कृषि

पशु व्यापार पर प्रतिबंध से विकराल हो रही है आवारा मवेशियों की समस्या

आवारा मवेशियों की संख्या इस हद तक बढ़ गई है कि फसलों को बचाने के लिए ग्रामीणों को रातभर जागना पड़ रहा है

Jitendra

रहमदीन खान सालभर से सो नहीं पाए हैं। राजस्थान के अलवर जिले में अरावली की पहाड़ियों की तलहटी में 500 घरों वाले खोआबास गांव में रहने वाले रहमदीन चार साल पहले एक घटना के गवाह बने थे जिसने उनकी जिंदगी बदलकर रख दी। घर के आसपास घूमती नजरें उन्हें परेशान करती हैं। उनके यहां बकरियां और भैंस तो हैं, लेकिन वे मवेशी नहीं हैं जो कभी उनकी आमदनी निर्धारित करते थे। खाद्य फसलें यहां सेकंडरी अर्थव्यवस्था का हिस्सा हैं। पहले स्थान पर मवेशी ही हैं।

2017 में जब वह एक स्थानीय मवेशी मेले में दो गाय और बछड़ों को लेकर जा रहे थे, तभी कथित गोरक्षकों के समूह ने उनकी पिटाई कर दी और मवेशी ले गए। घायल और अपमानित रहमदीन ने तभी मवेशियों को छोड़ने का फैसला कर लिया। फर्श को एकटक देखते हुए रहमदीन कहते हैं, “हम मवेशी अर्थव्यवस्था के संरक्षक हैं लेकिन हमारी छवि गाय के दुश्मन और गोतस्कर की बना दी गई।” इसके बाद पुलिस ने गांव में कई बार छापेमारी की। जानवरों के खिलाफ क्रूरता के कानूनों के आरोप में रहमदीन जैसे कई डेयरी किसानों को जेल में डाल दिया गया। आरोप है कि 2014 से 2017 के बीच उन्हें दो बार गिरफ्तार किया गया। उन्हें जेल से निकलने के लिए 40,000 रुपए तक घूस के रूप में देने पड़े। 2018 में उन्होंने हिंसा के डर से पशुपालन छोड़ दिया। रहमदीन कहते हैं, “65 मवेशियों को त्यागने के बाद मन में एक अजीब बेचैनी है। इसके बिना हम समृद्धि की कल्पना नहीं कर सकते।”

एक समय समृद्ध माने जाने वाले रहमदीन अब गरीबी रेखा से नीचे के किसान के रूप में देखे जा सकते हैं। उनकी शिकायत यह है कि वह उन लोगों द्वारा गरीबी के दलदल में धकेले गए हैं, जो भूख व गरीबी से रक्षा की बात करते हैं। वह बताते हैं, “मुझे मवेशियों के बिना नींद नहीं आती।” उनकी ही तरह, अन्य निवासियों ने भी मवेशियों की आवाजाही पर मंडराते हिंसा के बादल, कड़े गाय व्यापार विरोधी कानूनों को देखते हुए मवेशी पालन छोड़ना शुरू कर दिया। मवेशी अब गांव के परिदृश्य से गायब हो चुके हैं।



राजस्थान में गोरक्षकों द्वारा नियमित रूप से छापे मारे जाते हैं और अक्सर वे हिंसक हो जाते हैं। राजस्थान बोवाइन एनीमल (वध प्रतिषेध और अस्थायी प्रवासन या निर्यात पर प्रतिबंध) एक्ट, 1995 के तहत पुलिस ने 2017 में सिर्फ 389 मामले दर्ज किए। राज्य सरकार ने 2015 में इस अधिनियम में संशोधन कर मवेशियों को अवैध रूप से ले जाने में लगे वाहन को जब्त करने और गिरफ्तारी के साथ दंडित करने का प्रावधान किया। 2016 में 474 मामले दर्ज हुए जबकि 2015 में 543। राज्य में गाय तस्करी के संदेह में गोरक्षकों द्वारा लिंचिंग की घटनाएं हुईं। अगस्त 2018 में उच्चतम न्यायालय ने जुलाई में अलवर जिले में हुई लिंचिंग की घटना पर राज्य सरकार के गृह विभाग के प्रधान सचिव को निर्देश दिया कि वह इस केस में की गई कार्रवाई का विवरण देते हुए हलफनामा दायर करें।

राजस्थान ही नहीं बल्कि उत्तर भारतीय राज्यों में भी हाल के वर्षों में मवेशियों से संबंधित हिंसा में वृद्धि हुई है। देश भर के सिविल सोसाइटी समूहों के संघ भूमि अधिकार आंदोलन की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में 2010 के बाद से गायों से संबंधित 78 हिंसा (इसमें से 50 उत्तरी भारत के राज्यों में) हुई। लेकिन, 97 प्रतिशत हमले 2014 के बाद हुए। इन सभी घटनाओं में 29 लोगों को मौत के घाट उतार दिया गया। इनमें से ज्यादातर पीड़ित वे हैं, जो पारंपरिक रूप से मवेशी अर्थव्यवस्था पर निर्भर हैं। हालांकि, केंद्र सरकार ने संसद में ऐसे किसी भी आंकड़े से इनकार किया है।

