1998 में कार उद्योग तेजी से बढ़ रहा था। एंबेसडर कार बनाने वाली हिंदुस्तान मोटर्स जैसे पुराने खिलाड़ी अब मारुति सुजुकी और हुंडई जैसी तेज रफ्तार गाड़ियां बनाने वाली कंपनियों से पीछे रह गए थे। इस बीच पहले टेल्को के नाम से जानी जाने वाली टाटा मोटर्स अब पैसेंजर कारों के बाजार में कदम रखने की तैयारी कर रही थी। अब तक यह कंपनी कमर्शियल ट्रकों और बसों के बाजार में अपनी मजबूत पहचान बना चुकी थी। टाटा मोटर्स ने जापानी और कोरियाई कंपनियों के कब्जे वाले कार बाजार में अपनी जगह बनाने की एक खास रणनीति तैयार की थी। उनका प्लान एक ऐसी कार लॉन्च करने का जो स्मार्ट तो हो ही, साथ ही सस्ती भी पड़े। कैसे? वह तब तक सिर्फ सार्वजनिक परिवहन के लिए ही इस्तेमाल होने वाले डीजल को कार में इस्तेमाल करने वाले थे। कंपनी डीजल से चलने वाली सूमो लॉन्च करने ही वाली थी। प्रदूषण नियंत्रण के लिहाज से यह बात बिल्कुल ठीक नहीं थी। ईपीसीए पहले ही सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर चुका था, जिसमें बसों में डीजल के इस्तेमाल पर रोक लगाने की मांग की गई थी। सीएसई के संस्थापक निदेशक स्वर्गीय अनिल अग्रवाल ईपीसीए के सदस्य थे। सीएसई चाहती थी कि सभी बसें साफ ईंधन यानी सीएनजी पर चलें और कारों में भी गंदा और जहरीला डीजल इस्तेमाल न हो।
1999 में, सीएसई ने एक और रिपोर्ट जारी की, जिसका शीर्षक था “इंजन्स ऑफ द डेविल– ह्वाय डीजलाइजेशन ऑफ प्राइवेट ऑटोमोबाइल फ्लीट शुड बी बैन्ड।” यह रिपोर्ट काफी तीखे अंदाज में पेश की गई थी और टाटा मोटर्स को बिल्कुल भी पसंद नहीं आई थी। अप्रैल 1999 में टाटा मोटर्स ने सीएसई पर 100 करोड़ रुपए का मानहानि का मुकदमा दायर किया। यह मुकदमा उस लेख के खिलाफ था, जो सीएसई ने बिजनेस स्टैंडर्ड अखबार में डीजल के विषाक्त प्रभावों पर लिखा था। सीएसई इस मामले को जनता के सामने ले कर आई। टाटा ने नोटिस वापस तो ले लिया लेकिन लड़ाई गुपचुप तरीके से जारी रही। डीजल के पक्ष में प्रचार करने के लिए टाटा मोटर्स ने पब्लिक रिलेशंस फर्म “बर्सन-मार्सटेलर रोजर पेरेरा कम्युनिकेशंस” को नियुक्त किया। जल्द ही डीजल के बारे में मिथक और तथ्यों को बताने वाले पैम्फलेट सामने आने लगे। यह इंटरनेट युग के पहले की बात है। इन पैम्फलेट में गुमनाम विशेषज्ञों के विचार थे और जिनसे निर्णय लेने वालों को प्रभावित किया जा रहा था। इसके बाद डीजल के बचाव में कई गैर-लाभकारी संगठन सामने आ गए। एक “सिटिजन्स अगेंस्ट पॉल्यूशन” नाम का संगठन था, जिसका एजेंडा ही डीजल का बचाव करना था। झूठी जानकारी फैलाना अब खेल-खेल की बात हो गई थी।
अप्रैल 1999 में ईपीसीए ने एनसीआर में डीजल से चलने वाली निजी गाड़ियों पर प्रतिबंध लगाने के लिए सुप्रीम कोर्ट में एक रिपोर्ट दाखिल की। इस रिपोर्ट में दिल्ली में बढ़ते प्रदूषण और सार्वजनिक स्वास्थ्य पर इसके प्रभाव को देखते हुए इस प्रतिबंध की मांग की गई थी। