हजारों साल के इतिहास में चंपारण पहली बार रोते-कराहते तभी दिखता है जब गांधी को बुलावा भेजा गया और उन्होंने कुशल जादूगर की तरह बिना हथियार, बिना हंगामा, बिना लड़ाई और बिना खर्च चंपारण को न सिर्फ बीमारी से मुक्त करा दिया, बल्कि देश और दुनिया को औपनिवेशिक शासन से मुक्ति का एक बहुत दमदार तरीका बताने के साथ वैकल्पिक विकास के अपने मॉडल पर भी चला दिया।
गांधी जब पंद्रह अप्रैल 1917 को मोतिहारी पहुंचे तो निपट अकेले दिखते हैं, पर अंदर से वे अपने स्वभाव के अनुरूप कई सारी तैयारियों के साथ आए थे। उनके साथ न उनके खास लोग दिखते हैं न ज्यादा सामान। अपनी आत्मकथा में वे यह भी स्वीकारते हैं कि चंपारण जाने के पहले उन्हें नक्शे में भी इस जिले का और उस नील की खेती का कुछ भी पता नहीं था जिससे किसान त्रस्त थे और जिस मुश्किल को अपनी आंखों से देखने के लिए वे आए थे।
जिस समय गांधी का आंदोलन शुरू हुआ था उस समय अकेले बेतिया राज वाले इलाके में 36 अंगरेज ठेकेदार थे। इनमें से 23 नील का व्यवसाय करते थे। जाहिर है कि ठेकेदारी और नील के धंधे में कुछ स्थानीय जमींदार भी थे और कई लोगों का मानना था कि वे कुछ ज्यादा ही क्रूर थे। कुछ गोरे दूसरा कारोबार भी करते थे।
1877 की कीमतों का जो जिक्र डब्ल्यू डब्ल्यू हंटर ने किया है, उसके अनुसार एक रुपए में बाइस सेर चावल, सत्रह सेर गेहूं, 31 सेर जौ, 24 सेर चना, 32 सेर मकई मिलता था। गांधी वाले दौर तक कीमतें इसी आसपास झूल रही थीं। हालांकि सड़क और रेल परिवहन शुरू होने से यहां का माल बाहर जाने लगा था और कीमतें बढ़ने लगीं। अनाज की कीमतें बढ़ना और नील के दाम न बढ़ना भी नील आंदोलन की एक बड़ी वजह थी।
नील के पहले निर्यात का बड़ा आंकड़ा 1782 में मिलता है जब यह ईस्ट इंडिया कंपनी के निर्यात के सामानों में एक बना। 1788 में तिरहुत से भी नील बाहर जाने लगने के आंकड़े उपलब्ध हैं और बाद में तो तिरहुत का, जिसके अंदर चंपारण भी आता है, नील दुनिया में सबसे अच्छा माना जाने लगा।
1830 का दशक तक आते-आते नील उत्पादन एक बड़ा व्यवसाय बन गया, जिसमें भारी मारकाट भी थी। चूंकि कानूनी रूप से नील का व्यवसाय करने वाले लोगों पर जमीन खरीदने की रोक थी, इसलिए उन्हें उत्पादन सुनिश्चित करने का एक ही रास्ता उपलब्ध था कि वे किसानों से उनकी जमीन भाड़े पर लें या किसान से ही उसकी जमीन पर नील की खेती करने का करार करें। चूंकि नील के भारतीय मूल्य और यूरोपीय मूल्य में पचास गुने तक का अंतर रहा करता था, इसलिए उनके लिए किसी भी मूल्य पर करार करना सस्ता ही होता था।