पशुधन अर्थव्यवस्था का इतिहास ऐसे प्रतिबंधों की याद दिलाता है, जो ग्रामीण अर्थव्यवस्था में ऐसे बुनियादी परिवर्तन लाता है जो अक्सर ग्रामीण समुदायों के हित में नहीं होते। कई राज्यों में पशु वध पर प्रतिबंध लगाने को लेकर दशकों पुराने कानून हैं। इसने कई किसानों को भैंस पालन की ओर बढ़ाया। 1951 और 2012 में दो पशुधन जनगणना के बीच, मवेशियों की आबादी में 23 प्रतिशत की वृद्धि हुई, जबकि भैंस की आबादी में 150 प्रतिशत की वृद्धि हुई। उन राज्यों में अन्य मवेशियों की तुलना में भैंस की आबादी अधिक है, जहां कठोर गोहत्या निरोधी कानून है। उदाहरण के लिए, राजस्थान में 50 फीसदी पशुधन भैंस है, जबकि हरियाणा में 77 फीसदी, उत्तर प्रदेश में 61 फीसदी और पंजाब में 67 फीसदी। लेकिन केरल और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में जहां कठोर कानून नहीं है, वहां क्रमश: 93 प्रतिशत और 96.5 प्रतिशत गाय और बैल हैं। मवेशियों के व्यापार व आवाजाही पर छापे सामान्य (न्यू नॉर्मल) होते जा रहे हैं। गांव बदहाल आर्थिक क्षेत्र में तब्दील हो रहे हैं और गाय एक खारिज नस्ल बनती जा रही है।

खोआबास गांव इस बदलाव को दर्शाता है। गांव की चारागाह भूमि एक रक्षा परियोजना के लिए चिन्हित कर दी गई है। लोग अपने मवेशियों के चारागाह की तलाश में गांव के समानांतर चलने वाले राष्ट्रीय राजमार्ग के साथ 10 किमी तक जाते हैं। आमतौर पर इस दौरान गोरक्षकों द्वारा की जाने वाली छापेमारी होती है। चारे की बढ़ती कीमत के कारण स्टॉल फीडिंग (बांधकर खिलाना) महंगा है, जिसकी वजह से मवेशियों का पालन पोषण इस तरीके से किया जाना जरूरी हो गया है। खोआबास निवासी अबदल खान, जो रहमदीन की तरह कभी समृद्ध माने जाते थे, कहते हैं, “मैंने अपने 40 मवेशियों को छोड़ दिया। घर में केवल दो को रखा है।” वह अब अलवर शहर में निर्माण स्थल पर दिहाड़ी मजदूर का काम करते हैं। वह कहते हैं, “न तो मैं मवेशी बेच सकता हूं और न ही रख सकता हूं।” इसी तरह बद्दन खान ने भी 50 गायों को छोड़ने के बाद मवेशी पालन बंद कर दिया है।

अलवर शहर से 45 किलोमीटर दूर, साहूवास गांव के सुब्बा खान कर्ज के दलदल में फंसे हुए हैं। 3 अक्टूबर, 2017 को गोरक्षकों के साथ स्थानीय पुलिस ने अरावली पहाड़ियों पर चरते हुए उनके 51 मवेशियों को जब्त कर लिया। पुलिस ने उनके बेटे इमरान को गाय तस्करी के आरोप में गिरफ्तार भी किया। किशनगढ़बास पुलिस स्टेशन ने कोई मामला दर्ज तो नहीं किया, लेकिन स्थानीय श्रीकृष्ण गोशाला की देखरेख में मवेशियों को सौंप दिया। सुब्बा कहते हैं, “मैंने दुधारू गायों को छोड़ने की प्रार्थना की ताकि बछड़ों को दूध पिलाया जा सके, लेकिन न तो पुलिस और न ही गोशाला ने मेरी प्रार्थना पर ध्यान दिया। मैंने बछड़ों के लिए पांच लीटर दूध खरीदा लेकिन उससे कुछ नहीं हुआ। एक सप्ताह के बाद 20 बछड़ों की भूख से मौत हो गई।”

सुब्बा कहते हैं, “गोशाला ने मेरे मवेशियों को खिलाने के लिए दो लाख रुपए की मांग की। अधिकारियों के हाथ जोड़ने, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और वकीलों की सहायता से 51 मवेशियों को छोड़ दिया गया, वह भी इस बात का आधिकारिक प्रमाणपत्र देने के बाद कि वह तस्करी में शामिल नहीं था।” सुब्बा कहते हैं, “एक सप्ताह के भीतर आठ गायों की मौत हो गई। मैंने पूरी प्रक्रिया में लगभग 3 लाख रुपए गंवा दिए।” सुब्बा हर दिन लगभग 300 लीटर दूध का व्यापार करते थे जो अब घटकर 30-40 लीटर दूध का रह गया है। अब भी मवेशी पालन की हिम्मत दिखाने वाले सुब्बा असाधारण हैं। उनके गांव के 25 घरों ने मवेशी पालन छोड़ दिया है। उनमें से ज्यादातर मजदूरी के लिए अलवर, जयपुर या दिल्ली चले गए हैं। वह अब भी मवेशी पालन क्यों करते हैं? यह पूछने पर वह कहते हैं, “मैं अन्य व्यवसाय नहीं जानता।” उनके बड़े भाई पहले ही घाटे को पूरा करने के लिए दिहाड़ी मजदूरी की तलाश में पलायन कर चुके हैं।

