कृषि

खेती-किसानी से गायब हो रहीं हैं महिलाएं

2001 में जहां महिला किसानों की संख्या 2.53 करोड़ थी, वहीं 2011 में घटकर 2.28 करोड़ रह गई, जबकि खेतिहर महिला मजदूरों की संख्या में 85.34 लाख का इजाफा हुआ

Anil Ashwani Sharma

इस वक्त पूरे देश सहित दुनिया की मीडिया में किसान आंदोलन की चर्चा है। सुप्रीम कोर्ट ने भी इसमें चार सदस्यीय कमेटी बनाई है। हालांकि इनमें से एक सदस्य ने अपना नाम वापस ले लिया है। मामले की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने किसानों के वकील एपी सिंह से कहा कि आंदोलन स्थल से महिला, बच्चे और बूढ़ों को घर भेज देना चाहिए। कोर्ट की इस बात से आंदोलन में शामिल होने आईं महिला किसान काफी नाराज हैं। उनका कहना है कि खेतों में महिलाएं, पुरुष किसानों से ज्यादा मेहनत करती हैं तो हम आंदोलन छोड़कर घर क्यों चले जाएं? महिला किसानों का कहना है कि बीज लगाने, निराई-गुड़ाई करने से लेकर खेती का 73 (आक्सफेम इंडिया ने यह बात अपने एक सर्वे में कही है) फीसदी काम महिला किसान करती हैं। इसीलिए हम आंदोलन स्थल से कहीं भी डिगने वाले नहीं हैं।

डाउन-टू-अर्थ ने आंदोलन के बहाने भारत में महिला किसानों की स्थिति की पड़ताल की है। आंकड़ों के आधार पर की गई इस पड़ताल में महिला किसानों को लेकर कई चौंकाने वाली जानकारियां सामने आई हैं। मसलन देश में महिला किसानों की संख्या में लगातार गिरावट दर्ज हो रही है, वहीं खेतिहर महिला मजदूरों की संख्या बढ़ रही है। 2011 की जनगणना के अनुसार भारत में 9.59 करोड़ किसान हैं। इनमें 7.30 करोड़ पुरुष और 2.28 करोड़ महिलाएं हैं। वहीं, देश में कुल 8.61 करोड़ ऐसे मजदूर हैं जो खेतों में मजदूरी करते हैं। इनमें 5.52 करोड़ पुरुष और 3.09 करोड़ महिलाएं हैं। इसके अलावा बागवानी, पशुपालन, मछली पालन जैसे व्यवसाय से कुल 80.95 लाख लोग जुड़े हैं। इनमें 25 लाख महिलाएं शामिल हैं।

खेतिहर महिला मजदूरों की संख्या को देखते हैं तो ये हैरान करने वाली बात है कि हमारे खेतों में 5-9 साल की उम्र की बच्चियां भी मजदूरी करती हैं। जनगणना 2011 के अनुसार देश में 1,20,701 बच्चियां हैं जो खेतिहर मजदूर हैं। संख्या के लिहाज से देखें तो सबसे ज्यादा 40-49 उम्र वर्ग की महिलाएं खेतों में मजदूरी करती हैं। इनकी संख्या 62.64 लाख है। इसके बाद 35-39 साल की 40.89 लाख, 25-29 उम्र की 39.54 लाख, 30-34 उम्र वर्ग की 38.67 लाख, 50-59 के बीच की उम्र वाली 37.18 लाख महिला खेतिहर मजदूर हैं। इसके बाद 20-24 साल के बीच 34.62 लाख, 60-69 साल की 22.31, 15-19 साल की 20.31, 70-79 उम्र की 4.95 लाख, 10-14 साल की 4.55 और 80 साल से ज्यादा उम्र की 1.21 लाख महिलाएं खेतों में मजदूर हैं।

2001 की जनगणना के आंकड़ों के अनुसार देश में 10.36 करोड़ किसान थे। इनमें से 7.82 करोड़ पुरुष और 2.53 करोड़ महिला किसान थीं। वहीं, खेतिहर मजदूरों की संख्या 6.34 करोड़ थी। इनमें से 4.11 करोड़ पुरुष और 2.23 करोड़ महिलाएं शामिल थीं। आंकड़ों की तुलना करने पर सामने आता है कि 2001 से 2011 के बीच कुल खेतिहर मजदूरों की संख्या में भारी बढ़ोतरी हुई है। दोनों जनगणनाओं के बीच देश में 2,26,71,592 खेतिहर मजदूर बढ़े हैं।

महिला खेतिहर मजदूरों की बात करें तो 2001 में ये 2.23 करोड़ थीं जो 2011 में बढ़कर 3.09 करोड़ हो गईं। दूसरे शब्दों में कहें तो 2001 से 2011 के बीच देश में खेतिहर महिला मजदूरों की संख्या में 85.34 लाख का इजाफा हुआ है।

जनगणना 2011 के ही आंकड़े बताते हैं कि 2001 से 2011 के बीच महिला किसानों की संख्या घटी है और महिला खेतिहर मजदूरों की संख्या बढ़ी है। 2001 में जहां महिला किसानों की संख्या 2.53 करोड़ थी, वहीं 2011 में घटकर 2.28 करोड़ रह गई। यानी करीब 25 लाख महिला किसानों ने खेती का काम छोड़ दिया है। इससे साफ है कि या तो ये महिलाएं खेतों में मजदूर बन गईं या कोई दूसरे तरह का काम करने लग गईं। इसके अलावा देश में कुल किसानों की संख्या भी कम हो रही है। 2001 से 2011 के बीच भारत में 76.83 लाख किसान कम हुए हैं।

