महानगरों में वायु प्रदूषण बहस के केंद्र में है। शहरों में रहने वाला एक संभ्रांत तबका किसानों द्वारा पराली जलाने को वायु प्रदूषण की बड़ी वजह बता रहा है। लेकिन असली खलनायकों मसलन वाहन, उद्योग, पेट कोक, फर्नेस तेल आदि को नजरअंदाज किया जा रहा है। जहां तक किसानी की बात है तो उनके पास पराली न जलाने के विकल्प मौजूद हैं। बस कमी है तो सरकारी मदद की। किसान मजबूरी में पराली जला रहे हैं।
दरअसल पराली की वजह मशीनें हैं और इस समस्या का निदान भी मशीनों में ही निहित है। पिछले कुछ वर्षों से कम्बाइन हारवेस्टर आ जाने के कारण किसानों को धान एवं गेहूं से आय अधिक मिली है। कम्बाइन हारवेस्टर से धान-गेहूं को काटने के पश्चात दोनों फसलों का अवशेष खेत में ही गिर जाते हैं जिससे खेत की जुताई में अधिक लागत एवं परेशानियों का किसानों को सामना करना पड़ता है जिसके फलस्वरूप किसान खेतों में फसल अवशेषों में आग लगा देते हैं।
धान की पुआल में लगभग 50-55 प्रतिशत कार्बन, 0.62-0.68 प्रतिशत नाइट्रोजन, 0.20-0.23 प्रतिशत फास्फोरस एवं 0.78-1.15 प्रतिशत पोटेशियम होते हैं जो जलाने के उपरान्त नष्ट हो जाते हैं। पूरे भारत में लगभग 9.8 करोड़ टन फसल अवशेषों को जला दिया जाता है जिससे काफी मात्रा में पौधों के लिए जरूरी पोषक तत्व नष्ट हो जाते हैं।
फसल अवशेषों को जलाने से ग्रीन हाउस गैसों जैसे कार्बन डाईऑक्साइड, सल्फर डाईऑक्साइड, नाइट्रस ऑक्साइड एवं कार्बन मोनोऑक्साइड आदि निकलती है जो पर्यावरण एवं मानव जीवन के लिए हानिकारक है। यदि फसल अवशेषों को जलने से न रोका गया तो ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन से तापमान में बढ़ोतरी एवं ध्रुवों के किनारों का पिघलना इत्यादि अधिक तेजी से बढ़ेगा जिसका उदाहरण हम जलवायु परिवर्तन में देख रहे हैं। किसानों को फसल अवशेषों को जलाने से रोकने के लिए किसानों में इससे होने वाले नुकसान एवं प्रदूषण के बारे में जागरुकता एवं प्रशिक्षण आवश्यक है। िकसानों को इस समस्या से निजात िदलाने के लिए वैज्ञानिकों ने हल खोज लिया गया है जिसका नाम “संरक्षित खेती” है। संरक्षित खेती से किसानों को खेत में आग लगाने की जरूरत नहीं पड़ती। संरक्षण खेती आधारित फसल प्रणालियों को अपनाकर पर्यावरण को प्रदूषित होने से बचाया जा सकता है, साथ ही उपलब्ध संसाधनों को समुचित उपयोग में भी लाया जा सकता है।
क्या है संरक्षण कृषि
संरक्षण कृषि वह पद्धति है जिसमें कृषिगत लागत को कम रखते हुए अत्यधिक लाभ व टिकाऊ उत्पादकता लाई जा सकती है। साथ में प्राकृतिक संसाधनों जैसे मृदा, जल, वातावरण व जैविक कारकों में संतुलित वृद्धि होती है। इसमें कृषि क्रियाओं उदाहरणार्थ शून्य कर्षण या अति न्यून कर्षण के साथ कृषि रसायनों एवं अकार्बनिक व कार्बनिक स्त्रोतों का संतुलित व समुचित प्रयोग होता है ताकि कृषि की विभिन्न जैव क्रियाओं पर विपरीत प्रभाव न हो।
