दमघोंटू शहरों में बढ़ती भीड़ लोगों के आवागमन और उनके जीवन को कितनी बुरी तरह से प्रभावित कर सकती है, यह गुजरात का एक प्रमुख शहर अहमदाबाद इसका सटीक उदाहरण है। 2010 में अहमदाबाद में साबरमती नदी के किनारे को सुंदर बनाने की एक बड़ी परियोजना शुरू हुई थी। इसमें वादा किया गया था कि विस्थापित किए गए लोगों को नए, अच्छे घर और बेहतर सुविधाएं मिलेंगी। लेकिन ओधव जैसे इलाकों जहां बड़ी संख्या में विस्थापित लोगों को बसाया गया था, वहां सार्वजनिक परिवहन का कोई इंतजाम नहीं किया गया जिससे ये लोग शहर से कट गए और जीवित रहने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। 2010 में बबली और रमेश सोलंकी भी उन सैकड़ों परिवारों में से थे, जिन्हें नदी के किनारे से हटाया गया था। उनसे वादा किया गया था कि 5 किलोमीटर के अंदर ही पक्का घर मिलेगा, लेकिन उन्हें शहर से 15 किलोमीटर दूर ओधव भेज दिया गया। उन्हें “बेसिक सर्विसेज फॉर द अर्बन पुअर (बीएसयूपी)” योजना के तहत पक्के फ्लैट तो मिल गए, लेकिन बाद में उन्हें पता चला कि सार्वजनिक परिवहन जैसी जरूरी सेवाएं अब उनकी पहुंच से बाहर थीं।
उम्र के 50वें दशक में पहुंच चुकीं बबली कहती हैं, “पहले हम सब्जियां बेचकर गुजारा करते थे। हम रोज सुबह 4 बजे जाग जाते थे। फिर स्थानीय बाजार से सब्जियां खरीदते थे और उन्हें घर-घर बेचते थे। लेकिन, जब हमें ओधव में स्थानांतरित किया गया, तब सब कुछ बदल गया।” उन्होंने बताया कि उन्हें सुबह 3 बजे उठना पड़ता था और 1.5 किलोमीटर पैदल चलकर मुख्य सड़क तक जाना पड़ता था, ताकि जमालपुर सब्जी मंडी के लिए ऑटो मिल सके। अक्सर उन्हें ऑटो देर से मिलता या मिलता ही नहीं था, जिससे वे मंडी देर से पहुंचतीं और सब्जियां खत्म हो जातीं या उन्हें खाली हाथ लौटना पड़ता। समय के साथ स्थिति और बिगड़ गई। इस आवागमन की समस्या के कारण उनके बच्चों का स्कूल छूटने लगा और पति का सब्जी का धंधा भी चौपट हो गया, जिससे परिवार कर्ज में डूब गया। यह दबाव रमेश सहन नहीं कर पाए और लगभग चार साल पहले उन्होंने फिनाइल पीकर आत्महत्या कर ली। अब बबली शहर की अदालत में बेलीफ कर्मचारी के तौर पर काम करती हैं। लेकिन, आवागमन अभी भी कठिन बना हुआ है। उनकी सहकर्मी ललिता बेन कहती हैं, “रात 8 बजे के बाद कोई भी परिवहन साधन नहीं मिलता। हमें एक तरफ जाने के लिए तीन रिक्शा बदलने पड़ते हैं और एक तरफ का किराया 70 रुपए पड़ता है, जो ज्यादातर लोगों के लिए बहुत महंगा है।” स्थानीय निवासियों ने कहा कि कनेक्टिविटी की कमी के कारण बहुत से लोगों को अपना काम बदलना पड़ा या स्कूटर खरीदने के लिए कर्ज लेना पड़ा। ओधव में ही रहने वाले एक युवा सुनील चव्हाण बताते हैं, “हमारी कॉलोनी के ज्यादातर लोग पहले सब्जी बेचने के काम से जुड़े हुए थे, लेकिन आना-जाना इतना मुश्किल हो गया कि मजबूरन उन्हें या तो काम बदलना पड़ा या स्कूटर खरीदने के लिए कर्ज लेना पड़ा। अब उनकी सबसे बड़ी चिंता रोजाना ईंधन का खर्च उठाना है।” इलाके में सार्वजनिक परिवहन के विकल्प बहुत कम हैं। चव्हाण ने कहा, “चव्हाण ने कहा, “अहमदाबाद म्युनिसिपल ट्रांसपोर्ट सर्विस की बसें केवल सुबह और शाम को आती हैं। उनका कोई निश्चित समय नहीं होता। वे हमेशा भरी रहती हैं।” सुनील कहते हैं कि बसों की संख्या बढ़ाई जानी चाहिए और उनके फेरे बढ़ाकर उन्हें नियमित तौर पर चलाना चाहिए।