व्यापार में सूक्ष्म व्यवधान धीरे-धीरे स्थूल प्रभाव दिखा रहा है। आधिकारिक आंकड़ों से पता चलता है कि राजस्थान के विभिन्न पशु मेलों में मवेशियों के व्यापार में 90 प्रतिशत तक की कमी आई है। 2012-13 में लगभग 54,000 मवेशी बिक्री के लिए लाए गए, जिनमें से 37,000 का कारोबार किया गया। साल 2016-17 तक यह संख्या 2,000 और 500 के आसपास आ गई। लोकप्रिय पुष्कर मेले में 2017 में केवल 161 मवेशियों को व्यापार के लिए लाया गया था और केवल आठ बेचे गए।

मवेशी अर्थव्यवस्था देश के सबसे गरीब लोगों के सर्कुलर अर्थव्यवस्था का एक आदर्श उदाहरण है। गायों को दूध देने तक उत्पादक माना जाता है। वे तीन से 10 साल की उम्र तक दूध देती हैं, लेकिन 15-18 साल तक जीवित रहती हैं। एक बार उत्पादकता आयु समाप्त हो जाने के बाद मालिकों के लिए वे अनुत्पादक होती हैं। अधिकांश इन गायों की बिक्री करते हैं। यह माना जाता है कि जो लोग इन्हें खरीदते हैं, वे इनके मांस का व्यापार करते हैं। इससे होने वाली कमाई नए मवेशियों की खरीद में लगती है और इस तरह गरीबों की अर्थव्यवस्था आत्मनिर्भर बनती है।

पूर्ववर्ती योजना आयोग के पूर्व सदस्य किरीट पारिख के अनुसार, अनुत्पादक गायों की संख्या कुल गाय की आबादी का सिर्फ 1-3 प्रतिशत है। पारिख के अनुसार, 10 वर्ष से अधिक आयु के बैल/सांड की संख्या कुल बैल/सांड की संख्या का सिर्फ 2 प्रतिशत ही है। एक गाय अपने जीवनकाल में कम से कम चार से पांच किसानों के घरों से होकर गुजरती है। इससे मवेशियों के नस्ल सुधार में मदद मिलती है। यह बताता है कि किसान उत्पादक और गैर-उत्पादक मवेशियों के बीच संतुलन कैसे बनाते हैं। इसके अलावा, कृषि क्षेत्र की तुलना में पशुधन बड़ी अर्थव्यवस्था है। हालांकि कृषि क्षेत्र का उल्लेख करते हुए दोनों को जोड़ा जाता है। किसानों की आय दोगुनी करने के लिए गठित सरकारी समिति का कहना है कि कृषि संकट के खिलाफ सबसे अच्छा बीमा पशुधन क्षेत्र से मिलने वाली निरंतर आय स्रोत है और यह फसल क्षेत्र की तुलना में अधिक बार आय उत्पन्न करता है। इस समिति ने बताया कि पिछले 35 वर्षों से पशुधन उप-क्षेत्र ने कभी भी नकारात्मक वृद्धि की सूचना नहीं दी है। अब, यह सर्कुलर अर्थव्यवस्था बदहाल हो रही है।


पेट पर लात

अलवर और आसपास के जिलों के कई दूध संग्राहक दूध उत्पादन में गिरावट की बात करते हैं। गाजौद गांव के एक दुग्ध संग्रहकर्ता शहाबुद्दीन की आमदनी पिछले दो वर्षों के मुकाबले आधी रह गई है। शहाबुद्दीन कहते हैं, “मैंने तीन साल पहले पांच गांवों से 800 लीटर दूध इकट्ठा करने के लिए पांच लोगों को नौकरी दी थी। 2018 में दूध की वह मात्रा एक चौथाई रह गई है।” वह हिचकिचाते हुए कहते हैं कि लोगों के पास अब गायों की संख्या कम है। वह अब खुद दूध एकत्र करते हैं। निवासियों का कहना है कि सिर्फ तीन साल पहले हर गांव में पांच से 10 दूध एकत्र करने वाले होते थे। यह भारत के 6.14 लाख करोड़ (2016-17 का अनुमान) से अधिक के डेयरी उद्योग के लिए एक डरावनी चेतावनी हो सकती है, जिसमें 7.3 करोड़ छोटे और सीमांत डेयरी किसान शामिल हैं। दिल्ली की डेयरी कंपनी क्वालिटी लिमिटेड के चेयरमैन आरएस खन्ना कहते हैं, “सरकार के लिए इसे जल्दी समझना और ऐसे कानूनों से पीछे हटना बेहतर होगा, जिससे डेयरी विकास में बाधा आती है।”

हरियाणा में गोरक्षकों द्वारा की जा रही छापेमारी और पशु-वध के कड़े कानून के कारण न केवल स्थानीय अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचा है, बल्कि मांस और अन्य पशुधन व्यवसायों पर भी बुरा प्रभाव पड़ने की उम्मीद है। 50 साल के नूरुद्दीन पहले बकरी पालन करते थे, अब दिहाड़ी मजदूर हैं। चाय की दुकान पर बैठे नूरुद्दीन कहते हैं,“ छोटी सी पिकअप वैन में पशु चिकित्सक, चारा और पानी की टंकी कैसे रख सकते हैं? वह साप्ताहिक फिरोजपुर झिरका पशु बाजार में आने वाले भैंसों पर पहचान चिह्न लगाते हैं। इससे उन्हें सप्ताह में दो बार प्रतिदिन 200 रुपए मिलते हैं। वह कसाई की दुकान पर भी काम करते हैं। उनकी कुल मासिक कमाई लगभग 3,000 रुपए है। यह कमाई पिछले साल तक की उनकी कमाई का सिर्फ 20 प्रतिशत है। इस पशु बाजार से 35 किलोमीटर दूर, नूह के रेहनटापर गांव के नूरूद्दीन कहते हैं, “सरकार मवेशियों के व्यापार को प्रतिबंधित करती है। लेकिन बकरे के मांस कारोबार का गला क्यों घोंट रही है?” यह साप्ताहिक बाजार दो हेक्टेयर क्षेत्र में फैला है, जहां प्रति सप्ताह 1,500 से अधिक मवेशियों और भैंसों को लाया जाता है। नूंह नगरपालिका ने पिछले साल 2.11 करोड़ रुपए का अनुबंध जारी किया था। लेकिन पिछले एक साल से मवेशियों, भैंसों और बकरियों का व्यापार काफी धीमा हो गया है।

