भारत के इतिहास में पहली बार 30,000 से ज्यादा किसानों का जत्था 6 मार्च को नासिक से चला और 11 मार्च की रात मुंबई पहुंच गया। किसानों की योजना 12 मार्च को देश की आर्थिक राजधानी मुंबई में विधानसभा का घेराव करने की थी। लेकिन इससे पहले ही महाराष्ट्र की फडणवीस सरकार ने हालात को भांपते हुए किसानों की मांगें मान लीं। 12 मार्च को ही विधान भवन में मुख्यमंत्री की अध्यक्षता में सरकार और किसानों के प्रतिनिधियों के बीच हुई बैठक के बाद मुख्यमंत्री ने कहा कि हमने किसानों की सभी मांग मान ली हैं। साथ ही किसानों को भरोसा दिलाने के लिए एक लिखित पत्र भी जारी किया है। इसी के साथ किसानों ने आंदोलन वापस ले लिया है और अपने घर लौट गए। किसानों के लौटने के लिए विशेष ट्रेनों का इंतजार सरकार की ओर से किया गया।
किसानों के इस मार्च का आयोजन भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के संगठन अखिल भारतीय किसान सभा ने किया था। पदयात्रा में महाराष्ट्र के 19 जिलों के किसानों और आदिवासी महिला पुरुषों ने बड़ी संख्या में भागीदारी की। किसानों का यह जत्था सरकार तक अपनी आवाज पहुंचाने और अपनी मांगों को मनवाले के लिए निकला था। किसानों की पदयात्रा 11 मार्च को रात साढ़े 9 बजे मुंबई के चूनाभट्टी क्षेत्र के सोमैया मैदान पर पहुंच गई। यहां रात भर रुकने बजाय किसान रात में ही पैदल चलकर आजाद मैदान पहुंच गए जो विधानसभा से महज दो किलोमीटर की दूरी पर है लेकिन विधानसभा का घेराव करने से पहले ही समझौता हो गया।
अखिल भारतीय किसान सभा के प्रदेश अध्यक्ष किसन गुजर ने बताया, “सोमैया मैदान में रात भर गुजारने के बाद अगली सुबह विधानसभा तक मार्च करने की हमारी योजना थी। लेकिन एसएससी की परीक्षा चल रही थी और हम छात्रों का तकलीफ नहीं पहुंचाना चाहते थे। छात्रों को सुबह परीक्षा केंद्रों में पहुंचना था। इसलिए शारीरिक रूप से थके होने के बाद भी किसानों ने नींद का त्याग करके रात में ही मार्च करने का सामूहिक निर्णय लिया ताकि किसी को परेशानी न हो।”
किसानों के समूह में 50 साल की माधव कुंजाबाई रंगनाथ माशे भी शामिल थीं। उन्होंने नासिक के त्रिंबकेश्वर तहसील में स्थित अपने गांव खांबाले को 5 मार्च को छोड़ दिया था। लगातार छह दिन तक धूप में चलने और कुछ घंटे की नींद लेने के बाद भले ही शरीर थक गया हो लेकिन उनके उत्साह में कमी नहीं आई। मुंबई के सोमैया मैदान में जब वह पहुंची तब उनके पैरों में सूजन आई हुई थी और वह लंगड़ाकर चल रही थीं।
इसके बाद भी माशे रातभर 17 किलोमीटर चलने के लिए प्रतिबद्ध थीं। उन्होंने बताया, “मेरे पास केवल एक एकड़ पैतृक जमीन है, जिस पर खेती करके मैं अपने परिवार का पालन पोषण कर रही हूं। लेकिन वन विभाग कहता है कि यह उसकी जमीन है। मैं अपने गांव में तब तक नहीं लौटूंगी जब तक 7/12 (भू अभिलेख) मेरे नाम पर जारी नहीं हो जाता।” माशे महादेव कोली आदिवासी किसान हैं।
महाराष्ट्र के सूखाग्रस्त क्षेत्र मराठवाडा से भी बड़ी संख्या में किसान मार्च में शामिल हुए। परभणी के एक ऐसे ही किसान विलास ने बताया, “पिछले पांच सालों से हम एक के बाद एक विनाश का सामना कर रहे हैं। हमने लगातार तीन साल सूखा, ओलावृष्टि, अत्याशित बारिश और पिंक वॉलवार्म का हमला झेला है। हम सरकार से मदद मांग मांगकर थक चुके हैं।”