सन 1778 में ही बिहार में सबसे पहले एलेक्जेंडर नोएल ने नील की आधुनिक फैक्टरी लगाई थी। उनकी नोएल ऐंड कंपनी तब नील का कारोबार करने वालों में अगुआ थी। पुराने तिरहुत कमिश्नरी का पहले एक ही जिला था-मुजफ्फरपुर मुख्यालय। उसके कलक्टर फैंक्वा ग्रेड ने अधिकारी रहते हुए बड़ी बेशर्मी से पैसे बनाए और नील की तीन फैक्टरियां खड़ी कीं, और बेशर्मी से जब वे इस बात की घोषणा करने लगे तो ईस्ट इंडिया कंपनी ने उनको विदा कर दिया। पर उसी आसपास डच भी आ गए और उन्होने मोतीपुर में फैक्टरी लगाई। शुरू में डच, फ्रांसीसी और अंगरेज शोरे के साथ नील के व्यापार में भी प्रतिद्वंद्वी रहे, पर 1800 के आसपास अंगरेजों ने डच लोगों को खदेड़ दिया।
निलहे बंगाल के उन इलाकों से, जो आज ज्यादातर बांग्लादेश का हिस्सा हैं, से भी खदेड़ दिये गए। किसानों के प्रतिरोध, चारों ओर मची थू-थू और ब्रिटिश सरकार के अधिकारियों की रिपोर्ट से परेशान निलहे..अब बिहार और खासकर चंपारण समेत इसके छह जिलों-तीन गंगा के उत्तर और तीन गंगा के दक्षिण, में आए और उन्होंने एकदम जाल सा बिछा दिया। सन 1788 में तिरहुत में नील की पांच फैक्टरियां थीं, जो 1810 में पंद्रह हो गईं। चंपारण तब अलग जिला नहीं था, इसलिए अलग हिसाब नहीं मिलता। पर तब भी 1810 में अकेले तिरहुत से 10,000 मन नील कलकत्ता बंदरगाह जाता था, जहां से इसे विदेश, खासकर जर्मनी भेज दिया जाता था। तब का यह मोटा अनुमान था कि जिस दर पर नील जर्मनी में बिकता था, वह चंपारण या भारतीय उत्पादक को मिलने वाली कीमत से पचास गुना ज्यादा थी।
जिस चंपारण का कुल रकबा साढ़े तीन लाख वर्गमील था, उसके लगभग दो लाख वर्गमील इलाके की मिल्कियत रखने वाले बेतिया राज की हालत खराब हुई। राज अपनी आर्थिक स्थिति से भी ज्यादा अंगरेजों के षडयंत्र से कोर्ट ऑफ वार्ड्स में चला गया और 1888 में ब्रिटेन से बड़ा कर्ज, 85 लाख रुपए लेने के चलते पूरी तरह अंगरेजों की दया पर निर्भर हो गया। साढ़े सात-सात लाख के मुकर्ररी बंदोबस्त पर 14 कोठियों को मालगुजारी वसूलने और राजस्व बढ़ाने का ठेका दे दिया गया। उन्होंने आगे और छोटे-छोटे हिस्से करके देसी और गोरे ठेकेदार नियुक्त कर दिए। और हर कोई ज्यादा से ज्यादा कर वसूलने, राजस्व बढ़वाने की रेस में जुट गया और जितना राज को देना था उससे कई गुना ज्यादा अपनी जेब में डालने के लिए साम, दाम, दंड, भेद हर चीज अपनाने लगा। फिर रामनगर और मधुबन राज भी कर्ज में डूबे और अंगरेजी प्रभाव में आ गए या अंगरेजी चाल में फंसकर बेतिया राज की गति को प्राप्त हुए।
1892 से 1897 इसके उत्पादन का शीर्ष था, जब लगभग एक लाख एकड़ जमीन पर इसकी खेती होने लगी थी। यह चंपारण की कुल खेती का सात फीसदी हिस्सा था, जबकि इस उत्पाद का एक दाना या एक पत्ती का इस्तेमाल भी स्थानीय स्तर पर नहीं होता था। 1911 की जनगणना के अनुसार पूरे बिहार और ओडिशा में 2700 गोरे थे जिसमें से करीब दो सौ ही चंपारण में थे। इन मुट्ठी भर लोगों ने ही सारी खेती, सारा जीवन पूरी तरह जकड़ रखा था और पुरानी सारी व्यवस्था खत्म कर दी थी। उन्होंने सब कुछ तहस-नहस कर रखा था और अपने खजाने भर रहे थे। अकेले 1896-97 में यहां से सवा चार करोड़ रुपए से अधिक का नील निर्यात हुआ था। नील की अन्तर्राष्ट्रीय मंडी में कभी भारतीय नील का डंका बजता था तो कभी यह भी हुआ कि प्रतिद्वंद्वी मुल्कों के नील ने उसे पीछे कर दिया। पर जब चंपारण समेत पूरे तिरहुत का नील बाजार में आने लगा, तो इसके आगे कोई नहीं ठहर पाया।