कोई यह तर्क दे सकता है कि मेवात देसी मवेशियों का गढ़ है, जो तेजी से घटती नस्ल है। 19वीं पशुधन जनगणना के अनुसार, हरियाणा में देसी मवेशियों में सालाना 18 प्रतिशत की गिरावट आ रही है। नर मवेशी में गिरावट दर 21 फीसदी है जबकि मादा मवेशियों के लिए यह 15 फीसदी है। मेवात में क्रॉस-ब्रीड (या विदेशी) मवेशी की संख्या राज्य में सबसे कम है। राज्य की 10 लाख विदेशी मवेशियों की आबादी की तुलना में यह सिर्फ 15,000 है। दूसरी ओर, मेवात में ही अकेले 33,000 से अधिक देसी नस्ल के मवेशी हैं। इसका अर्थ है कि यहां के समुदाय जीवित रहने के लिए स्वदेशी नस्ल पर निर्भर हैं। तो फिर गाय कहां हैं?

2015 में, राज्य ने कड़े हरियाणा गोवंश संरक्षण और गोसंवर्धन अधिनियम, 2015 को लागू किया। यह कानून राज्य में गोहत्या, खपत, बिक्री और भंडारण पर प्रतिबंध लगाता है। अधिनियम का उल्लंघन करने पर तीन से 10 साल तक का सश्रम कारावास और 30 हजार से लेकर 1 लाख रुपए के बीच जुर्माने का प्रावधान है। इस वजह से अधिकांश व्यापारियों ने पशु व्यापार छोड़ दिया है। मेवात जिले के कृषि अधिकारियों ने ऐसे बाजारों में पशु व्यापार से संबंधित आंकड़े डाउन टू अर्थ को नहीं दिखाए। लेकिन एक अधिकारी ने नाम गुप्त रखने की शर्त पर बताया कि व्यापार में करीब 80 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई है। व्यापारी भैंसों का व्यापार सीमित मात्रा में कर रहे हैं और मवेशियों का व्यापार लगभग खत्म हो गया है। मवेशियों का व्यापार करने वाले नूर शाह कहते हैं, “गांवों में भी मवेशी मिलना बेहद मुश्किल है। इनके व्यापार से जुड़े लोगों में डर है कि कहीं उन्हें इसके लिए दंडित न कर दिया जाए।”

नया कानून बनने के एक साल बाद सरकारी कार्रवाई की अफवाह मवेशी पालने वालों के बीच जंगल में आग ही तरह फैली है। अहमदबास के ग्रामीण कहते हैं कि अक्टूबर 2017 में गाय की आबादी का सर्वेक्षण करने अधिकारी आए थे। हालांकि जिले के अधिकारी सर्वेक्षण से इनकार करते हैं। गोरक्षकों के डर से स्थानीय निवासियों ने मवेशियों को खुला छोड़ दिया। अहमदबास के ग्रामीण खालिद कहते हैं, “यह खबर तेजी से फैल गई और आसपास के गांवों में भी लोगों ने अपनी गाय त्याग दीं।”

यह जिले के ग्रामीण समुदाय के लिए किसी दोहरे झटके से कम नहीं था। सामाजिक-आर्थिक जाति सर्वेक्षण 2011 के अनुसार, विकास के सभी संकेतकों मसलन अर्थव्यवस्था, स्वास्थ्य और शिक्षा के मामले में जिला सबसे निचले पायदान पर है। करीब 70 प्रतिशत परिवारों की मासिक आय 5,000 रुपए से कम है। करीब 50 प्रतिशत परिवार दिहाड़ी मजदूरी करते हैं। सरकारी और प्राइवेट नौकरियों में जिले का प्रतिनिधित्व सबसे कम है। इन गांवों में रहने वाले अधिकांश लोगों की आय का मुख्य स्रोत मवेशी हैं। इसलिए बकरियों के व्यापार से हर महीने 25,000 रुपए कमाने वाले नुरूद्दीन को हुई आर्थिक क्षति को आसानी से समझा जा सकता है। उनकी यह कमाई पूरी तरह बंद हो चुकी है।

नूरूद्दीन बताते हैं, “2018 की ईद से एक दिन पहले मैं 30 बकरियों को पिकअप वैन में लेकर गुरूग्राम जा रहा था। सोहना रोड पर पुलिस ने उनकी वैन रोक ली और सभी बकरियों को पशु क्रूरता कानून का हवाला देकर जब्त कर लिया।” निराश नूरूद्दीन कहते हैं, “मुझे कहा गया कि मैं केवल 17 बकरियां लेकर जा सकता हूं और टेंपो के साथ एक डॉक्टर, चारा और पानी भी होना चाहिए।” पुलिस थाने से बकरियों को छुड़ाने में उन्हें 15 दिन लगे। थाने में देखभाल के अभाव में 19 बकरियां मर गईं, छह जिंदा बचीं और बाकी गायब हो गईं! गुस्से में बीड़ी जमीन में रगड़कर बुझाते हुए नूरूद्दीन कहते हैं, “इससे मुझ पर दो लाख रुपए का कर्ज हो गया और मेरा परिवार सड़क पर आ गया। बाद में किसी तरह हिम्मत जुटाकर फिर से बकरियों के कारोबार में आया।”

