महिलाओं को भूमि अधिकार सुनिश्चित करना और किसान के रूप में वैधानिक मान्यता देना – समाज और सरकार के समक्ष सदियों से लंबित है। ऐसा हो सकने और न हो सकने के मध्य, इस देश की आधी आबादी अर्थात महिलाएं, अपने तमाम अधिकारों के प्रति (अ)सामाजिक अस्वीकृति की आखेट हैं, जिसे औसत रूप से सामाजिक - संहिता (और कुछ हद तक सामाजिक मान्यता) मान लिया गया।
महिलाओं को अधिकार देने का अर्थ और परिणाम, पुरुषप्रधान समाज को कमजोर कर देना होगा, यह असुरक्षा की भावना और संभावना – सामाजिक और राजनैतिक जड़ता के रूप में लगभग स्थायी हो चुकी है।
यही कारण है कि ‘संपत्ति के अधिकार’ के कानून अथवा ‘महिला कृषकों’ के लिए सरकारी योजनाओं का पिटारा – कोई भी समाज और सरकार की सोच और सफलता को प्रभावित, लगभग नहीं ही कर पाया है। विडंबना ही है कि स्वाधीनता के स्वर्णकाल में महिलाओं के भूमि अधिकार तय करना या न करना - एक अदद सवाल तक नहीं बन पा रहा है।
भारत में स्वाधीनता के बाद से ही महिलाओं के भूमि अधिकार अथवा महिला किसानों के अधिकार - निर्णायक विषय न बन पाने के अनेक कारणों में से एक महत्वपूर्ण पक्ष 'महिलाओं के कमतर राजनैतिक प्रतिनिधित्व और प्रभुत्व' से समझा जा सकता है। स्वाधीन भारत के प्रथम संसदीय चुनाव (1952) में निर्वाचित महिला सांसदों का संख्याबल 24 (4 प्रतिशत) था, जो वर्ष 2024 के लोकसभा चुनावों में 74 सांसदों (14 प्रतिशत) तक तो पहुंचा, लेकिन यह महिलाओं के अधिकारों को स्थापित करनें वाले आवश्यक - संख्यात्मक संसदीय जनादेश के लिये पर्याप्त नहीं है।
ज़ाहिर है, संसद में निर्वाचित महिला सांसदों का यह कमतर अनुपात, महिला अधिकार केंद्रित विषयों पर संसदीय निर्णयों अथवा कानूनों की स्थापना के लिए अपर्याप्त है। वर्ष 2011 में डॉ स्वामीनाथन द्वारा संसद में आधी आबादी के अधिकारों के लिए प्रस्तुत 'महिला कृषक हकदारी क़ानून' के प्रस्ताव पर पर्याप्त राजनैतिक चर्चा और निर्णय न हो पाना - बहुसंख्यक पुरुष प्रधान संसदीय मानसिकता का जगजाहिर उदाहरण है।
सवाल है कि - क्या पुरुषप्रधान संसद, कभी महिलाओं के भूमि अधिकारों और महिला किसानों के अधिकारों के क़ानून पारित करेगा? विगत 75 बरसों के संसदीय इतिहास का सरल उत्तर तो 'नहीं' है। तो क्या यह मान लेना चाहिए कि राजनैतिक दलों में महिलाओं का (अनुपातिक रूप से) आधा प्रतिनिधित्व न हो जानें तक अर्थात निर्णायक संसदीय भागीदारी न होनें तक, महिलाओं के अधिकारों के प्रयासों को निर्णायक नहीं माना जा सकता ?
महिला अधिकारों के प्रति संवेदनशील होने और होते हुए दिखाई देने के मध्य, वास्तव में वह पुरुषकेंद्रित व्यवस्था है जो अब तक - महिलाओं के भूमि अधिकारों और महिला किसानों के सवालों को समाज की ओर धकेलता रहा है।
सवाल यह भी है कि - क्या आधी आबादी का आधा (संख्यात्मक) प्रतिनिधित्व महिलाओं के भूमि और किसानी के अधिकारों के पारित होने की पहली संसदीय शर्त है? संसद के लिये निर्वाचित महिलाओं के प्रतिनिधित्व का शोचनीय अनुपात यह कहता है कि – ‘हाँ’ जब तक महिला सांसदों का प्रतिनिधित्व संख्याबल की दृष्टि से आधा नहीं हो जाता, तब तक महिला भूमि अधिकारों और महिला किसानों के अधिकारों से जुड़े वैधानिक प्रस्तावों की राजनैतिक अवमानना जारी रहेगी। पुरुषप्रधान राजनैतिक दल इस सत्य को भी खारिज़ ही करेंगे।
वर्ष 2024 के संसदीय चुनावों के बाद महिला सांसदों का प्रतिनिधित्व मात्र 14 प्रतिशत ही है - इसीलिये उनके दायित्व और प्रतिनिधित्व का भार, निर्वाचित पुरुष सांसदों से कहीं अधिक हैं। भारत की मौजूदा जनसँख्या के अनुसार, लोकसभा में एक निर्वाचित सांसद औसतन 26 लाख लोगों का प्रतिनिधित्व करता है, वहीं एक निर्वाचित महिला सांसद (आनुपातिक प्रतिनिधित्व की दृष्टि से) औसतन 92 लाख महिलाओं का प्रतिनिधित्व करतीं हैं।