संरक्षण खेती को सभी प्रकार की जलवायु जैसे शीतोष्ण, सम शीतोष्ण, कटिबंधीय, उष्ण कटिबंधीय इत्यादि में अपनाया जा सकता है। इसको समुद्र तल से 3000 मीटर की ऊंचाई वाले बोलिविया तक और 250-3000 मिलीमीटर वर्षा वाले क्षेत्रों तक में आसानी से उगाया जा सकता है। ब्राजील में मृदा कटाव को रोकने के लिए संरक्षण खेती पर वर्ष 1962 में कार्य शुरू किया गया था। न्यूनतम/जीरो-टिलेज, मिट्टी की सतह पर फसल अवशेष को कायम रखना तथा उचित फसल चक्र अपनाकर विश्व के कई स्थानों पर संरक्षण खेती लगभग 40 वर्षों पूर्व से अपनाई जा रही है। संरक्षण खेती की तकनीक को अमेरिका, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, अर्जेटीना, ब्राजील इत्यादि ने बड़े स्तर पर अपनी परिस्थितियों एवं क्षमताओं के अनुसार अपनाया है। संरक्षण खेती विश्व में कुल कृषि योग्य भूमि के लगभग 8.5 प्रतिशत क्षेत्रफल में होती है जो लगभग 12.4 करोड़ हेक्टेयर क्षेत्र है। इसका 90 प्रतिशत क्षेत्र अर्जेंटीना, ऑस्ट्रेलिया, ब्राजील, कनाडा व अमेरिका में है।
भारत में संरक्षित खेती
भारत में संरक्षित खेती का प्रारंभ 90 के दशक में जी.बी पंत कृषि विश्वविद्यालय द्वारा विकसित जीरो टिल सीड ड्रिल के साथ हुआ। उस समय इसे शून्य कर्षण कहते थे। इसके द्वारा गंगा के मैदानी क्षेत्रों में धान-गेहूं फसल प्रणाली पर शोध एवं प्रयोग किए गए तथा अनुकूल परिणाम प्राप्त हुए। किसानों में इसका प्रचलन मुख्यतः समय से बुआई तथा लागत मे कमी के कारण हुआ। सामान्यतः किसान खेत को तैयार करने के लिए 7 से 8 बार तक जुताई करता है। जुताई के लिए उसे फसल अवशेष को आग लगाना पड़ता है। भूपरिष्करण यंत्र जैसे हैरो, कल्टीवेटर, रोटावेटर इत्यादी मृदा की भौतिक रासायनिक एवं जैविक गुणों मे परिवर्तन लाते हैं जिससे मृदा क्षरण को बढ़ावा मिलता है।
संरक्षित खेती में न्यूनतम जुताई एवं जीरो टिलेज किया जाता है जिससे फसल अवशेष मृदा की सतह पर बने रहते हैं। इससे मृदा क्षरण बहुत कम हो जाता है। सामान्यतः 30 प्रतिशत तक फसल अवशेषों द्वारा मृदा का ढंका रहना आवश्यक है। संरक्षित खेती में फसल विविधीकरण एवं फसल चक्र अपनाना अति आवश्यक है। सामान्यतः किसान एक ही प्रकार की फसल चक्र कई वर्षों तक अपनाते हैं। उदाहरण के लिए धान-गेहूं फसल प्रणाली वर्षों से किसान एक ही खेत में लगा रहे हैं जिससे मिट्टी की उर्वरा शक्ति पर सीधा असर पड़ता है। फसल विविधीकरण मिट्टी की उर्वरता बनाए रखता है तथा फसल संबंधित कीटों एवं रोग व्याधि को भी कम करता है।
इस खेती के सिद्ध़ांतों को पूर्ण रूप से लागू करने के लिए कई संसाधन संरक्षण तकनीकें अपनाई जाती हैं जैसे लेजर लेवलर, बैड प्लान्टर, हैप्पी सीडर/ टर्बो सीडर से शून्य जुताई, बूंद-बूंद सिंचाई आदि जिससे फसल संसाधनों का प्रबंधन सुचारू रूप से किया जा सके। ये सभी तकनीकें संसाधनों की कुशलता बढ़ाती हैं।
