भारत में सार्वजनिक परिवहन की खामियों के कारण निजी वाहनों का उपयोग बढ़ रहा है, जिससे प्रदूषण में वृद्धि हो रही है।
मेट्रो और बस सेवाओं की कमी, समय पर न आना और भीड़भाड़ जैसी समस्याएं लोगों को निजी वाहनों की ओर धकेल रही हैं।
इससे न केवल पर्यावरण को नुकसान हो रहा है, बल्कि सार्वजनिक परिवहन प्रणाली भी वित्तीय संकट में है।
भारत में कार और दोपहिया वाहनों की संख्या बहुत बढ़ गई है और लोग इनका इस्तेमाल ज्यादा करते हैं। इससे औसतन हर यात्री ज्यादा प्रदूषण फैला रहा है। निजी गाड़ी में ज्यादातर 1-2 लोग ही होते हैं, जबकि बस, मेट्रो या ऑटो जैसे सार्वजनिक साधन एक बार में बहुत ज्यादा लोगों को ले जा सकते हैं। जब आप इस चैप्टर की पहली पंक्ति पढ़ रहे थे, तब अपनी नई कारें पंजीकृत करवाने वाले उन्हीं 20 व्यक्तियों ने निजी कार में चलने की बजाए सीएनजी बस में सफर करना चुनते, तो उनका संयुक्त उत्सर्जन घटकर प्रति किमी सिर्फ 1.06 किलोग्राम सीओ2 रह जाता, यानी प्रति व्यक्ति प्रति किमी महज 53.1 ग्राम है। यह अकेले गाड़ी चलाने से होने वाले प्रदूषण से एक तिहाई से भी कम है। पर्यावरण से जुड़े इतने फायदों के बावजूद लोग सार्वजनिक परिवहन नहीं पसंद करते। ऐसा इसलिए नहीं कि उन्हें इसके फायदे नहीं पता, बल्कि इसलिए कि सार्वजनिक परिवहन की सेवाएं अच्छी नहीं हैं, जैसे समय पर न आना, भीड़भाड़, आराम की कमी आदि।
दिल्ली स्थित थिंक टैंक “सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट (सीएसई)” ने भारत के 19 बड़े सरकारी परिवहन निगमों (एसटीयू) का अध्ययन किया। इनमें 12 राज्य सरकार द्वारा संचालित और 7 नगर निगम द्वारा संचालित बस सेवाएं शामिल हैं। इनमें महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, उत्तर प्रदेश, तेलंगाना, कर्नाटक, गुजरात, दिल्ली, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश, पश्चिम बंगाल और बिहार जैसे राज्य शामिल हैं। अध्ययन में पता चला कि 2014 से 2019 के दौरान, इन 19 सार्वजनिक परिवहन उपक्रमों की बसों की संख्या में केवल 4.6 प्रतिशत की मामूली बढ़ोतरी हुई। इसका मतलब है कि बसों की संख्या आबादी बढ़ने और लोगों की यात्रा की मांग के हिसाब से नहीं बढ़ रही है। नतीजतन, लोगों को बसों के लिए ज्यादा इंतजार करना पड़ता है, जिससे बसें असुविधाजनक हो जाती हैं।
परिणामस्वरूप, इसी अवधि के दौरान यात्रियों की संख्या में 5.8 प्रतिशत की गिरावट आई। यात्रियों की संख्या में कमी से सभी एसटीयू को भारी नुकसान हुआ। वित्तीय वर्ष 2014-15 से वित्तीय वर्ष 2018-19 के बीच 19 एसटीयू में औसतन घाटा तीन गुना बढ़ गया। 56 राज्य सड़क परिवहन उपक्रमों को कुल मिलाकर 17,932 करोड़ रुपए का घाटा हुआ। इस घाटे में सबसे ज्यादा हिस्सा (57.39 प्रतिशत ) राज्य निगमों का था, उसके बाद राज्य के स्वामित्व वाली कंपनियों (23.73 प्रतिशत ), नगर निगम की बस सेवाओं (10.33 प्रतिशत ) और सरकारी विभागों की बस सेवाओं (6.56 प्रतिशत ) को घाटा उठाना पड़ा।