धान और दूसरे अनाज की जगह व्यावसायिक फसल लगाना अर्थव्यवस्था के विकास में मददगार होता है। पर चंपारण का दुर्भाग्य था कि इन तीनों फसलों का लगभग पूरा का पूरा फायदा बाहर वालों को ही मिला और जिले के लोगों, जिनमें जमींदार से लेकर बेगार करने वाला मजदूर शामिल था, को सिर्फ परेशानियां ही उठानी पड़ी। अब फ्रांसीसी इतिहासकार जेकस पौचेपदास और आर्थिक इतिहासकार गिरीश मिश्र जैसे लोगों ने तब के बहुत सारे आंकड़ों के आधार पर जो अनुमान लगाए हैं, उनके अनुसार नील की खेती में लागत का दोगुना हर साल निकल आता था। बुरी से बुरी स्थिति में भी 33-34 फीसदी मुनाफा होता था। पर यह भी होता था कि अधिकांश नील फैक्टरियां कर्ज लेकर ही काम करती थीं। और दूसरी तरफ यह हालत थी कि किसी भी नील की कोठी ने एक भी प्राथमिक स्कूल या दवाखाना शुरू नहीं किया था, जिसमें उसके ही मजदूरों के बच्चे पढ़ें या किसी जरूरत के समय दो पैसे का इलाज पा जाएं।
नील की खेती तो बहुत परेशानी वाली थी ही, नील बनाने का बदबू भरा काम था। सो इस पूरे उत्पादन तंत्र का सारा काम समाज के सबसे कमजोर लोग अर्थात दलित और निम्न मध्य जातियों के लोग ही करते थे। और जब वे भी कम पड़ने लगे तो दक्षिण बिहार से लाकर आदिवासी बसाए गए। इन्हें यहां धांगड़ कहा जाने लगा था। तब जिले में ज्यादातर काम अनाज दे लेकर ही किया कराया जाता था, ज्यादातर सौदे अनाज से ही होते थे, पर नील की खेती का सौदा, एडवांस यानी दादनी, गाड़ी और हल का सौदा और फैक्टरी तथा जिरात पर की सारी मजदूरी का देन-लेन नगदी चलता था।
अब यह अनुमान कई तरह से लगा है कि नील उत्पादन के काम में रोज तीस से पैंतीस हजार मजदूरों को काम मिलता था, जिसका भुगतान नगद होना चाहिये था। कायदे से इतने काम और इतने उत्पादन से चंपारण स्वर्ग बन गया होता। इतने लोगों को खेती से इतर काम तो आज सौ-सवा सौ साल बाद भी नहीं मिलता है। पर दो-ढाई आना मजदूरी भी पूरी नहीं दी जाती थी और फैक्टरी के करिंदे दस्तूरी और नेग के नाम पर इसका भी एक बड़ा हिस्सा हड़प लेते थे। फिर बेगारी भी अलग से खटनी होती थी।