केंद्र शासित प्रदेश चंडीगढ़ इस बात का एक और उदाहरण है कि कैसे भारत के शहरों में सार्वजनिक परिवहन की कमी के कारण लोग अपनी निजी गाड़ियों का ज्यादा इस्तेमाल कर रहे हैं। बीस साल पहले चंडीगढ़ की चौड़ी सड़कें और कम ट्रैफिक देखकर लोग सोचते थे कि क्या शहर जरूरत से ज्यादा बड़ा बना दिया गया है। लेकिन, 2025 तक हालात पूरी तरह से बदल चुके हैं। चंडीगढ़ में अब रजिस्टर गाड़ियों की संख्या वहां की आबादी से भी ज्यादा हो गई हैं। इसका मतलब है कि यह भारत का ऐसा शहर बन गया है, जहां प्रति व्यक्ति सबसे ज्यादा गाड़ियां हैं। चंडीगढ़ में सड़क सुरक्षा पर 2023 की वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार, इस केंद्र शासित प्रदेश की आबादी 12.5 लाख थी, लेकिन गाड़ियों की संख्या 13.2 लाख थी। इतनी ज्यादा गाड़ियों के कारण शहर की अच्छी तरह से बनी चौड़ी और सीधी सड़कों की व्यवस्था पर बहुत ज्यादा दबाव बढ़ गया है। लोग बताते हैं कि अब कहीं भी आने-जाने में बहुत ज्यादा समय लगता है।
चंडीगढ़ निवासी गुरनाज कौर बोपरई बताती हैं कि कुछ साल पहले 3 किलोमीटर की दूरी तय करने में 5-6 मिनट लगते थे, लेकिन अब इसमें 15-20 मिनट लगते हैं। रोज गाड़ी चलाकर काम पर जाने वाली 39 वर्षीय गुरनाज इसके लिए ट्रैफिक सिग्नल पर लंबा इंतजार (120 सेकंड तक) और धीमी गति सीमा को इसका कारण मानती हैं। सड़क सुरक्षा कार्यकर्ता हरमन सिद्धू ने कहा, “यह शर्म की बात है कि चंडीगढ़ जैसे एक सुव्यवस्थित शहर में सिर्फ तीन किलोमीटर की दूरी तय करने में 20 मिनट लगते हैं।” यात्रा में लगने वाले ज्यादा समय के साथ ही अब ईंधन की खपत भी बढ़ गई है। स्थानीय कैब ड्राइवर तरनजीत सिंह ने कहा, “पहले उनका 15 लीटर पेट्रोल 15 दिन चलता था, लेकिन अब ट्रैफिक और लंबे इंतजार के कारण उन्हें हर 10 दिन में पेट्रोल भरवाना पड़ता है।” चंडीगढ़ प्रशासन के आंकड़ों के अनुसार, दोपहिया वाहन चलाने वाले हर महीने 20-45 लीटर पेट्रोल खर्च करते हैं। जबकि, कार चलाने वाले हर महीने लगभग 200 लीटर पेट्रोल इस्तेमाल करते हैं।
शिवालिक पर्वतमाला की तलहटी में 114 वर्ग किलोमीटर में फैले इस शहर में निजी गाड़ियां खरीदने का चलन लगातार बढ़ रहा है। 2023 की सड़क सुरक्षा रिपोर्ट के अनुसार, अकेले 2022 में 52,996 नई गाड़ियां रजिस्टर हुईं, जो 2021 (36,867) से काफी ज्यादा थीं। इन नई गाड़ियों में से 94 प्रतिशत निजी वाहन थे, जिनमें 54.2 प्रतिशत चारपहिया वाहन (कारें) और 40 प्रतिशत दोपहिया वाहन थे। बसें, ऑटो-रिक्शा, टैक्सी, ई-रिक्शा और मालवाहक वाहन जैसे सार्वजनिक व व्यावसायिक वाहनों का हिस्सा सिर्फ 6 प्रतिशत था, जो बहुत कम है। कोविड-19 महामारी के दौरान (2019 से 2020 तक) गाड़ियों के रजिस्ट्रेशन में कमी आई थी। 