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले पर ध्यान दिया और कोर्ट द्वारा नियुक्त एमिकस क्यूरी हरिश साल्वे ने “डीजल गाड़ियों के पंजीकरण को अगले आदेश तक तुरंत निलंबित करने की सिफारिश की।” देश के सर्वोच्च न्यायालय के सम्मानित न्यायधीशों ने सहमति जताई और कहा कि “नागरिकों का जीवन का अधिकार खतरे में है।” सरकार से इस पर जवाब मांगा गया। लड़ाई अब स्तरहीन हो चली थी। सीएसई के निदेशक अनिल अग्रवाल उस समय गंभीर कैंसर से जूझ रहे थे। उन पर व्यक्तिगत हमले किए जाने लगे। ऑटोमोबाइल उद्योग खासकर टाटा मोटर्स ने इस कदम को रोकने के लिए अपनी पूरी ताकत लगा दी। सुप्रीम कोर्ट में टाटा मोटर्स के वकील एफ एस नारिमन और अरुण जेटली, फिएट के वकील पी चिदंबरम, और मारुति के वकील कपिल सिबल ने यह तर्क दिया कि कण हानिकारक नहीं हैं। टाटा मोटर्स के हलफनामे में कहा गया, “मैं यह नहीं मानता कि कण जितने छोटे होते हैं, उतने ही ज्यादा खतरनाक होते हैं।” “मैं यह नहीं मानता कि आरएसपीएम ज्यादा नुकसानदेह है, क्योंकि यह फेफड़ों में गहरे तक पहुंचकर वहां जमा हो जाता है।” “मैं नहीं मानता, मैं नहीं मानता।” इस बयान को उन्होंने बार-बार दोहराया था।
ऑटोमोबाइल उद्योग से कड़ी आपत्तियों का सामना करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने फैसला लिया कि निजी गाड़ियों के लिए डीजल पर प्रतिबंध लगाने के बजाय ईंधन और उत्सर्जन के मानकों में सुधार किया जाएगा। इस बीच सरकार ने इस पूरे प्रकरण से अपना पल्ला झाड़ लिया। अप्रैल 1999 में सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया कि एनसीआर में जून, 1999 से सिर्फ यूरो I मानकों का पालन करने वाली गाड़ियों का ही पंजीकरण हो पाएगा। लेकिन, यूरो II मानकों में बदलाव के लिए सिर्फ एक साल का समय दिया गया। कोर्ट के आदेश में कहा गया था कि 1 अप्रैल, 2000 से सिर्फ यूरो II वाहन ही पंजीकरण के लिए मान्य होंगे। इस बीच (1 मई 1999 से 1 अप्रैल 2000 तक) कोर्ट ने प्रति माह 250 डीजल कार और 1,250 पेट्रोल गाड़ियों के पंजीकरण का कोटा निर्धारित किया, जो “पहले आओ, पहले पाओ” के आधार पर होने थे। इस एक निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने व्हीकल टेक्नोलॉजी और फ्यूल के लिए उत्सर्जन के मानक लागू किए और ऑटोमोबाइल उद्योग को बदलाव के लिए छह महीने का समय दिया।
ऑटोमोबाइल उद्योग के वकीलों ने सुप्रीम कोर्ट से कहा कि उन्हें थोड़ा और समय चाहिए, क्योंकि नया नियम लागू होने से उन्हें नुकसान होगा। कोर्ट ने जवाब दिया, “लोग ठीक से सांस नहीं ले पा रहे हैं और आप समय मांग रहे हैं?” उद्योग की तरफ से यह तर्क दिया गया कि लोग ऐसी गाड़ियां एनसीआर के बाहर रजिस्टर करवा रहे हैं, जो प्रदूषण के नियमों पर खरी नहीं उतरतीं। इस पर जजों ने कहा, “चालाकी की कोई सीमा नहीं होती।” कोर्ट ने वकीलों से साफ कह दिया कि “वकील चाहे एक लाइन में बोलें या दो में, कोर्ट फैसला सुनाएगी ही।” इसके बाद जो हुआ, वह इतिहास बन गया। ऑटोमोबाइल कंपनियों ने तय समय तक नए नियम मान लिए। तेल कंपनियों ने साफ फ्यूल देना शुरू कर दिया। दिल्ली की हवा में सुधार आया। लेकिन, एक जरूरी लड़ाई हार गए, निजी डीजल गाड़ियां तेजी से बढ़ने लगीं। जिससे साफ हवा का फायदा धीरे-धीरे खत्म हो गया। फिर इसके बाद एक और अहम मोड़ आया।