ऐसे में निर्वाचित महिला सांसदों का राजनैतिक दायित्व भी कहीं अधिक है। इसका अर्थ यह भी है कि 14 प्रतिशत संख्याबल के साथ, उनका महिला भूमि अधिकारों और महिला किसानों के अधिकारों को स्थापित करना चुनौतीपूर्ण, लेकिन महिला अधिकारों की दृष्टि से ऐतिहासिक होगा।
ग़ौरतलब है कि भारत गणराज्य की विधानसभाएं भी पुरुषप्रधान राजनैतिक प्रतिनिधित्व और निर्णयों का (अ)लोकतांत्रिक संस्थाएं बनीं हुईं हैं। इक्कीसवीं सदी की एक लंबी दूरी तय करनें के बाद भी तथाकथित प्रगतिशील समाज और परिवर्तनों के लिये तथाकथित प्रतिबद्ध सरकारें - विधानसभाओं में निर्वाचित महिला विधायकों के प्रतिनिधित्व को नहीं बढ़ा पाई हैं।
आज छत्तीसगढ़ एकमात्र राज्य है जहाँ - महिला विधायकों का प्रतिनिधित्व पूरे देश में अव्वल अर्थात 18 प्रतिशत है। आश्चर्य है, विधानसभाओं में महिलाओं का आनुपातिक राजनैतिक प्रतिनिधित्व , प्रगतिशील और राजनैतिक साक्षरता के प्रतिनिधि राज्यों - जैसे केरल में 9 प्रतिशत, तमिलनाडु में 5 प्रतिशत, गुजरात में 8 प्रतिशत, महाराष्ट्र में 8 प्रतिशत और कर्नाटक में 4 प्रतिशत, अर्थात शोचनीय है।
जबकि तथाकथित पिछड़े घोषित राज्यों – जैसे, बिहार में 12 प्रतिशत, राजस्थान में 14 प्रतिशत, झारखण्ड में 12 प्रतिशत, ओडिशा में 12 प्रतिशत और पश्चिम बंगाल में 14 प्रतिशत, अर्थात अपेक्षाकृत उत्साहवर्धक है। महिलाओं के भूमि अधिकारों को लेकर लगभग स्थायी हो चुके राजनैतिक जड़ता के लिये महिला विधायकों का यह सीमित प्रतिनिधित्व, महिलाओं के भूमि और किसानी के अधिकारों को वैधानिक रूप से स्थापित करने मे एक कठिन नैतिक-राजनैतिक चुनौती है।
जाहिर है महिला अधिकारों और महिलाओं के राजनैतिक प्रतिनिधित्व के राजनैतिक दावों और उसकी वास्तविकता के मध्य एक गहरा राजनैतिक विरोधाभास और राजनैतिक दलों का दोगलापन है। समाज (और विशेष रूप से महिलाओं ) के द्वारा इसे हासिल न कर पानें की क़ीमत, 'महिलाओं के अधिकारों' की अवमानना के रूप में, दशकों से हम सब चुका रहे हैं।
संसद और विधानसभाओं में निर्वाचित महिलाओं के प्रतिनिधित्व से - महिलाओं के भूमि अधिकार और महिला किसानों की मान्यता के सदियों पुरानें सवाल समाप्त होंगे, यह मान लेने के पर्याप्त कारणों में सर्वप्रमुख है - बहुसंख्यक महिलाओं की चाहत कि उनकी अपनी भी ज़मीन हों ताकि वो अपनी जड़ें परिवार, समाज और देश में मज़बूत कर सकें।
छत्तीसगढ़ के पामगढ़ विधानसभा से प्रथम बार निर्वाचित विधायक श्रीमति शेषराज हरबंस कहतीं हैं कि – “महिलाओं के अधिकारों का सवाल अब तो सपनें से यथार्थ में बदलना ही चाहिये, इसीलिये छत्तीसगढ़ विधानसभा के माध्यम से मेरा प्रयास महिलाओं के भूमि अधिकारों के राजनैतिक सवाल का ज़वाब देना होगा। महिला विधायकों के प्रतिनिधित्व की दृष्टि से अग्रगामी छत्तीसगढ़, यदि महिला भूमि अधिकार और महिला किसानों के हक़ को वैधानिक मान्यता देने का क़ानून पारित कर पायी, तो पूरे देश के लिये निश्चित ही यह मिसाल बनेगी।”
आज पूरी दुनिया जब महिलाओं के अधिकारों को सुलझानें -उलझानेँ के प्रयासों में व्यस्त है, तब महिला सशक्तता की प्रथम शर्त 'महिलाओं के बढ़ते राजनैतिक प्रतिनिधित्व' के बरक़्स, समाधानों की ओर पहला क़दम हो सकती है।
ऐसा हो पाने का अर्थ, संविधान में दर्ज़ आधी आबादी (महिलाओं) को उसका अधिकार सुनिश्चित करना होगा, जो भारत के 60 करोड़ से अधिक महिलाओं के लिये इक्कीसवीं सदी का सबसे सबल ‘राजनैतिक-सामाजिक-आर्थिक और सांस्कृतिक’ अधिकार और आधार स्थापित करेगा। निश्चित रूप से इन प्रयासों के केंद्र में राजनैतिक दल और उनसे जुड़े महिला समाज का राजनैतिक अस्तित्व निर्भर है। आज़, अपनें राजनैतिक अस्तित्व और अधिकार की उम्मीदों के साथ भारत देश की आधी आबादी - हमारे आपके निर्णयों की प्रतीक्षा में है।
लेखक रमेश शर्मा – एकता परिषद के महासचिव हैं।