जीरो टिल सीड कम फर्टी ड्रिल: जीरो टिलेज सीड कम फर्टिलाइजर ड्रिल से धान कटाई के उपरांत बिना खेत की तैयारी किए सीधे गेहूं की बोनी की जाती है। धान की हाथ से कटाई करने के बाद 3 से 4 दिन के अंदर विशेष प्रकार के टाइंस वाली सीड ड्रिल से गेहूं की बोनी की जाती है। इस सीड ड्रिल से जमीन में एक जैसी लाइन बन जाती है जिसमें गेहूं पड़ता है एवं पर्याप्त नमी होने के कारण अंकुरित होता है। इस मशीन से बुआई करने से किसान अपने पैसे तथा समय की बचत कर सकते हैं तथा फसल की पैदावार में भी कमी नहीं आती। आमतौर पर किसान धान के बाद गेहूं की बुआई के लिए 6 से 8 बार खेत की जुताई करता है जबकि जीरो टिलेज में केवल एक बार ट्रैक्टर चलाना पड़ता है। इससे लगभग 85 प्रतिशत समय व 90 प्रतिशत डीजल की बचत होती है। साथ में 1800 से 2200 रुपए प्रति एकड़ की बचत होती है।
यदि किसान इस तकनीक को 12-15 एकड़ खेत पर अपनाता है तो मशीन की कीमत एक ही फसल चक्र में वसूल हो जाती है।
हैप्पी सीडर: वर्तमान मे फसल कटाई श्रमिकों की कमी के कारण कम्बाइन हार्वेस्टर से की जा रही है। इससे खेत में काफी भूसा (पैरा) निकलता है जिसे किसान आग लगाकर समाप्त करते हैं। हैप्पी सीडर मशीन के द्वारा बिना नरवाई जलाए एवं कटाई उपरांत सीधे गेहूं की बोनी की जाती है। वर्तमान में इसका सबसे ज्यादा उपयोग संरक्षित खेती में हो रहा है। यह एक 9 कतारी मशीन है जिसकी कार्यक्षमता 0.41 हेक्टेयर प्रति घंटा है। इसमें इनवर्टेड-टी प्रकार के फरो ओपनर लगे होते हैं। हैप्पी सीडर से बोनी करने पर श्रम व लागत के साथ-साथ 15 से 20 दिन की बचत होती है। कम्बाइन हार्वेस्टर से कटाई के उपरांत नरवाई खेत में रह जाती है। हैप्पी सीडर में घूमने वाली लोहे की पट्टी लगी होती है जो बोई जाने वाली कतार के सामने के नरवाई को काटकर बिछा देती है तथा इसमें लगी हुई जीरो टिलेज से बोनी भी हो जाती है।
लेजर लेवलरः भूमि समतलीकरण अच्छे मृदा स्वास्थ्य एवं अधिक फसल पैदावार के लिए अति आवश्यक है। लेजर लेवलिंग भूमि समतलीकरण की आधुनिक विधि है। लेजर लैंड लेवलिंग भूमि को एक निश्चित डिग्री एवं उपयुक्त भूमि ढलान में लेजर बीम सहायता से समतल करता है। लेजर लेवलर यंत्र में प्रमुख अवयव लेजर ट्रांस मीटर, लेजर रिसीवर, इलेक्ट्रिक मेनुअल मास्ट कंट्रोल बॉक्स एवं ड्रेम स्केपर रहते हैं जिनकी सहायता से भूमि को समतल करते हैं।
रेज्ड बेड प्लांटरः इस यंत्र द्वारा 60 सेमी चौड़ी 2 बेड बनाकर 2-2 कतारों में बोनी की जाती है। प्रत्येक बेड पर कतार से कतार की दूरी अधिकतम 45 सेमी रखी जा सकती है। बेड के किनारे नाली भी बनती है जिससे अधिक वर्षा की स्थिति में पानी की निकासी हो जाती है। कम वर्षा की स्थिति में नाली में जमा पानी से पौधों की जड़ों को पर्याप्त मात्रा में नमी मिलती है। बेड की मिट्टी भुरभुरी होने के कारण पौधों की जड़ों में नमी के साथ-साथ वायु का संचरण भी अच्छा होता है जिससे अंकुरण बेहतर होता है। आदान सामग्री जैसे बीज, खाद, दवाई तथा पानी में बचत होती है। यंत्रों का उपयोग कर खरपतवार नष्ट किया जा सकता है।