16 फरवरी, 2001 को सबकी नजरें देश के मुख्य न्यायाधीश की अदालत पर टिकी थीं। वजह थी दिल्ली में डीजल से चलने वाली सभी बसों, ऑटो, और टैक्सियों को सीएनजी में बदलने की आखिरी तारीख अप्रैल 2001 का काफी करीब आ जाना। दिल्ली सरकार ने कोर्ट से कहा कि उन्हें तीन साल का समय और चाहिए। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने यह मांग साफ तौर पर खारिज कर दी। यह तो बस शुरुआत थी। अब दिल्ली में सीएनजी लागू करने को लेकर जबरदस्त विरोध शुरू हो गया था। जो लोग आज सरकारी सुस्ती से परेशान हैं, उन्हें यह जानना चाहिए कि किसी भी अच्छे बदलाव के लिए कितनी मेहनत और कितना संघर्ष करना पड़ता है। कोर्ट में तरह-तरह के बहाने दिए गए, जैसे सीएनजी तकनीक अभी ठीक से परखी नहीं गई है, गैस और सिलेंडर उपलब्ध नहीं हैं, वगैरह। लेकिन कोर्ट ने सख्ती दिखाई और कहा, “हमें पता है कि 1 अप्रैल, 2001 से लोगों को थोड़ी परेशानी हो सकती है, लेकिन यह शहरी अव्यवस्था प्रशासन और निजी बस मालिकों की लापरवाही का नतीजा है।” जजों ने साफ कहा कि अगर समय सीमा बढ़ा दी गई तो यह गलती करने वालों को इनाम देने जैसा होगा। आखिर में कोर्ट ने सिर्फ 30 सितंबर 2001 तक का समय दिया, वह भी सख्त शर्तों के साथ। परिवहन विभाग के प्रमुख सचिव को आदेश मानने की व्यक्तिगत जिम्मेदारी दी गई और यह तय किया गया कि डीजल बसें सिर्फ प्रमुख सचिव की इजाजत के साथ ही चल सकेंगी।
जब डीजल बसें सड़कों से हटाई गईं तो 3 अप्रैल 2001 को हिंसा फैल गई। गुस्साए यात्री बसों को आग लगाकर जलाने लगे। राजनेताओं ने एक-दूसरे पर इस दंगे के लिए आरोप लगाने शुरू कर दिए। 7 अप्रैल को द इंडियन एक्सप्रेस ने “ऐंटी सीएनजी लॉबी डज अ वॉर डांस” हेडलाइन के साथ खबर छपी थी। मीडिया में वकीलों ने कहा कि यह मामला संवैधानिक संकट में बदल सकता है। 4 अप्रैल को सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि दिल्ली प्रशासन का आदेशों का पालन न करना “बहुत ही गलत और अस्वीकार्य” है। दिल्ली सरकार ने कोर्ट की अवमानना से बचने के लिए 18 अप्रैल को एक हलफनामा दिया, जिसमें उसने कोर्ट के आदेशों को लागू करने का वादा किया। इसके बाद 27 अप्रैल को कोर्ट ने अवमानना की कार्यवाही बंद कर दी।
सीएनजी और डीजल की बहस अब बचकानी हो चली थी। कुछ लोगों ने सीएनजी को रोकने के लिए जानबूझकर झूठ फैलाना शुरू कर दिया। कुछ ने अल्ट्रा-लो सल्फर डीजल (0.005% सल्फर से कम) को सीएनजी का विकल्प बताया, लेकिन जब अदालत से सिफारिश की गई तो उन्होंने चुपचाप लो सल्फर डीजल (0.05%) का नाम लिया, जो भारत स्टेज II ईंधन का मानक था। इस तरह से एक जीरो हटाकर उन्होंने अदालत को धोखा देने की कोशिश की। इसके बाद यह कहा गया कि गैस उपलब्ध नहीं है और सीएनजी काम नहीं करेगी। सीएनजी को गरीबों के लिए नुकसानदेह बताया गया। बसों और ऑटो चालकों की लंबी कतारों को दिखा कर गुस्सा बढ़ाया गया। सरकार ने यह कहा कि शहर का परिवहन सिर्फ एक ही ईंधन पर निर्भर नहीं हो सकता क्योंकि अगर गैस की आपूर्ति में कोई परेशानी आई, तो पूरा शहर रुक जाएगा। इसलिए ईपीसीए से 0.05 प्रतिशत सल्फर डीजल को एक साफ ईंधन के रूप में मानक बनाने की मांग की गई। विरोधियों ने यह भी कहा कि सीएनजी असुरक्षित है, इससे कैंसर होने का खतरा है और डीजल से ज्यादा हानिकारक कण छोड़ता है। एक अमरीकी बस और ट्रक बनाने वाली कंपनी के लिए किए गए अध्ययन को “हार्वर्ड का अध्ययन” कहकर फैलाया गया और यह गलत जानकारी नीति निर्माताओं तक पहुंचाई गई ताकि सीएनजी को नकारा जा सके। सीएसई को इन झूठों का मुकाबला करना पड़ा और सही जानकारी लोगों तक पहुंचाने के लिए काफी जद्दोजहद करनी पड़ी।