कृषि

स्वास्थ्य का व्यापार

Sunita Narain

हम सरकार से कम से कम इतनी उम्मीद तो करते हैं कि वह सही-गलत और अच्छे-बुरे में भेद कर सके। लेकिन बात जब हमारे भोजन के नियमन की आती है तो सरकार हमारी उम्मीदों पर खरी नहीं उतरती। हमारी ताजी पड़ताल इसकी साक्षी है। सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट (सीएसई) की पॉल्यूशन मॉनिटरिंग लेबोरेटरी ने भोजन में जीएम के अंश पता लगाने के लिए 65 खाद्य उत्पादों के सैंपल पर परीक्षण किए। इसके नतीजे बुरे और कुछ हद तक अच्छे हैं। जांचे गए सैंपलों में से 32 प्रतिशत जीएम पॉजिटिव आए। यह बुरा है। इससे भी बुरा है कि शिशुओं का आहार भी जीएम निकला। यह आहार अमेरिका की हेल्थ केयर कंपनी एबॉट लेबोरेटरी द्वारा उन बच्चों के लिए बेचा जाता है जो बीमार हैं। यह आहार लैक्टोस के प्रति असहनशील शिशुओं और हाइपोएलर्जिक बच्चों के लिए होता है ताकि उनमें एजर्ली रिएक्शन की आशंका को कम किया जा सके। दोनों मामलों में उत्पाद के लेबल में जीएम अंश की जानकारी नहीं दी गई।

जीएम भोजन का स्वास्थ्य के प्रति एक चिंताजनक पहलू यह भी है कि इससे एलर्जिक रिएक्शन हो सकता है। साल 2008 में (2012 में संशोधित) इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च (आईसीएमआर) ने ऐसे भोजन के सुरक्षा निर्धारण के लिए दिशानिर्देश जारी किए। इनमें चेताया गया था कि इच्छित परिवर्तनों के साथ अनचाहे परिवर्तनों की भी संभावना है जिनसे उपभोक्ता के स्वास्थ्य और पोषण के स्तर पर असर पड़ सकता है। यही वजह है कि ऑस्ट्रेलिया, ब्राजील, यूरोपियन यूनियन और अन्य देश भोजन में जीएम को विनियमित करते हैं। लोग इस भोजन में संभावित जहर को लेकर चिंतित हैं। वहां की सरकार नागरिकों सही भोजन के चुनाव का अधिकार देती है।

थोड़ी अच्छी खबर यह है कि जो खाद्य पदार्थ जीएम पॉजिटिव मिले हैं उनमें से अधिकांश आयातित हैं। भारत अब भी लगभग जीएम मुक्त है। एक पदार्थ जो जीएम पॉजिटिव मिला है, वह खाने में इस्तेमाल होने वाला कॉटन सीड तेल है। यह बीटी कॉटन की वजह से है। यही एक जीएम फसल है जो देश में खेती के लिए स्वीकृत है। इससे हमें दो कारणों से चिंतित होना चाहिए। पहला, जीएम कॉटन सीड तेल को मानवीय उपभोग के लिए अब तक इजाजत नहीं दी गई है। दूसरा, कॉटन सीड तेल अन्य खाने के तेलों में मिलाया जाता है, खासकर वनस्पति में।

इन सबके बीच एक सवाल यह उठता है कि किसकी निगरानी में जीएम खाद्य आयात किया जा रहा है? पर्यावरण संरक्षण अधिनियम के अंतर्गत आनुवांशिक परिवर्तन युक्त जीवों का बिना सरकारी अनुमति आयात, निर्यात, परिवहन, प्रोसेसिंग या खरीद-विक्रय नहीं हो सकता। यह अनुमति सरकार की जेनेटिक इंजीनियरिंग एप्रूवल कमेटी (जीईएसी) प्रदान करती है जो वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के अंतर्गत आती है। वर्ष 2006 का खाद्य सुरक्षा एवं मानक अधिनियम भी इस पर जोर देता है और भारतीय खाद्य सुरक्षा मानक प्राधिकरण (एफएसएसएआई) को इसे विनियमित करने की ताकत देता है। लीगल मेट्रोलॉजी (पैकेज्ड कमोडिटीज) नियम 2011, जीएम उत्पाद की जानकारी को अनिवार्य बनाते हैं। विदेश व्यापार नीति (विकास एवं विनियमन) 1992 के तहत जीईएसी के मंजूरी के बिना जीएम उत्पाद का आयात नहीं किया जा सकता। इसके उल्लंघन पर आयातक को दंडित किया जा सकता है।

दरअसल कानून समस्या नहीं है। समस्या तो यह है कि हमारी सुरक्षा के लिए बने इन कानूनों को लागू कराने के लिए जिम्मेदार सरकारी एजेंसियां प्रतिबद्ध नहीं हैं। 2016 तक जीईएसी इंचार्ज था। एफएसएसएआई ने कहा था कि वह इस भोजन को विनियमित करने में सक्षम नहीं है। अब गेंद दोबारा एफएसएसएआई के पाले में है। वे सब यही कहेंगे कि जीएम भोजन के आयात की स्वीकृति नहीं दी गई है। वे यहां तक कह सकते हैं कि भारत में जीएम भोजन ही नहीं है लेकिन यह हमारे अधिकारियों का ढोंग है। वे कानून तो बना देते हैं लेकिन उसका पालन नहीं करवाते। कागजों में ही उनका वजूद है। हमें कहा जाता है कि चिंता मत कीिजए लेकिन हमें चिंतित होने की जरूरत है। जीएम के संदर्भ में हमने जो कुछ पाया है, वह अवैध है। कानून इस पर स्पष्ट है लेकिन हमारे अधिकारी अंधेरे में हैं। इसलिए चिंतित और गुस्सा होने की जरूरत है। आखिर यह हमारी सेहत का मामला है।

तो अगला कदम क्या हो? 2018 में एफएसएसएआई ने लेबलिंग को लेकर एक अधिसूचना का मसौदा जारी किया है जिसके अंतर्गत जीएम खाद्य भी आते हैं। इस नियम के अनुसार, वह खाद्य पदार्थ जिसमें जीएम की मात्रा 5 प्रतिशत या इससे अधिक हो, वह जीएम की श्रेणी में रखा जाएगा और उसकी लेबलिंग होगी। यह जीएम की मात्रा उस खाद्य पदार्थ में प्रयुक्त हुई सामग्रियों की सूची में (प्रतिशत के हिसाब से) पहले तीन स्थानों में से कहीं होनी चाहिए। लेकिन सरकार द्वारा किसी खाद्य पदार्थ में इस्तेमाल में लाए गए जीएम की मात्रा का सही आकलन असंभव है। दूसरे चरण का परीक्षण बहुत महंगा है। हमारे पास शायद ही यह सुविधा हो। अतः एक तरह से यह खाद्य कंपनियों की स्वघोषणा को क्लीनचिट है। ये कंपनियां जो कहना चाहती हैं, वह कह देंगी और भाग जाएंगी। इसी एफएसएसएआई ने जैविक खाद्य पदार्थों से संबंधित एक दूसरी अधिसूचना जारी की है। इसके अनुसार, हर खाद्य पदार्थ निर्माता को यह प्रमाणित करना होगा कि उसके माल में कीटनाशकों के अंश नहीं हैं। जो सुरक्षित है, उसे प्रमाण देना है और जो बुरा है वह खुलेआम स्वास्थ्य से खेल रहा है। आखिर किसके हितों की रक्षा की जा रही है? अपने भोजन का नियंत्रण अपने हाथ में लीजिए। स्वस्थ रहना आपके हाथ में है।