दूसरी ओर, भारत में मेट्रो रेल को दो बड़ी समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। मेट्रो में जितने यात्रियों के आने का अनुमान लगाया गया था, उतने नहीं आते। इन मेट्रो प्रणालियों में आपस में जुड़ाव (इंटीग्रेशन) कम है और “लास्ट माइल कनेक्टिविटी” यानी मेट्रो स्टेशन से घर या ऑफिस तक पहुंचने के साधन खराब हैं। ज्यादातर मेट्रो सिस्टम एक सीधे रास्ते (कॉरिडोर) की तरह हैं, पूरे शहर का एक नेटवर्क नहीं। इससे लोगों को एक जगह से दूसरी जगह जाने में ज्यादा समय लगता है, ज्यादा बार मेट्रो बदलनी पड़ती है और खर्च भी बढ़ता है। इन समस्याओं के कारण मेट्रो की वित्तीय स्थिरता भी सवालों के घेरे में है, यानी वे खुद का खर्च निकालने में मुश्किल महसूस कर रही हैं। भारत के 16 शहरों में मेट्रो चल रही है। 2024 तक इनकी कुल लंबाई 862 किलोमीटर थी। आईआईटी, दिल्ली द्वारा 2023 में किए गए एक अध्ययन के अनुसार, भारतीय शहरों में मेट्रो से जितने यात्रियों के सफर करने का अनुमान लगाया गया था, उसकी तुलना में सिर्फ 25-35 प्रतिशत यात्री ही मेट्रो पर चढ़ रहे हैं।
दूसरे शहरों की तुलना में दिल्ली मेट्रो रेल कॉर्पोरेशन (डीएमआरसी) के यात्रियों की संख्या सबसे ज्यादा है, इसके बावजूद यह अपने अनुमानित लक्ष्य से आधे से भी कम यानी 47 प्रतिशत यात्री ही जुटा सकी है। डीएमआरसी के इस बेहतर प्रदर्शन की मुख्य वजह यह है कि दिल्ली मेट्रो को एक विस्तृत नेटवर्क के रूप में बनाया गया है। इसमें कई लाइनें हैं, जो पूरे शहर में फैली हुई हैं। जबकि अधिकतर शहरों में मेट्रो सिर्फ एक या दो सीधी लाइनों (कॉरिडोर) के रूप में बनाई गई हैं। ऐसी योजनाएं सार्वजनिक परिवहन के लिए जरूरी पहलू यानी व्यापक कनेक्टिविटी और यात्रा में लचीलेपन पर ध्यान नहीं देतीं। मेट्रो की सुविधा वाले 16 शहरों में से 15 शहरों में मेट्रो “कॉरिडोर-बेस्ड” है। दिल्ली ही एकमात्र ऐसा शहर है, जहां 395 किलोमीटर तक फैला 10 लाइनों का एक बड़ा नेटवर्क है।
भारत में मेट्रो रेल किराए के अलावा दूसरे तरीकों से पैसे कमाने में असफल रही हैं, जैसे स्टेशन पर दुकानें, विज्ञापन आदि से होने वाली आय। राजस्व के लिए किराए पर निर्भरता भारी नुकसान की वजह बनती है। जैसे, कोविड-19 महामारी के दौरान मेट्रो के परिचालन और यात्रियों की संख्या में कमी आई, तो मेट्रो की कमाई भी ठप हो गई। इसलिए, मेट्रो के लिए यह जरूरी है कि उसकी कमाई सिर्फ किराए से न हो, बल्कि दूसरे (गैर-परिचालन) स्रोतों से भी हो। मेट्रो में यह क्षमता है, क्योंकि उनका एक मजबूत “इकोसिस्टम” होता है। दुनिया की सबसे सफल मेट्रो, जैसे हांगकांग की एमटीआर और सिंगापुर की एसएमआरटी की कुल कमाई का क्रमश: 58 प्रतिशत और 28 प्रतिशत तक हिस्सा गैर-किराया स्रोतों से आता है। वहीं, बेंगलुरु, मुंबई और चेन्नई की मेट्रो में गैर-किराया स्रोतों से होने वाली कमाई बहुत कम है। 2021 में इन तीन शहरों की मेट्रो को क्रमशः 6 प्रतिशत , 11 प्रतिशत और 16 प्रतिशत आय किराया के अलावा दूसरे स्रोतों से हुई थी। जब मेट्रो के पास पैसों की कमी होती है, तो वे अपनी सेवाओं में सुधार नहीं कर पातीं। इससे लोगों का मेट्रो पर से भरोसा उठ जाता है, जिससे सार्वजनिक परिवहन प्रणाली विफल हो जाती है और लोग निजी वाहनों जैसे ज्यादा सुविधाजनक साधनों पर निर्भर हो जाते हैं।