2019 में नए पंजीकृत वाहन 42,616 से घटकर 2020 में 29,518 रह गए थे। लेकिन, उसके बाद से इनकी संख्या में तेज उछाल देखा गया है। 2022में, वाहन पंजीकरण में बढ़ोतरी का ट्रेंड जारी रहा। 2021 में 36,867 की तुलना में 16,129 अधिक वाहन पंजीकृत हुए।
चंडीगढ़ को 1950 के दशक में मशहूर वास्तुकार चार्ल्स-एडौर्ड जेनरैट, जिन्हें ले कॉर्बुसीयर के नाम से जाना जाता है, ने डिजाइन किया था। ले कॉर्बुसीयर ने एक खास “ग्रिडिरॉन” सिस्टम (चौड़ी और सीधी सड़कों के जाल) के साथ डिजाइन किया था। इस योजना का मकसद था कि पैदल चलने वाले सुरक्षित रहें, गाड़ियां आसानी से चलें, और शहर में ट्रैफिक जाम या प्रदूषण न हो। लेकिन शहर के अनियंत्रित विकास ने इस मूल योजना को नुकसान पहुंचाया है। भले ही शहर की ज्यादातर पुरानी सड़कें अभी भी वैसी ही हैं, लेकिन निजी कारों की संख्या इतनी बढ़ गई है कि अब वहां भी ट्रैफिक जाम, प्रदूषण जैसी समस्याएं पैदा हो गई हैं, जिन्हें इस शहर को बनाते समय रोकने की कोशिश की गई थी। आज पैदल चलने वाले और साइकिल चलाने वाले सबसे ज्यादा असुरक्षित हैं। वे अब शहर में सुरक्षित रूप से आवाजाही नहीं कर सकते हैं।
चंडीगढ़ की बस सेवा अब लोगों के लिए उतनी उपयोगी नहीं रह गई है, वह अपनी अहमियत बनाए रखने के लिए संघर्ष कर रही है। चंडीगढ़ परिवहन उपक्रम के आंकड़ों के अनुसार, 2016-17 से 2018-19 के बीच, बसों की संख्या (बेड़ा) और यात्रियों की संख्या दोनों में कमी आई। 2016-17 में बसों का बेड़ा 565 था, जो 2018-19 में घटकर 534 रह गया, जबकि इसी अवधि में यात्रियों की संख्या 5,69,000 से घटकर 5,54,000 रह गई। हालांकि, 2022-23 में बसों की संख्या तो बढ़कर 635 हो गई, लेकिन यात्रियों की संख्या और ज्यादा घट गई। 2021-22 में 2.19 लाख यात्री थे, जो 2022-23 में घटकर सिर्फ 1.31 लाख रह गए। परिवहन विभाग के अधिकारियों ने कहा कि निजी वाहनों की बढ़ती संख्या और बसों में लगने वाला ज्यादा यात्रा समय की वजह से अब वे लोगों की पसंद नहीं रहीं।
शहर के बीचों-बीच सेक्टर 17 में स्थित मुख्य बस टर्मिनल को अब शहर के बाहरी इलाके सेक्टर 43 में ले जाया गया है। इससे लोगों की मुश्किलें और बढ़ गई हैं। लोग शिकायत करते हैं कि बस से आने-जाने में बहुत ज्यादा समय लगता है और इससे उनकी परेशानियां बढ़ गई हैं, पहले तो बस पकड़ने के लिए उन्हें लंबी दूरी तक पैदल ही चलना पड़ता है, फिर थोड़ी दूरी की यात्रा के लिए भी बार-बार बसें बदलनी पड़ती हैं। स्थानीय निवासी प्रमोद शर्मा बताते हैं कि बस से 3-5 किलोमीटर की दूरी तय करने में कम से कम दो बसें बदलनी पड़ती हैं और 600 मीटर पैदल भी चलना पड़ता है। यही दूरी कार से आधे समय में तय हो जाती है। चंडीगढ़ को असल में इस तरह डिजाइन किया गया था कि पैदल चलने वालों और गाड़ियों के लिए अलग-अलग 7 तरह की सड़कें हों, ताकि वे सुरक्षित रहें और ट्रैफिक जाम न हो। लेकिन अब यह योजना काम नहीं कर रही है। फुटपाथों और साइकिल ट्रैक पर अक्सर लोग गाड़ियां पार्क कर देते हैं, जिससे पैदल चलने वालों की सुरक्षा खतरे में पड़ गई है।