चमड़ा उद्योग पर असर

बूचड़खानों पर प्रतिबंध और गोरक्षकों की संख्या बढ़ने से कानपुर के चमड़ा उद्योग की भी कमर टूटी है। उत्तर प्रदेश में 1,000 में एक काम गाय से संबंधित उद्योग से जुड़ा है। इनमें बूचड़खाने और चमड़ा उद्योग मुख्य हैं। लघु टेनरीज संघ के अनुमान के अनुसार, अवैध बूचड़खानों से लघु व मध्यम उद्यम को करीब 40 और बड़े उद्योगों को 10-20 प्रतिशत चमड़ा प्राप्त होता है। अकेले कानपुर में चमड़ा व्यवसाय करीब पांच लाख लोगों को रोजगार मुहैया कराता है।

द जाजमऊ टेनरी एफ्लुएंट ट्रीटमेंट असोसिएशन (जेटीईटीए) का दावा है कि टेनरियों की संख्या में तेजी से गिरावट हुई है। असोसिएशन के अनुसार, 2016 में लघु, मध्यम और बड़े चमड़ा उद्योगों की संख्या 402 थी। अब केवल 146 ही बचे हैं। असोसिएशन से जुड़े जाजमऊ के लघु टेनरी उद्यमी नैयर जमाल बताते हैं, “यहां हजारों की संख्या में असंगठित छोटे चमड़ा उद्योग थे। प्रत्येक उद्योग में तीन से चार लोग काम करते थे। ये अब बंद हो चुके हैं।” चमड़ा निर्यात परिषद के आंकड़े बताते हैं कि परिष्कृत चमड़े का निर्यात राजस्व कम हुआ है। भारत 2014-15 में चमड़े के निर्यात से 8,126 करोड़ रुपए राजस्व प्राप्त हो रहा था जो 2016-17 में घटकर 5,961 करोड़ रुपए पर पहुंच गया है।



2014-15 और 2016-17 की अवधि में चमड़े के कपड़ों, वस्तुओं और साजो सज्जा के सामान से प्राप्त होने वाले निर्यात राजस्व में भी गिरावट हुई है। इस अवधि में गैर चमड़े जूते-चप्पलों से प्राप्त होने वाले राजस्व में बढ़ोतरी हुई है। यह 1,873 करोड़ रुपए से बढ़कर 2,280 करोड़ रुपए हो गया है। लेकिन सरकार यह मानने को तैयार नहीं है कि अवैध बूचड़खानों और गोरक्षकों के कारण चमड़े की आपूर्ति कम हुई है। सरकार इसके पीछे बाहरी कारण मसलन यूरोपीय बाजारों में मंदी और मध्य एशिया में अस्थिरता जैसे कारण गिनाती है।

पशुधन अर्थव्यवस्था इस वक्त दोराहे पर खड़ी है। यह अर्थव्यवस्था कृषि और ढुलाई से दुग्ध उत्पादन में परिवर्तित हो रही है। इसकी एक वजह यह भी है कि 1970 के दशक के बाद से कृषि का मशीनीकरण हुआ है। खेती में पिछले चार दशकों में मशीनों ने भार ढोने वाले मवेशियों की जगह ले ली है। नेशनल सैंपल सर्वे ऑफिस के आंकड़े बताते हैं कि 1971-2012 के दौरान ग्रामीण क्षेत्रों में मवेशियों की संख्या 18 प्रतिशत कम हुई है। इस कालखंड में यह संख्या 16.9 करोड़ से घटकर 13.5 करोड़ पर पहुंच गई है। खेती में मशीनों का चलन बढ़ने के साथ ही भार ढोने वाले मवेशी अनुत्पादक और बेकार हो गए। इसी के साथ ज्यादा दूध देने वाली गायों की नस्लों पर ध्यान दिया जाने लगा। 2007-12 के बीच दुधारू नस्लों में 28 प्रतिशत से अधिक की बढ़ोतरी हुई।

किसानों की अर्थव्यवस्था के लिए इन उत्पादक मवेशियों को पालना फायदे का सौदा था। लेकिन तेजी से बढ़ती इस अर्थव्यवस्था के सामने भी चुनौतियां हैं। वर्ल्ड एनिमल प्रोटेक्शन रिपोर्ट 2010 के अनुसार, संपूर्ण भारत की डेरी फार्म में 5 करोड़ गाय अस्वीकार्य परिस्थितियों की शिकार हैं। ये गाय अत्यधिक प्रजनन, घटिया आवास, एकांतवास, अत्यधिक दवाओं और अल्पायु की समस्या से जूझ रही हैं। अनुत्पादक उम्र में प्रवेश करने के पश्चात इनमें से अधिकांश को त्याग दिया गया है। 19वीं पशुधन जनगणना के अनुसार, देश में 53 लाख आवारा मवेशी हैं। 10 लाख आवारा मवेशियों के साथ ओडिशा इस मामले में पहले स्थान पर है। इसके बाद उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल और गुजरात का स्थान आता है। इन राज्यों में गोरक्षकों ने पकड़ बना ली है। अनुत्पादक मवेशियों को त्यागा जा रहा है। गाय को पालने की लागत क्षेत्र दर क्षेत्र और नस्ल पर निर्भर करती है। डाउन टू अर्थ ने मथुरा स्थित गो अनुसंधान संस्था के साथ मिलकर दुधारू गाय पालने की लागत और उससे मिलने वाले लाभ का आकलन किया है। इसके अनुसार, एक साहीवाल गाय से 85 रुपए प्रतिदिन की आय हो सकती है लेकिन एक अनुत्पादक मवेशी से 60 रुपए प्रतिदिन का नुकसान होता है (देखें, लाभ का गणित, पेज 31)। इसका तात्पर्य यह है कि 53 लाख आवारा मवेशियों को पालने की लागत करीब 11,607 करोड़ रुपए होगी।