इस समस्या को और गहराई से समझने के लिए, सीएसई ने दिल्ली में यात्रियों की “यात्रा डायरी” का अध्ययन किया। इसमें यात्रियों से उनकी रोजाना की यात्राओं का पूरा विवरण मांगा गया, जिसमें यात्रा के हर चरण को सूचीबद्ध किया गया, जैसे बस स्टॉप तक पैदल चलना, बस लेना, बीच में कोई और साधन (जैसे ऑटो) लेना, फिर गंतव्य तक पैदल चलना आदि। इसमें यात्रा पूरी के लिए मेट्रो के साथ अपनाए गए दूसरे परिवहन साधनों की जानकारी भी जुटाई गई। इस सर्वे के लिए सैंपल समान रूप से दिल्ली के सभी आय समूहों से लिया गया। इसका मुख्य उद्देश्य यह पता लगाना था कि निजी परिवहन से यात्रा करने और सार्वजनिक परिवहन से यात्रा करने के बीच कितना अंतर है। साथ ही, इस प्रक्रिया में इस परिकल्पना का परीक्षण भी करना था कि क्या सार्वजनिक परिवहन सचमुच निजी परिवहन से सस्ता है।
सर्वेक्षण में शामिल लगभग आधे (49 प्रतिशत ) लोग निजी वाहनों का उपयोग करते हैं, और उनमें से ज्यादातर अपनी गाड़ी घर के पास ही पार्क करते हैं। निजी वाहन चलाने वालों में से 60 प्रतिशत कार चालक और 75 प्रतिशत दोपहिया वाहन चालक सीधे अपने गंतव्य तक पहुंचते हैं। यात्रियों के एक छोटे हिस्से ने ही ड्राइविंग को मेट्रो के साथ जोड़ा। 20 प्रतिशत यात्री मेट्रो को दूसरे साधन के रूप में इस्तेमाल करते हैं। जिनमें से 7 प्रतिशत पैदल चलकर और 7 प्रतिशत ही ऑटो-रिक्शा या फिर निजी वाहन से मेट्रो तक पहुंचते हैं। 5 प्रतिशत यात्री मेट्रो को तीसरे साधन के रूप में इस्तेमाल करते हैं, जो अक्सर पैदल, निजी वाहन या दूसरी कनेक्टिंग मेट्रो लाइन से पहुंचते हैं। कैब का इस्तेमाल करने वाले ज्यादातर लोग अपनी पूरी यात्रा कैब से ही करते हैं, अपवाद के तौर पर कुछ ही लोग कैब सेवा में कमी या किसी दूसरी वजह से दूसरा साधन लेते हैं।
केवल 9 प्रतिशत यात्री बसों का उपयोग करते हैं, और यह भी ज्यादातर यात्रा के दूसरे या तीसरे हिस्से के लिए होता है, जहां लोग पैदल या साइकिल से बस तक पहुंचते हैं। यात्रा के खर्च (सिर्फ ईंधन और किराया) के हिसाब से विश्लेषण किया गया तो पाया गया कि सार्वजनिक परिवहन सस्ता है। सार्वजनिक परिवहन का औसत किराया 2.97 रुपए प्रति किलोमीटर है, जबकि निजी परिवहन में ईंधन का औसत खर्च 6.36 रुपए प्रति किलोमीटर है। यह आसानी से समझ में आ जाने वाली बात है, क्योंकि सार्वजनिक परिवहन प्रणाली बनाते समय यह एक मुख्य सिद्धांत होता है कि किराया इतना सस्ता हो कि समाज के ज्यादातर लोग इसे इस्तेमाल कर सकें।