ट्रैफिक रिपोर्ट बताती है कि चंडीगढ़ में गाड़ियों की भारी संख्या के कारण लगातार जाम लगने लगा है और सड़क दुर्घटनाएं भी बढ़ गई हैं। आंकड़ों से पता चला है कि 2019 में कुल मौतों में पैदल यात्रियों का हिस्सा 35 प्रतिशत था, जो 2023 में बढ़कर 42 प्रतिशत हो गया। साइकिल चलाने वालों की मौतें 2019 में 10 प्रतिशत के मुकाबले 2023 में 18 प्रतिशत तक बढ़कर लगभग दोगुनी हो गईं। 2023 में, 90 प्रतिशत सड़क दुर्घटनाएं ज्यादा तेजी से गाड़ी चलाने (ओवर-स्पीडिंग) के कारण हुईं, और इनमें ज्यादातर निजी कारें शामिल थीं। यातायात रिपोर्ट के अनुसार, चंडीगढ़ में ज्यादातर पैदल चलने वालों की मौतें और चोटें उन जगहों पर हुईं, जहां पैदल यात्रियों के लिए जरूरी सुविधाएं (जैसे फुटपाथ) नहीं थीं। 25 पैदल यात्रियों की मौत उन इलाकों में हुई, जहां फुटपाथ थे ही नहीं। 3 अन्य पैदल यात्री जेब्रा क्रॉसिंग पार करते समय मारे गए।
चंडीगढ़ में गाड़ियों की संख्या बढ़ने के साथ ही वायु प्रदूषण का स्तर भी लगातार बढ़ रहा है। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) के अनुसार, हवा में महीन कणों (पीएम2.5) का स्तर 2020 में 33 माइक्रोग्राम प्रति क्यूबिक मीटर से बढ़कर 2024 में 70 माइक्रोग्राम प्रति क्यूबिक मीटर से ज्यादा हो गया। यह भारत सरकार द्वारा तय किए गए सुरक्षित मानक (40 माइक्रोग्राम प्रति क्यूबिक मीटर) से बहुत ज्यादा है। इस लक्ष्य तक पहुंचने के लिए प्रदूषण में 43 प्रतिशत की कमी करनी होगी, जो एक बड़ी चुनौती है। शिकागो विश्वविद्यालय के “एयर क्वालिटी लाइफ इंडेक्स द्वारा” 2020 के एक अध्ययन से पता चला है कि अगर लोग लंबे समय तक इस प्रदूषित हवा में रहते हैं, तो उनकी जीवन प्रत्याशा 5.9 साल तक कम हो सकती है। चंडीगढ़ प्रशासन के पर्यावरण विभाग के अतिरिक्त निदेशक नवनीत कुमार श्रीवास्तव ने बताया कि शहर में कोई बड़ी फैक्ट्री नहीं है। यहां खराब हवा का मुख्य कारण वाहनों से निकलने वाला धुआं (उत्सर्जन) ही है।
चंडीगढ़ में बढ़ता वायु प्रदूषण लोगों के स्वास्थ्य पर, खासकर फेफड़ों से जुड़ी बीमारियों पर बुरा असर डाल रहा है। पोस्ट ग्रेजुएट इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल एजुकेशन एंड रिसर्च, चंडीगढ़ के प्रोफेसर जे.एस. ठाकुर बताते हैं कि हवा की गुणवत्ता खराब होने के कारण “क्रॉनिक ऑब्सट्रक्टिव पल्मोनरी डिजीज” (सीओपीडी) के मामलों में काफी बढ़ोतरी हुई है। यह फेफड़ों से जुड़ी एक गंभीर बीमारी है। प्रोफेसर ठाकुर के अनुसार, “हम जितने भी कैंसर के मामले देखते हैं, उनमें फेफड़ों का कैंसर पहले नंबर पर है। यह कैंसर मुख्य रूप से धूम्रपान से होता है, लेकिन वायु प्रदूषण इसे और भी बदतर बना देता है। 2017-18 में, फेफड़ों का कैंसर कुल कैंसर के मामलों का 11.5 प्रतिशत था। यह चिंताजनक है। उन्होंने यह भी बताया कि वायु प्रदूषण की वजह से बच्चों में तपेदिक (टीबी) और सांस से जुड़ी बीमारियां (जैसे अस्थमा, ब्रोन्काइटिस) भी बढ़ रही हैं।