असामीवार खेती में भी फैक्टरी मालिक बीज देता था और तय कीमत पर फसल उसे ही देना होता था। चंपारण की खेती की कुछ विशेष स्थिति यह थी कि यहां बीज के लिए रखी फसल कभी भरपूर और अच्छे बीज नहीं देती थी- बरसात होते ही कीड़े लगने लगते थे और बची फसल के पौधों को चट कर जाते थे। फसल को उगाने की रजामंदी और सट्टा/कंट्रैक्ट लेने का काम मान-मनौव्वल, फुसलाने, धमकाने से लेकर जोर-जबरदस्ती से होता था। असामीवार खेती भी दो तरह से होती थी-शिकमी और तीनकठिया। शिकमी में रैयत अपनी सारी जमीन का करार कर लेते थे, पर चंपारण में इस तरह के करार कम थे। 1860 तक किसानों के साथ प्रति बीघा पांच कट्ठा नील बोने का करार हुआ करता था। अर्थात एक चौथाई जमीन पर नील उगाने की अनिवार्यता। पर एक बार जौकटिया फार्म के किसानों ने नील बोने से मना किया और शिकायतों की जांच में रैयतों की बातें सही मिलीं तो 1867 से इसे प्रति बीघा तीन कट्ठा कर दिया गया, अर्थात 15 फीसदी जमीन की अनिवार्यता। यह करार बहुत आम हुआ। इसी से इस प्रथा का नाम तीनकठिया पड़ा। कहने को तीन कट्ठा या पांच कट्ठा का करार होता था पर निलहे खेत का सबसे उपजाऊ हिस्सा अपने लिए चुनते थे और अक्सर माप भी तीन कट्ठे से ज्यादा ही हो जाती थी। अगर किसी खेत के चुने हिस्से में एक बार फसल अच्छी नहीं हुई तो दूसरा हिस्सा ले लिया जाता था और उस पर लगी फसल पर हल चलवाकर नील के लिए खेत तैयार कराना आम था।
बहुत कम समय में ही लगभग हर फैक्टरी ने अपने आसपास बड़े-बड़े फार्म बनाए, जिन्हें जिरात कहा जाता था और आज भी चंपारण की अर्थव्यवस्था और समाज में ऐसे जिरातों की बड़ी भूमिका है। जाते-जाते अंगरेजों ने अपने प्रिय असामियों को या पैसेवालों को जिरात सौंप दिये जो सबसे उपजाऊ और सिंचित हैं। पर जिरात बने-बनाए न थे, क्योंकि स्थायी बंदोबस्त के हिसाब से जमीन की खरीद-बिक्री मुश्किल थी। सो किसानों से जमीन लेने-छीनने का काम बहुत ही क्रूर ढंग से हुआ, जिसमें अंगरेजी हुकूमत ने बहुत मदद की।
ये सब चीजें अगर लागू थीं और इनसे बचने पर भारी जुर्माना था तो जाहिर तौर पर एक जबरदस्त खुफिया तंत्र भी था, जो हर आदमी कौन कहे हर दुधारू पशु, फलदार पेड़, हर सवारी, खेती के हर उपकरण की सही सूचना रखता था। किसका कितना खेत-खलिहान है और किसकी किससे आंख लड़ी है इस पर भी नजर रखी जाती थी। सरकार और अदालत के हर फैसले की जानकारी के साथ देश-विदेश के बाजार और रैयतों के बीच की हर गतिविधि की खबर रहती थी। कोई इलेक्ट्रानिक उपकरण नहीं लगा था, कोई मोनिटरिंग इकाई नहीं थी, कोई ब्राडकास्ट नहीं होता था, पर कोई भी बचकर नहीं निकल पाता था। इस निगरानी और रिपोर्टिंग व्यवस्था मेँ भरपूर पुरस्कार/दंड की व्यवस्था थी। अब इसका इस्तेमाल कौन-कौन अपने हक में करता था और लाभ का बंटवारा कैसे होता था, वह एक मुश्किल समीकरण था-खासकर तब जब आप भारतीय हों।
कई अधिकारी निलहों के खिलाफ थे। तब भी ब्रिटिश हुकूमत अगर इस तंत्र और पकड़ के चलते ही निलहों का साथ देता था तो गांधी ने इसकी भी कीमत वसूल ली और निलहों के साथ गोरी सत्ता को विदा करने की शुरुआत कर दी। पर उनसे पहले भी काफी कुछ हुआ स्थानीय स्तर पर भी और देश-प्रदेश में भी।