हालांकि, सार्वजनिक परिवहन सस्ता होने के बावजूद कुछ छिपी हुई लागतें इसे महंगा और असुविधाजनक बना देती हैं, खासकर बसों के लिए। बस या मेट्रो तक पहुंचने और उतरने के बाद गंतव्य तक पहुंचने के लिए ऑटो, ई-रिक्शा जैसे साधनों पर अतिरिक्त खर्च करना पड़ता है। इंटरचेंज यानी एक साधन से दूसरे साधन में बदलने में समय लगता है। इसी तरह, ट्रैफिक जाम के कारण खासकर बसों से यात्रा का समय बढ़ जाता है। उदाहरण के लिए, दिल्ली में 50 प्रतिशत से ज्यादा बस स्टॉप पर 10 मिनट से ज्यादा इंतजार करना पड़ता है। इसका कारण ट्रैफिक जाम और बसों का खराब शेड्यूल है, जिससे बसें अक्सर एक साथ आ जाती हैं, जिसे बस बंचिंग कहते हैं। इससे ऑपरेटर को भी नुकसान होता है। पीक आवर्स में ट्रैफिक जाम के कारण सार्वजनिक परिवहन खासकर बसों को बहुत ज्यादा देरी होती है। सितंबर 2024 के एक विश्लेषण के अनुसार, दिल्ली में कार्यदिवसों के दौरान सुबह के पीक आवर्स में बसों की औसत गति 41 प्रतिशत कम हो जाती है, और शाम के पीक आवर्स में बसें 56 प्रतिशत तक धीमी पड़ जाती हैं। वहीं, सप्ताहांत पर सुबह के समय ट्रैफिक 27 प्रतिशत और शाम के समय 42 प्रतिशत तक धीमा हो जाता है।
गति में कमी की यह गणना “फ्री-फ्लो स्पीड” (यानी, सुबह के समय जब न के बराबर ट्रैफिक वाली सड़कों पर बसें जितनी तेजी से चलती हैं) के आधार पर की गई थी। जब सार्वजनिक परिवहन से यात्रा की कुल लागत में इंटरचेंज और सार्वजनिक वाहन में यात्रा के दौरान लगने वाले समय के साथ ही “पहले और अंतिम मील” (यानी घर से बस स्टॉप/मेट्रो तक और वहां से गंतव्य तक) के लिए लगने वाला अतिरिक्त किराए के खर्च को जोड़ा गया, तो आर्थिक रूप से निजी वाहन का इस्तेमाल करना ज्यादा सस्ता पड़ा। समय की लागत की गणना व्यक्ति की आय, रोजाना के काम के घंटे और साल में काम के दिनों के आधार पर की गई। सर्वे में शामिल किए गए लोगों के सालाना सफर पर होने वाले कुल खर्च को उनकी सालाना आय के अनुपात में मापा गया। इसमें पाया गया कि औसतन (मीडियन) लोग अपनी सालाना आय का 18 प्रतिशत सिर्फ पब्लिक ट्रांसपोर्ट के सफर पर खर्च कर देते हैं। जबकि ज्यादातर लोगों का खर्च (यानी मध्यवर्गीय फैलाव, जिसे इंटरक्वारटाइल रेंज– आईक्यूआर कहते हैं) 12 प्रतिशत से 32 प्रतिशत के बीच था। यानी कुछ लोग इससे भी कम खर्च कर रहे थे और कुछ ज्यादा, लेकिन बड़ी संख्या में लोग इसी दायरे में आते हैं। इसे ऐसे समझ सकते हैं, सर्वे में शामिल लोगों में से ज्यादातर ने सालाना आय का 12 प्रतिशत से 32 प्रतिशत पब्लिक ट्रांसपोर्ट पर खर्च किया, और औसतन यह खर्च 18 प्रतिशत था। इसी तरह, प्राइवेट गाड़ियां (जैसे बाइक, कार) इस्तेमाल करने वालों की सालाना आय में से औसतन 12 प्रतिशत खर्च आवागमन पर होता है। जबकि, ज्यादातर लोगों का खर्च यानी इंटरक्वारटाइल रेंज 6 प्रतिशत से 18 प्रतिशत के बीच पाया गया।
दिलचस्प बात यह है कि मेट्रो से सफर करना, बसों की तुलना में ज्यादा महंगा साबित हुआ। जब हम पूरे सफर की लागत गिनते हैं, तो सभी ट्रांसपोर्ट मोड्स में मेट्रो सबसे महंगी थी। इसकी वजह यह है कि मेट्रो स्टेशन हर जगह नहीं हैं, इसलिए स्टेशन तक पहुंचने और स्टेशन से गंतव्य तक जाने का अतिरिक्त खर्च बढ़ जाता है। इसके अलावा, मेट्रो में चढ़ने और उतरने में भी ज्यादा समय लगता है, क्योंकि प्लेटफॉर्म्स अक्सर भीड़भाड़ वाले होते हैं, सुरक्षा जांच की लंबी कतारें होती हैं और रास्ता तय करने में भी समय लगता है।