चंडीगढ़ के परिवहन विभाग के अधिकारियों ने खुद माना है कि शहर की “व्यापक गतिशीलता योजना, 2031” (सीएमपी 2031), जिसमें मेट्रो और बस रैपिड ट्रांजिट (बीआरटी) जैसे बड़े प्रस्ताव थे, अभी तक पूरी तरह लागू नहीं हुई है। इस योजना के तहत बाहरी रिंग रोड और दूसरी बड़ी बुनियादी ढांचा परियोजनाओं पर भी काम शुरू नहीं हो पाया है। एक अधिकारी ने चिंता जताई कि ज्यादा निर्माण कार्य से शहर की हवा और खराब हो सकती है और उसकी अच्छी तरह से बनी सड़कों की योजना (ग्रिड लेआउट) भी बिगड़ सकती है। इस संकट से निपटने के लिए प्रशासन निजी वाहनों की संख्या की बढ़ोतरी रोकने और इलेक्ट्रिक वाहनों (ईवी) को बढ़ावा देने पर जोर दे रहा है।
नवनीत कुमार श्रीवास्तव बताते हैं, “नई नीति में इलेक्ट्रिक वाहनों को ज्यादा महत्व दिया गया है, खासकर इसलिए क्योंकि 10 किलोमीटर के दायरे वाले छोटे से शहर में भी लोग सार्वजनिक परिवहन का इस्तेमाल नहीं करना चाहते।” विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग ने सितंबर 2022 में ईवी पॉलिसी की शुरुआत की। इसमें इलेक्ट्रिक वाहन खरीदने पर सब्सिडी और रजिस्ट्रेशन फीस माफ करने जैसे फायदे दिए गए थे। श्रीवास्तव ने दावा किया कि इसके परिणामस्वरूप, चंडीगढ़ में इलेक्ट्रिक वाहनों का इस्तेमाल 15 प्रतिशत तक बढ़ गया, जो देश में सबसे ज्यादा है। प्रशासन का लक्ष्य है कि 2025-26 तक ईवी का इस्तेमाल 18 प्रतिशत और 2035 तक 70 प्रतिशत तक बढ़ाया जाए। हालांकि, इलेक्ट्रिक साइकिलों के लिए भी 4,000 रुपए की सब्सिडी दी गई थी, लेकिन अधिकारियों ने माना है कि इनकी बिक्री अच्छी नहीं हुई है।
सिद्धू चेतावनी देते हैं कि अगर हम पेट्रोल कारों की जगह इलेक्ट्रिक कारें ले लेते हैं, लेकिन निजी कारों का इस्तेमाल कम नहीं करते, तो ट्रैफिक जाम खत्म नहीं होगा। वह इसे “एक निजी कमरे से निकलकर दूसरे निजी कमरे में जाने” जैसा बताते हैं, जिसका कोई मतलब नहीं है और इससे समस्या जस की तस बनी रहेगी।
वहीं, प्रमोद शर्मा को इन बदलावों से सुधार होने की उम्मीदें बनी हुई हैं। वह कहते हैं, “चंडीगढ़ को अभी भी सुधारा जा सकता है। दूसरे मेट्रो शहर शायद इस स्थिति से बाहर न निकल पाएं, लेकिन चंडीगढ़ का पुराना आकर्षण वापस लाया जा सकता है। इसके लिए शहर को पैदल चलने वालों और साइकिल चलाने वालों के लिए ज्यादा अनुकूल बनाना जरूरी है, जैसा कि ले कॉर्बुसीयर (चंडीगढ़ के डिजाइनर) ने सोचा था। उनका मानना था कि लोग चंडीगढ़ में प्रकृति देखने आएंगे, न कि कारें।” यह दिखाता है कि शहर की मूल योजना में प्रकृति और पैदल चलने वालों को महत्व दिया गया था।