पहले से ही दयनीय हालात के बीच मवेशियों को त्यागने से समस्या और विकराल हो रही है। गांवों और नगरों में आवारा मवेशियों का आतंक बढ़ा हुआ है। यह इस हद तक बढ़ गया है कि राज्यों को उन्हें रहने की जगह मुहैया कराने के लिए कर लगाना पड़ रहा है। ऐसा उन राज्यों में अधिक हो रहा है जहां मवेशियों पर पाबंदी और उससे जुड़ी हिंसक घटनाएं हो रही हैं। बहुत से लोग इसे पशु व्यापार पर लगे प्रतिबंध के मद्देनजर उन्हें त्यागने से जोड़ रहे हैं। इसे समझने के लिए उत्तर प्रदेश के दौरे पर चलते हैं।

पहरे में खेत

लखीमपुर जिले के निजामपुर गांव में रात के सन्नाटे में एक अजीब-सी बेचैनी है। गांव के पुरुष जाग रहे हैं। उनका पूरा ध्यान गांव से गुजरने वाले ट्रैक्टरों पर है। तभी अचानक शोर-शराबा होता है और गांव के पुरुष एक हाथ में डंडे, तलवारें, लोह की छड़ें और दूसरे हाथ में टॉर्च लेकर एक खेत की तरफ दौड़ने लगते हैं और मवेशियों के एक झुंड को खदेड़ देते हैं। इन मवेशियों को कुछ लोगों ने त्याग दिया है। ग्रामीण मुकेश सिंह बताते हैं, “हम सुनिश्चित करते हैं कि दूसरे गांव प्रभावित न हों अन्यथा पिछले कुछ सालों जैसा हिंसक संघर्ष हो सकता है।”

यह भी देखा जा रहा है कि एक के बाद एक गांव खेतों की घेराबंदी कर रहे हैं। मुकेश हरदोई जिले बुराहगांव के सीमांत किसान हैं। उनकी डेढ़ हेक्टेयर की रबी फसल आवारा मवेशी तबाह कर चुके हैं। अब वह एक खेत की चौकीदारी कर रहे हैं। उन्हें कहा गया है कि फसल कटने पर उन्हें 150 किलो गेहूं मिलेंगे। आवारा मवेशियों के हमले से वह घायल हो चुके हैं और मालिक ने उनका इलाज करवाया है। इलाज पर आए खर्च के कारण मालिक ने अब गेहूं की मा़त्रा घटाकर 100 किलो कर दी है।

बहुत से गांवों ने आवारा मवेशियों के आतंक के बचने और पहरेदारी के लिए समितियों का गठन किया है। सोनसारी गांव के किसान विनय शुक्ला बताते हैं, “ट्रैक्टर की आवाज से हम जाग जाते हैं, फिर उस ट्रैक्टर की तरफ भागते हैं और ट्रॉलियों की जांच करते हैं।” सबसे तकलीफदेह बात यह है कि अनिवार्य हो चुकी बाड़बंदी से खेती की लागत बढ़ गई है। 0.4 हेक्टेयर के खेत की बाड़बंदी का खर्च 8-10 रुपए बैठता है। सरकारी अनुमान की मानें तो यह हर महीने 6,200 रुपए कमाने वाले सीमांत किसान के लिए भी यह मुश्किल है। इसमें मरम्मत की लागत भी जुड़ती है क्योंकि मवेशी बार-बार बाड़बंदी को नुकसान पहुंचाते हैं। बहुत से परिवार ऐसे हैं जो यह खर्च झेलने की स्थिति में नहीं हैं। वे अक्सर मवेशियों के समूह से पूरी खेती नष्ट होने की शिकायत करते रहते हैं। सीतापुर जिले के नौवानपुर गांव में रहने वाली नुसरत जहां भी ऐसे ही लोगों में शामिल हैं।

वह बताती हैं, “पिछले एक साल में मैंने पूरा फसल चक्र नहीं देखा है क्योंकि बीच में ही मवेशी खड़ी फसल बर्बाद कर देते हैं।” उन्होंने अप्रैल 2017 में गन्ने उगाए थे। जब इसकी जड़ें जम रही थीं तभी सैकड़ों आवारा मवेशियों ने खेत चर लिया। जुलाई में उन्होंने धान की रोपाई की। मॉनसून के अंत में उनकी यह फसल भी मवेशियों की भेंट चढ़ गई। इसी बीच वह गेहूं की दो फसलें भी नष्ट होते हुए देख चुकी हैं। कर्ज के दुष्चक्र में फंसने की कगार पर खड़ी नुसरत बताती हैं, “हमने 10 हजार रुपए लगाकर खेतों की बाड़बंदी की।” उन्होंने यह रकम स्थानीय साहूकर से ब्याज पर ली है। उनके 70 वर्षीय पति बिस्तर पर लेटे हैं और सरकार से मदद की आस लगाए बैठे हैं।