गुजर के अनुसार, किसानों की मांगें असाधारण या असंवैधानिक नहीं हैं। वह बताते हैं “वन अधिकार कानून 2006 में पारित हुआ था। इसे पारित हुए 12 साल हो चुके हैं लेकिन नियमों के अनुसार इसे अब तक लागू नहीं किया गया है। राज्य में आदिवासियों के 352,000 दावों में से 282,000 से अधिक दावों को गलत ढंग से खारिज कर दिया गया।”
2006 के भू अधिकार कानून के अलावा किसान पेंशन योजना को लागू करने, स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को लागू करने की मांग कर रहे हैं। स्वामीनाथन आयोग की सिफारिश है कि किसानों को उत्पादन लागत के साथ 50 प्रतिशत अधिक भुगतान किया जाए। इसके अलावा किसान कर्जमाफी, राशन की नियमित आपूर्ति, नदी जोड़ा योजना पर फिर से विचार करने की मांग रहे हैं। इस परियोजना में महाराष्ट्र की नदियों का पानी पड़ोसी राज्य गुजरात आदि से बांटने का प्रावधान है।
अगले साल महाराष्ट्र में चुनाव हैं और बीजेपी सरकार हजारों किसानों की अनदेखी नहीं कर सकती। केंद्र के लिए भी किसानों की अनदेखी करना मुश्किल होगा। ये किसान आंदोलन महाराष्ट्र में ही नहीं बल्कि राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, ओडिशा आदि राज्यों में भी हो रहे हैं। 2019 में लोकसभा चुनाव भी हैं। और स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को लागू करने की जिम्मेदारी केंद्र सरकार के कंधों पर है।
विदर्भ में किसानों के हक के लिए लड़ने वाले विजय जवांधिया का कहना है “किसानों की मांगों में कुछ भी नयापन नहीं है। पिछले कई सालों से ये किसान अपनी जायज मांगों जैसे, भूमि पट्टा, फसलों का उचित मूल्य, नियमित राशन, रोजगार आदि को मनवाने का दबाव बना रहे हैं। वह बताते हैं “कांग्रेस सरकार ने किसानों की मांगों को नहीं माना, इसलिए इन किसानों और आदिवासियों ने सत्ता बीजेपी को सौंप दी। लेकिन चार साल गुजरने के बाद ऐसा लगता है कि बीजेपी सरकार को भी किसानों की फिक्र नहीं है। फडणवीस द्वारा घोषित 34,000 करोड़ की कर्जमाफी भी कागजों में सीमित होकर रह गई। किसान गुस्से में हैं और खुद को ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं।” जवांधिया के अनुसार, सीपीआई (एम) किसान सभा के माध्यम से अपनी ताकत को दिखाना चाहती है लेकिन किसान मार्च का संदेश दलगल राजनीति से ऊपर गया है क्योंकि इसमें राज्य के सभी किसानों का प्रतिनिधित्व है।
गुजर का दावा है कि विरोध मार्च के पीछे कोई राजनीति नहीं है। वह बताते हैं, “2016 से राज्य में तीन बार बड़े धरने दे चुके हैं लेकिन उन्हें बदले में केवल खोखले आश्वासन ही मिले।”
नासिक के डिंडोरी तालुका से आईं आदिवासी शेतकारी पारोबाई शंकर पवार कहती हैं “भले ही हम गरीब आदिवासी हों और एक एकड़ जमीन पर भी हमारा मालिकाना हक न हो लेकिन हमारे सरकार गिराने और बनाने की ताकत है।”
“किसानों से किसी को डरने की जरूरत नहीं”
किसानों के असाधारण मार्च के संबंध में अखिल भारतीय किसान सभा के प्रदेश अध्यक्ष किसन गुजर से निधि जम्वाल ने बात की |