कृषि संकट के दौर से गुजर रहे देश को एक युवा किसान ने उम्मीद की रोशनी दिखाई है। सूखे की मार से प्रभावित बुंदेलखंड क्षेत्र के सागर (मध्य प्रदेश) के रहने वाले आकाश चौरसिया खेती का ऐसा प्रयोग कर रहे हैं जो न केवल पर्यावरण के लिहाज से अनुकूल है बल्कि लाभकारी भी है। आकाश ने बहुस्तरीय (मल्टीलेयर) खेती की नई पद्धति विकसित की है। इस पद्धति के तहत वह चार नकदी फसलों की खेती एक साथ करते हैं। यह खेती पूरी तरह जैविक होती है और कई नए प्रयोग इसमें किए गए हैं। आकाश अपने ढाई एकड़ के खेत में मुख्य रूप से अदरक, चौलाई, कुंदरू और पपीते की खेती करते हैं। 29 साल के आकाश इस खेत से साल में करीब 15 लाख रुपए की आय अर्जित कर रहे हैं।
बहुस्तीय खेती वह पद्धति है जिसमें एक ही जमीन पर अलग-अलग ऊंचाई की फसलें एक साथ उगाई जाती हैं। आकाश फरवरी में जमीन के अंदर अदरक की रोपाई करते हैं। इसी माह अदरक के ऊपर चौलाई लगाते हैं। इसी दौरान वह थोड़ी-थोड़ी दूरी पर पपीते के पौधे लगाते हैं। कुंदरू की बेल पांच से दस साल तक उपज देती है। यह बेल खेत के बीच-बीच में लगे बांस से सहारे बढ़ती है और मंडप में फैल जाती है।
आकाश खेती में अनाप शनाप खर्च करने में यकीन नहीं रखते है। यही वजह है कि वह पॉलीहाउस से परहेज करते हैं। इसके बजाय वह बांस और घास की मदद से मंडप को तवज्जो देते हैं। प्राकृतिक चीजों से तैयार यह मंडल किसी भी तरीके से पर्यावरण को नुकसान नहीं पहुंचाता और एक बार लगा देने के बाद यह पांच साल तक चलता है। मंडप मौसम की मार जैसे ओलों, तेज बारिश और धूप से फसलों की रक्षा भी करता है।
बहुस्तरीय खेती में आकाश केवल देसी बीजों का इस्तेमाल करते हैं। इससे दो उद्देश्य पूरे होते हैं। पहला, महंगों बीजों से छुटकारा मिलता है और दूसरा, ये बीज जलवायु परिवर्तन का प्रभाव झेलने की शक्ति रखते हैं। इन बीजों से खेती करने पर कीड़ों से होने वाला नुकसान भी न्यूनतम होता है। बुंदेलखंड जैसे सूखा प्रभावित क्षेत्रों में यह काफी महत्वपूर्ण है। बहुस्तरीय खेती की ये तमाम विशेषताएं और इसमें प्रयोग होने वाला सामान इसे सस्टेनेबल मॉडल बनाता है।
इस पद्धति से होने वाली खेती पानी की बचत भी करती है। इसमें आम फसलों की तरह बहुत ज्यादा पानी की जरूरत नहीं पड़ती। दिन में एक बार छिड़काव से ही काम चल जाता है। इतने कम पानी में चार फसलें तैयार होती है और मुनाफा भी चार गुणा होता है।
भारत में 80 प्रतिशत किसानों के पास पांच एकड़ से कम जमीन है। यह मॉडल इसे किसानों के लिए काफी मददगार हो सकता है।
आकाश खेती के इस सिद्धांत को “विष मुक्त गो आधारित खेती” का नाम देते हैं। उनके पास पांच देसी गाय हैं जिनका मूत्र और गोबर वह खाद के रूप में इस्तेमाल करते हैं। गोमूत्र से उन्होंने कई प्रकार के जैविक कीटनाशक तैयार किए हैं। साथ ही साथ वर्मीकंपोस्ट भी तैयार की है। इस कंपोस्ट में 75 प्रतिशत गाय का गोबर और 25 प्रतिशत रॉक फास्फेट होता है। वर्मीकंपोस्ट और दूध बेचकर भी आकाश अतिरिक्त आय सृजित करते हैं। उनका कहना है कि अगर देशभर के किसान इस पद्धति को अपनाएं तो खेती को फायदा का सौदा बनाया जा सकता है।