जो लोग अपने खेतों में बाड़बंदी कराने में असमर्थ हैं वे चौबीसों घंटे खेतों की रखवाली करते हैं। सुनीता देवी बताती हैं, “हम कंटीली तार लगाने का खर्चा नहीं उठा सकते।” वह पूरे दिन अपने दो छोटे बच्चों के साथ खेत की रखवाली करती हैं। रात में इस काम का जिम्मा उनके पति बृजेश अरक पर है। सुनीता देवी को हाल ही में उस वक्त दिल का दौरा पड़ा है जब गन्ने के खेत की रखवाली के दौरान आवारा मवेशियों ने हमला कर दिया। खेती से आमदनी की उम्मीद खो चुका उनका एक बेटा अपने परिवार की मदद के लिए दिहाड़ी मजदूरी करता है। बृजेश अरक कहते हैं, “मेरे अंदर अब इतनी हिम्मत नहीं बची है कि खेती में और पूंजी लगा सकूं।” खेती के स्थान पर अब वह एक दूसरे किसान के खेत की चौकीदारी कर रहे हैं। इसके एवज में उन्हें 1,500 रुपए हर महीने मिलते हैं।



बोझ का स्थानांतरण

निजामपुर गांव से करीब 100 किलोमीटर पूर्व में नेपाल की सीमा से लगा सेमरी गांव है। सेमरी गांव ने मवेशियों के हमले से बचने के लिए एक योजना बनाई है। ग्रामीणों ने 3 अप्रैल 2018 को एक बैठक बुलाई। आवारा मवेशियों के आतंक से संबंधित निर्णय लेने के लिए सभी किसान और कृषि श्रमिक एकत्रित हुए। गांव में ऐसी बैठक दुर्लभ थी जिसने हजार से ज्यादा लोगों का ध्यान खींचा हो। गर्मागर्म बहस के बाद सब इस नतीजे पर पहुंचे कि समस्या से निजात पाने के लिए बड़े कदम उठाने होंगे। वह बड़ा कदम था आवारा मवेशियों को पड़ोसी देश नेपाल में छोड़ना। इस योजना को अमलीजामा पहनाने के लिए स्थानीय लोगों ने घरों से 37 हजार रुपए इकट्ठे किए। इन रुपयों से 22 ट्रैक्टर किराए पर लेकर 255 आवारा मवेशियों को लाद गया और उन्हें सीमा की ओर रवाना किया गया। इस घटनाक्रम के आयोजक किसान जयशंकर मिश्रा बताते हैं, “40 मोटरसाइकल में करीब 100 लोग नेपाल से लगने वाले जंगल में साथ गए।” ये सभी लोग हथियारों से लैस थे ताकि किसी भी टकराव की स्थिति से निपटा जा सके। अंततः मवेशियों को कतर्नियाघाट वन्यजीव अभ्यारण में छोड़ दिया गया। यह दुधवा नेशनल पार्क को नेपाल के बर्दिया नेशनल पार्क से जोड़ता है।

जब मवेशियों को साल और टीक के घने जंगलों में छोड़ा जा रहा था, तभी नजदीकी गांव गजियापुर के ग्रामीण आ गए और विरोध करने लगे। ग्रामीणों ने मवेशियों को पकड़कर रेलवे ट्रैक से बांध दिया। अभ्यारण्य क्षेत्र में तीखी बहस के बाद हिंसक संघर्ष शुरू हो गया। इसी दौरान एक ट्रेन आ गई और 30 से ज्यादा मवेशी उसकी चपेट में आ गए। बाद में सभी मौके से फरार हो गए। इस मामले की सूचना पुलिस को नहीं दी गई लेकिन एक स्थानीय अखबार ने इस संबंध में छोटी सी खबर जरूर प्रकाशित की। बहुत से गांव मवेशियों को इसी तरह नेपाल पहुंचा रहे हैं। नेपाल सीमा के पास खीरी में रहने वाले बीजेपी से जुड़े आलोक मिश्रा कहते हैं, “इससे दो फायदे होते हैं। एक, गांवों में तनाव की स्थिति नहीं बनती और दूसरा हिंदू देश नेपाल में मवेशी भी सुरक्षित रहते हैं। सीमावर्ती जिलों खीरी, बहराइच और श्रावस्ती में ऐसा बड़े पैमाने पर हो रहा है।”

उधर, नेपाल के सीमावर्ती गांवों में आवारा मवेशियों की समस्या विकराल होती जा रही है। भारतीय सीमा से 3 किलोमीटर की दूरी पर स्थित नेपाल के धानगढ़ी के जुगेरा गांव में रहने वाली 50 वर्षीय कीडी देवी भारतीय हालात से अनजान हैं। वह अपने 0.2 हेक्टेयर के गेहूं के खेत को आवारा पशुओं से बचाने के लिए पहरा दे रही हैं। कुछ महीने पहले ऐसे हालात नहीं थे। वह तब हैरान हो गईं जब पशुओं के झुंड खेतों में दाखिल होने लगे। उन्होंने कल्पना भी नहीं की थी कि एक दिन भारत के मवेशी उनकी खाद्य सुरक्षा को संकट में डाल देंगे।

