कृषि

सियासत में पिसता गन्ना 3 : निजी चीनी मिलें राजनीतिक दलों से खुद काे जोड़ लेती हैं

भारतीय किसान यूनियन के नेता युद्धवीर सिंह ने उत्तर प्रदेश में गन्ने की राजनीति पर डाउन टू अर्थ से बातचीत की

DTE Staff

उत्तर प्रदेश में गन्ने की राजनीति का क्या प्रभाव है?

यहां, गन्ने की राजनीति कम होती है। पिछले कुछ सालों में को-ऑपरेटिव (सहकारी) चीनी मिलों की संख्या कम होने से भी ऐसा हुआ है। यहां अब प्राइवेट चीनी मिलों का कब्जा है, जो उस राजनीतिक दल के साथ हो जाती हैं, जिसकी सरकार है या बनने वाली है।

को-ऑपरेटिव चीनी मिलों की संख्या कम क्यों हुई?

दरअसल, यहां के नेता शुगर इंडस्ट्री के दबाव में पहले ही आ गए थे। उत्तर प्रदेश में सरकार मुलायम की रही हो या मायावती की, इन्होंने को-ऑपरेटिव चीनी मिलों में प्रभुत्व बढ़ाने की बजाय उन्हें प्राइवेट मिल मालिकों को बेच दिया।

इससे किसानों पर क्या असर हुआ?

इसका सबसे अधिक खामियाजा किसानों को भुगतना पड़ा। उन्हें न केवल गन्ने की कम कीमत मिल रही है, बल्कि उनका भुगतान भी काफी देर से मिल रहा है।

क्या को-ऑपरेटिव मॉडल सही है?

बिल्कुल, अगर आप गुजरात का को-ऑपरेटिव मॉडल देखें, तो वह बेहद सफल मॉडल है। एक तय समय के मुताबिक, किसानों को गन्ने का भुगतान कर दिया जाता हे। हालांकि उत्तर प्रदेश में सरकारी दखल के कारण को-ऑपरेटिव चीनी मिलें किसानों का भुगतान 8 से 10 माह देरी से करती हैं, लेकिन प्राइवेट चीनी मिलें तो दो से तीन साल तक भुगतान लेट कर देती हैं। अब तो केंद्र और राज्य सरकारें को-ऑपरेटिव फेडरलिज्म को लगातार नुकसान पहुंचा रही हैं।

क्या प्राइवेट शुगर लॉबी सरकार पर हावी रहती है?

हां, शुगर लॉबी सरकार पर न केवल हावी रहती है, बल्कि अपने हिसाब से नियम कायदे भी बदलवा देती है। पिछले कार्यकाल में गन्ना किसानों को सही दाम दिलाने के लिए केंद्रीय उपभोक्ता, खाद्य एवं जन वितरण मंत्री राम विलास पासवान की अध्यक्षता में एक कमेटी बनी। उस कमेटी पर शुगर लॉबी ने दबाव बनाकर ऐसा फॉर्मूला तैयार किया, जिससे गन्ने की रिकवरी (गन्ने से निकलने वाले रस की मात्रा) का सही से आकलन नहीं किया गया। रिकवरी से ही लागत तय होती है। पहले एफआरपी (उचित और लाभकारी मूल्य) का बेस प्राइस 9.5 फीसदी था, लेकिन लॉबी ने दबाव बना कर इसे 10 करा दिया।

इससे किसान को सीधे 0.5 बेस प्राइस का नुकसान हुआ। यानी गन्ने का एफआरपी 275 रुपए प्रति कुंतल है और पहले 9.5 फीसदी से अधिक रिकवरी होने पर अतिरिक्त पैसा मिलता था, लेकिन अब 10 फीसदी बेस प्वाइंट होने पर किसान को सीधे-सीधे एक क्विटंल पर 13 रुपए का नुकसान हो रहा है।