मल्टीक्रॉप प्लांटर: मल्टीक्रॉप प्लांटर से मक्का, अरहर, सोयाबीन, चना आदि की कतारों में बोनी की जाती है। इसमें अलग-अलग बोनी के लिए अलग आकार की डिस्क लगाई जा सकती है जिससे कतार से कतार एवं पौधे से पौधे की दूरी निश्चित रखी जा सकती है। इसमें रिजर लगा होता है जिससे खेत में बोनी के साथ-साथ नालियां भी बनती हैं। अधिक वर्षा की स्थिति में नालियों से पानी की निकासी हो जाती है जिससे फसलों की जड़ों को नुकसान नहीं होता। इस यंत्र से बोनी करने पर बीज में 25, खाद में 20 तथा पानी में 30 प्रतिशत की बचत होती है। साथ ही उत्पादन में 15 से 20 प्रतिशत तक वृद्धि होती है।
सुगरकेन रेकर एवं बेलर: गन्ना कटाई के उपरान्त खेत में फैली गन्ने की पत्ती एवं डंठल के प्रबंधन हेतु गन्ना रेकर एवं बेलन मशीन का उपयोग किया जाता है। रेकर ट्रैक्टर की पीटीओ से चलने वाला यंत्र है। इससे खेत में बिखरी पत्तियों को कतारबद्ध किया जाता है। ट्रैक्टर पीटीओ चालित बेलर मशीन द्वारा कतारबद्ध पत्तियों को एकत्र कर, बारीक एवं कम्प्रेस कर गट्ठे बनाए जाते हैं। इस मशीन द्वारा इन गट्ठों को बांध दिया जाता है। प्रत्येक बेल का वजन 30 से 40 किग्रा होता है। गन्ना उत्पादन का लगभग 25 प्रतिशत बायोमास के रूप में प्राप्त होता है जिसे कृषकों द्वारा प्रायः जलाकर नष्ट किया जाता है। बेलर मशीन का उपयोग कर ईंधन के रूप में व अन्य औद्योगिक जरूरत के रूप इन बेल का उपयोग कर अतिरिक्त आमदनी बनाई जा सकती है। पत्तियां जलाने से होने वाले प्रदूषण भी रोका जा सकता है।
पैडी राउंड बेलर: धान की कटाई के उपरान्त खेत में खड़ी नरवाई को हटाने में बेलर मशीन का उपयोग किया जाता है। ट्रैक्टर के पीटीओ से इस मशीन से सतह से नरवाई की काटकर 2 फिट डायमीटर का गोलाकार बेल बनाया जाता है। प्रत्येक बेल का वजन 25 से 35 किलो के बीच होता है। कृषकों द्वारा प्रायः जलाकर नष्ट किए जाने वाले इस बायोमॉस (नरवाई) को बेल बनाकर ईंधन के रूप में व अन्य औद्योगिक जरूरत के रूप में उपयोग कर अतिरिक्त लाभ कमाया जा सकता है। मशीन के उपयोग से नरवाई से होने वाले प्रदूषण को रोका जा सकता है।
स्ट्रारीपर (गेहूं कटाई के पश्चात भूसा बनाने की मशीन): इस यंत्र के द्वारा कम्बाइन हार्वेस्टर से फसल कटाई के उपरान्त खेत से नरवाई को एकत्र कर भूसा बनाया जाता है। ट्रैक्टर पीटीओ से चालित इस यंत्र में खड़ी नरवाई को कटरवार से काटकर थ्रेसिंग यूनिट में भेजा जाता है। मशीन की औसत कार्य क्षमता 1 एकड़ प्रति घंटा है। इस यंत्र के द्वारा औसतन 5 से 7 क्विंटल प्रति एकड़ भूसा बनाया जा सकता है। स्ट्रारीपर के उपयोग में नरवाई जलाने से बचा जा सकता है।
कटाई के दौरान खेत में बिखरी हुई गेहूं की बाली को इस यंत्र द्वारा लगभग 3 से 5 प्रतिशत अनाज भी एकत्रित किया जा सकता है। इस मशीन के उपयोग से बहुमूल्य पशु आहर एकत्र कर अतिरिक्त लाभ कमाया जा सकता है। शासन द्वारा विभिन्न योजनाओं के तहत स्ट्रारीपर पर वर्गवार अनुदान दिया जा रहा है।
कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि पर्यावरण के अनुकूल और टिकाऊ कृषि को बढ़ावा देना है तो संरक्षित खेती को अपनाना ही होगा।
(लेखक जवाहरलाल नेहरू कृषि विश्वविद्यालय, जबलपुर में वैज्ञानिक हैं)