उनका दावा है, “अधिकांश मवेशी भारत के जंगल से आ रहे हैं।” उनके पति पराने कामे रात में पहरा देने के बाद चार घंटे की नींद लेकर उठे हैं। वह बताते हैं कि नेपाल में पहले से आवारा मवेशियों की समस्या है लेकिन पिछले एक साल में यह बढ़ गई है। बुजुर्ग महिला रानी गुस्से में कहती हैं, “भारत अपने मवेशियों को यहां क्यों भेज रहा है? वह कहती हैं, “बाजार, सड़कों और खेतों में आवारा मवेशियों की भारी मौजूदगी ने हमारा जीना मुहाल कर दिया है।” नेपाल में भारत की सीमा से लगा एक दूसरा इलाका है कैलाली। यहां के ग्रामीण भी आवारा मवेशियों की समस्या से जूझ रहे हैं। ग्रामीणों को नहीं पता कि ये मवेशी क्यों और कहां से आ रहे हैं। वे भी इन्हें दूसरे गांवों में हांक रहे हैं। भारत और खासकर उत्तर प्रदेश में बूचड़खानों को बंद करने का असर नेपाल के किसानों पर पड़ रहा है। धानगढ़ी में सरकारी अखबार में काम करने वाले शेर बहादुर कहते हैं, “उत्तर प्रदेश में नई सरकार आने के बाद बहुत से बूचड़खानों को बंद कर दिया है। इस कारण वहां मवेशियों की आपूर्ति नहीं हो पा रही है।” पहले नेपाल के किसान भारत के व्यापारियों को मवेशी बेचते कुछ धन अर्जित कर लेते थे। दरअसल नेपाल में भी गोवध पर रोक है। उत्तर प्रदेश में भी गोवध पर रोक लगने से नेपाल के लोगों को दोहरा नुकसान पहुंच रहा है।

आवारा मवेशियों की चुनौती से निपटने के लिए नेपाल की सरकार धानगढ़ी, अटरिया, भूमदत्त, शुक्लाकांता, लमकी और टीकापुर आदि नगरपालिकाओं में गोशाला बनाने पर भारी धनराशि खर्च कर रही है। धानगढ़ी में वरिष्ठ पत्रकार लोकेंद्र बिष्ट बताते हैं कि गोशालाओं और उनके प्रबंधन के लिए 10 करोड़ नेपाली रुपए का बजट आवंटित किया गया है।



एक और डर

मवेशी पालकों पर अब तीसरी मार भी पड़ रही है। एक के बाद एक सरकारें उन किसानों को दंड़ित करने के लिए कानून बना रही हैं जो मवेशियों को खुला छोड़ रहे हैं। मध्य प्रदेश सरकार ने भारतीय दंड संहिता के तहत गाय त्यागने को दंडनीय अपराध बना दिया है। जिला कलेक्टर को गाय के मालिक पर केस दर्ज कराने की शक्ति दी गई है। हरियाणा में गाय त्यागने पर 5,100 रुपए जुर्माने के तौर पर वसूलने का प्रावधान है। हाल ही में उत्तर प्रदेश में लोगों ने सरकारी परिसर में मवेशियों को छोड़ दिया था और ताला लगा दिया था। इसके बाद मुख्यमंत्री ने जिला कलेक्टर को आदेश दिया कि ऐसा करने वालों के खिलाफ कार्रवाई की जाए।

ये तमाम घटनाक्रम ऐसे समय में हो रहे हैं जब मवेशियों का आतंक फैला हुआ है। उत्तर प्रदेश सरकार ने प्रत्येक नगरपालिका को आवारा मवेशियों के प्रबंधन के लिए 11 करोड़ रुपए आबंटित किए हैं। साथ ही मुख्य सचिव की अध्यक्षता में एक समिति गठित की गई है जो आवारा मवेशियों के प्रबंधन में वित्तीय मदद मुहैया कराएगी। मध्य प्रदेश की विधानसभा में भी आवारा मवेशियों और बुंदेलखंड जैसे सूखा प्रभावित क्षेत्रों में फसलों को हुए नुकसान पर चर्चा हो रही है। हरियाणा सरकार ने 26 जनवरी 2019 तक राज्य को आवारा मवेशियों से मुक्त करने का लक्ष्य रखा है।

लेकिन बड़ा सवाल यह है कि क्या इससे गाय का संरक्षण होगा? जवाब है “नहीं”। तमाम प्रतिबंध और संरक्षण के प्रयास शुद्ध रूप से आस्था और भावनाओं पर आधारित हैं। ये गाय को एक खारिज नस्ल बना देंगे। इसके संकेत अभी से मिलने भी लगे हैं। लोग आर्थिक रूप से महत्वपूर्ण मवेशी मसलन गाय को पालना छोड़ रहे हैं। इन्हें त्यागने पर दंड का प्रावधान ताबूत में आखिरी कील ही साबित होगा। एक पशुपालक मवेशी का त्याग इसलिए करता है क्योंकि उसकी उत्पादक उम्र पूरी हो जाती है और उसे पालना भारी पड़ता है। इस अवस्था में सबसे अच्छा विकल्प यही होता कि उसे बेच दिया जाए। बेचने वाले को इसकी चिंता नहीं होती कि खरीदार उसके साथ क्या करेगा। व्यापार पर लगे हालिया प्रतिबंध ने पशु के मालिक के आगे यही सबसे आसान विकल्प छोड़ा है कि उसे त्याग दिया जाए। अब ऐसा करना भी अवैध हो रहा है। ऐसे में वे करें तो क्या करें? पूरी संभावना है कि वे पशु पालना ही बंद कर देंगे। यह केवल अटकल नहीं बल्कि वास्तविकता के बेहद करीब है।