कि किशोरावस्था मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी समस्याओं के उभरने का महत्वपूर्ण समय होती है, फिर भी बहुत कम शोधों में इस बात पर ध्यान दिया गया है। जीवन के शुरूआती चरण में वायु और ध्वनि प्रदूषण का संपर्क मानसिक स्वास्थ्य के लिए किस कदर नुकसानदेह हो सकता है।

इन्हीं प्रभावों पर गौर करने के लिए इस नए अध्ययन में, शोधकर्ताओं ने गर्भावस्था, बचपन के शुरूआती वर्षों और किशोरावस्था के दौरान वायु और ध्वनि प्रदूषण के मानसिक स्वास्थ्य पर पड़ते प्रभावों की जांच की है। इसमें शोधकर्ताओं ने मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी तीन समस्याओं पर गौर किया है इनमें मनोवैज्ञानिक विकार जैसे मतिभ्रम या भ्रम के साथ अवसाद और चिंता जैसी समस्याएं शामिल थी। बता दें कि मतिभ्रम ऐसा विकार है जिसमें ऐसी चीजे दिखना या सुनाई देने लगती हैं, जिन्हें दूसरे लोग अनुभव नहीं करते।

अपने इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने ब्रिस्टल में 9,000 से अधिक प्रतिभागियों के आंकड़ों का अध्ययन किया है। साथ ही इस अध्ययन में 1991 से 1992 बीच ब्रिस्टल क्षेत्र की 14,000 से अधिक गर्भवती महिलाओं का अनुसरण किया गया। इसके बाद से इन महिलाओं, बच्चों और जीवन साथी का भी अनुसरण किया गया। 

इसके साथ ही अध्ययन में शामिल प्रतिभागियों के बचपन से जुड़े आंकड़ों को उनकी 13, 18 और 24 वर्ष की आयु में मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी रिपोर्टों के साथ जोड़कर देखा गया है। इसके साथ ही इन अलग-अलग अवधियों के दौरान इन प्रतिभागियों के आसपास वायु और ध्वनि प्रदूषण की क्या स्थिति थी, इसका भी विश्लेषण किया गया है।

किस हद तक मानसिक स्वास्थ्य पर असर डालता है वायु और ध्वनि प्रदूषण

इस अध्ययन के जो निष्कर्ष सामने आए हैं, उनसे पता चला है कि जिन अजन्मों ने गर्भावस्था या बचपन के दौरान प्रदूषण के महीन कणों में मामूली वृद्धि का ही सामना किया, उन्हें भी आगे चलकर किशोरावस्था और वयस्क होने के शुरूआती चरण में मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी समस्याओं जैसे मनोवैज्ञानिक विकार और अवसाद का कहीं ज्यादा सामना करना पड़ा।

इनके बीच का यह संबंध, अन्य बातों पर विचार करने के बाद भी मजबूती से कायम रहा। गौरतलब है कि मानसिक बीमारी का पारिवारिक इतिहास, सामाजिक-आर्थिक स्थिति और क्षेत्रीय कारक जैसे जनसंख्या घनत्व, हरित क्षेत्रों का आभाव और सामाजिक विखंडन जैसे कारक भी मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करने के लिए जाने जाते हैं।

शोधकर्ताओं ने पाया है कि गर्भावस्था या बचपन के दौरान पीएम 2.5 के स्तर में 0.72 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर की मामूली वृद्धि से भी असामान्य या डरावनी चीजों को अनुभव करने की आशंका 11 फीसदी बढ़ गई। इसी तरह पीएम 2.5 में हुई इस वृद्धि से आगे चलकर बहुत अजीब महसूस करने की आशंका नौ फीसदी बढ़ गई।

इसके अलावा, गर्भावस्था के दौरान पीएम 2.5 के संपर्क में आने से अवसाद का अनुभव होने की आशंका भी 10 फीसदी बढ़ गई थी। दूसरी ओर यह भी देखा गया कि जो बच्चे बचपन और किशोरावस्था के दौरान ध्वनि प्रदूषण के संपर्क में आए थे उनमें आगे चलकर चिंता या बेचैनी की भावनाएं बढ़ गई।