सार्वजनिक परिवहन की व्यवहारिकता और खर्च का अध्ययन करना जरूरी है, क्योंकि इसका सीधा असर यात्रियों के विकल्पों और सफर के लिए उनके चुनाव पर पड़ता है। साथ ही, यह सार्वजनिक परिवहन के उपयोग को प्रोत्साहित या हतोत्साहित कर सकती है। अगर लोगों को लगता है कि सार्वजनिक परिवहन महंगा है, जिसमें किराया और समय दोनों ज्यादा लग रहे हैं, असुविधा भी ज्यादा है, तो वे निजी वाहनों का इस्तेमाल ज्यादा करेंगे। इससे शहरों में ट्रैफिक जाम और प्रदूषण और बढ़ता जाता है, और यह दुष्चक्र चलता रहता है। लेकिन, इस दुष्चक्र को तोड़ने का तरीका यहां बताया गया है। निजी वाहनों का इस्तेमाल कभी भी पूरी तरह से खत्म नहीं होने वाला है।
हमें ऐसी तकनीकों की जरूरत है, जो स्वच्छ ईंधन को बढ़ावा दें। साथ ही, वाहनों पर ऐसे कड़े नियम लागू हों, जिससे वे कम ईंधन खर्च करें और कम प्रदूषण करें। इससे गाड़ियों से निकलने वाले धुएं को शुरुआत में ही कम किया जा सकता है। हमें यह तय करना होगा कि बसें, मेट्रो आदि कितनी अच्छी सेवा दे रही हैं, जैसे समय पर आना, भीड़ न होना, सफाई आदि। इन्हें सुधारने के लिए योजना और अध्ययन की जरूरत है। नीतियों में जो भी बदलाव किए जाएं, वे सिर्फ अनुमान या दबाव में नहीं, बल्कि रिसर्च, यात्रियों और गाड़ियों के डेटा और वैज्ञानिक समझ के आधार पर होने चाहिए। लोगों को उनके गंतव्य तक पहुंचाने के लिए कनेक्टिविटी मजबूत की जाए। पैदल चलने और साइकिल चलाने के लिए सुरक्षित रास्ते होने चाहिए, फीडर बसें या छोटी सेवाएं शुरू की जाएं, जो मेट्रो स्टेशन, बस स्टॉप से घर को जोड़ें। अगर हर कोई कार या स्कूटर चलाएगा तो ट्रैफिक जाम और प्रदूषण बढ़ेगा। इसके लिए पार्किंग महंगी और सीमित की जाएं। भीड़ वाले इलाकों में गाड़ी चलाने का चार्ज वसूला जाए। कम प्रदूषण वाले जोन तय किए जाएं और वहां कम प्रदूषण वाले वाहनों को ही अनुमति दी जाए। गाड़ियों पर ईमानदारी से टैक्स लिया जाए।
शहरों की योजना बनाते समय इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि घर, काम की जगहें और जरूरी सेवाएं जैसे स्कूल, अस्पताल, दुकानें एक-दूसरे के करीब हों। यह खासकर उन जगहों पर होना चाहिए, जहां सार्वजनिक परिवहन के केंद्र जैसे बस स्टॉप, मेट्रो स्टेशन हों। इससे लोगों को ज्यादा दूर जाना नहीं पड़ेगा। सरकारों को अपने बजट में बदलाव करना चाहिए। अभी जो पैसा सड़कों और पुलों पर खर्च होता है, उसे सार्वजनिक परिवहन और शून्य-उत्सर्जन वाले परिवहन पर लगाना चाहिए। फंडिंग के नए तरीके अपनाए जाएं, जैसे लैंड वैल्यू कैप्चर यानी जब किसी जगह पर नई परिवहन परियोजना बनती है, तो आसपास की जमीन की कीमत बढ़ जाती है। सरकार इस बढ़ी हुई कीमत का कुछ हिस्सा ले सकती है और उसे परिवहन परियोजना में लगा सकती है। या फिर क्लाइमेट फंड, जिससे पर्यावरण को बचाने और प्रदूषण कम करने वाली परियोजनाओं के लिए पैसे आ सकें।