इस बारे में ब्रिस्टल विश्वविद्यालय और अध्ययन से जुड़ी प्रमुख शोधकर्ता डॉक्टर जोआन न्यूबरी ने प्रेस विज्ञप्ति के हवाले से कहा है कि, "जब आप बच्चे, किशोर या युवा होते हैं, तो आपके मानसिक स्वास्थ्य के लिए यह अवधियां विशेष रूप से महत्वपूर्ण होती हैं, क्योंकि दुनिया भर में मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी समस्यों से जूझ रहे दो-तिहाई लोग 25 की आयु से पहले ही इन समस्याओं की गिरफ्त में आ चुके होते हैं।"

उनके मुताबिक इस अध्ययन के जो नतीजे सामने आए हैं वो इस बात को प्रमाणित करते हैं कि वायु प्रदूषण और कहीं न कहीं ध्वनि प्रदूषण भी मानसिक स्वास्थ्य को बदतर बना सकता है।

भारत में भी गंभीर रूप ले चुका है बढ़ता वायु प्रदूषण

जर्नल फ्रंटियर्स ऑफ एनवायर्नमेंटल साइंस एंड इंजीनियरिंग में प्रकाशित एक अन्य अध्ययन से भी पता चला है कि वायु प्रदूषण लोगों को मानसिक रूप से कमजोर बना रहा है। इसकी वजह से ध्यान एकाग्र करने में दिक्कतें आती है।

देखा जाए तो यह बेहद चिंता का विषय है क्योंकि दुनिया भर में वायु और ध्वनि प्रदूषण की समस्या बेहद आम होती जा रही है। इसके साथ ही दुनिया में मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी समस्याएं भी तेजी से विकराल रूप ले रही हैं।

यदि ताजा आंकड़ों को देखें तो वायु गुणवत्ता के लिहाज से भारत, बांग्लादेश और पाकिस्तान के बाद दुनिया का तीसरा सबसे प्रदूषित देश है। जहां 2023 में प्रदूषण के महीन कणों यानी पीएम2.5 का औसत स्तर विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) द्वारा तय मानकों से दस गुणा ज्यादा था। देश में प्रदूषण की समस्या इतनी विकट है कि आज देश का हर इंसान ऐसी हवा में सांस लेने को मजबूर है जो उसे हर पल बीमार बना रही है।

इतना ही नहीं देश की 67.4 फीसदी आबादी आज ऐसे क्षेत्रों में रह रही है जहां प्रदषूण का स्तर देश के अपने स्वयं के राष्ट्रीय वायु गुणवत्ता मानकों (40 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर) से भी ज्यादा है। इसका सीधा असर न केवल भारतीयों के शारीरिक बल्कि मानसिक स्वास्थ्य और जीवन की गुणवत्ता पर भी पड़ रहा है।

गौरतलब है कि सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट (सीएसई) और डाउन टू अर्थ लम्बे समय से बढ़ते प्रदूषण के खतरों को लेकर आगाह करता रहा है। हालांकि इसके बावजूद दिल्ली, फरीदाबाद सहित देश के कई अन्य छोटे बड़े शहरों में वायु गुणवत्ता लोगों को बहुत ज्यादा बीमार बना रही है। देश में स्थिति किस कदर खराब है इसे इसी बात से समझ जा सकता है कि भारत में प्रदूषण के यह महीन कण (पीएम 2.5) हर साल दो लाख से ज्यादा अजन्मों को गर्भ में मार रहे हैं।

चूंकि प्रदूषण ऐसी चीज है जिसे रोका जा सकता है। ऐसे में उन क्षेत्रों में जहां प्रदूषण का स्तर बहुत ज्यादा है, वहां प्रदूषण की रोकथाम के लिए उठाए गए कदम मानसिक स्वास्थ्य को बेहतर बनाने में मदद कर सकते हैं। इतना ही नहीं इन प्रदूषित क्षेत्रों में गर्भवती महिलाओं और नवजातों पर भी विशेष ध्यान देने की जरूरत है, क्योंकि वो इसकी वजह से कहीं ज्यादा जोखिम में हैं।

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