इन 10 सालों में 51.91 लाख पुरुष किसान कम हुए हैं और 1.41 करोड़ पुरुष खेतिहर मजदूर बढ़े हैं। विशेषज्ञों के अनुसार किसानों की कम होती संख्या और बढ़ते खेतिहर मजदूरों की संख्या में काफी निकट संबंध है। कृषि भूमि कम होती जा रही है, लेकिन 2001 में जो व्यक्ति थोड़ी भी जमीन का मालिक था, वो 2011 में भूमिहीन हो गया और खेतों में मजदूरी करने लगा। भारत में कुल 1,457 लाख कृषि भूमि स्वामित्व हैं। एग्रीकल्चर सेंसस 2015-16 के अनुसार 13.96 प्रतिशत महिलाओं का ही कृषि भूमि पर स्वामित्व है। ये 2010-11 में 12.79 प्रतिशत था। कुल कृषि भूमि में से 11. 72 फीसदी महिला किसान इसे ऑपरेट करती हैं।

भारत में छोटी, मझौली और बड़ी महिला किसानों पर औसतन एक हेक्टेयर से भी कम भूमि है। या यूं कहें कि महिलाओं का एक हेक्टेयर से भी कम कृषि भूमि पर स्वामित्व अधिकार (ऑपरेशनल होल्डिंग) है। महिला और पुरुषों को मिलाकर यह 1.08 हेक्टेयर है। वर्गीकरण करने पर और भी चौंकाने वाले आंकड़े सामने आते हैं। देश में 1.58 करोड़ हेक्टेयर कृषि भूमि पर ही महिला कृषकों का स्वामित्व है। यह हाल तब है जब ग्रामीण भारत की 73 फीसदी से ज्यादा श्रमिक खेती का काम करती हैं। सिर्फ 5.43 लाख महिला किसानों पर 7.5 हेक्टेयर से 10 हेक्टेयर तक कृषि भूमि का स्वामित्व है। वहीं, सिर्फ 66 हजार ऐसी महिला कृषक हैं, जिनके नाम 20 हेक्टेयर से अधिक कृषि भूमि है।

अनुसूचित जाति की महिला किसानों के पास औसतन 0.68 हेक्टेयर कृषि भूमि पर ही स्वामित्व है। वहीं, अनुसूचित जनजाति की महिला किसानों की स्थिति थोड़ी ठीक है। 1.23 हेक्टेयर औसतन भूमि एसटी महिलाओं के पास है। कृषि जनगणना 2015-16 के अनुसार 30.99 लाख महिला किसान देश में हैं, जिनके नाम एक से दो हेक्टेयर कृषि भूमि है। हिंदू उत्तराधिकार बिल 1956 के अनुसार यदि पुरुष की मृत्यु के बाद उसकी जमीन विधवा, बच्चे और मृतक की मां में बराबर बांटी जाएगी। यही कानून सिख, बौद्ध और जैन धर्मों के लिए है। वहीं, मुस्लिम पर्सनल लॉ के अनुसार विधवा महिला को एक चौथाई का हिस्सेदार संपत्ति में माना गया है, लेकिन सामाजिक रीति-रिवाजों के चलते ऐसा बेहद कम हो रहा है कि कानून के अनुसार महिलाओं को संपत्ति में हक मिल रहा हो। ऊपर के आंकड़ों से साफ है कि भारत में कानून भले महिलाओं को जमीन-जायदाद में से हिस्सा देता हो, लेकिन भारतीय समाज और उसके अपने कानून उन्हें उनके इस हक से वंचित रखते हैं।

ऑक्सफेम इंडिया के एक सर्वे (2018, सन ऑफ द सॉइल) के अनुसार खेती-किसानी से होने वाली आय पर सिर्फ 8 फीसदी महिलाओं का ही अधिकार होता है। मतलब कि खेती से होने वाली आय पर 92 फीसदी पुरुषों का कब्जा है। जबकि 73 फीसदी महिलाएं खेती-किसानी से जुड़ी हुई हैं।

महिलाओं को सरकारी रिकॉर्ड्स में किसान बताया ही नहीं जाता। सिर्फ 13 प्रतिशत महिलाएं कृषि भूमि पर स्वामित्व रखती हैं। इसीलिए 87 फीसदी महिलाएं सरकार की ओर से खेती पर मिलने वाले लोन, सब्सिडी का लाभ नहीं ले पाती हैं। इस संकट को ध्यान में रखते हुए साल 2011 में मनोनीत राज्यसभा सदस्य एमएस स्वामीनाथन (2007-13) संसद में वुमन फार्मर एनटाइटलमेंट बिल-2011 लेकर आए। 11 मई, 2012 को यह बिल राज्यसभा में पेश हुआ, लेकिन यह अप्रैल, 2013 में रद्द हो गया। 9 चैप्टर के इस बिल में महिला किसानों के हक, अधिकार और सरकारों की जिम्मेदारी तय करने की बातें थीं। इस बिल में महिला किसानों की परिभाषा जैसी बातें भी थीं। बिल के सेक्शन 2एफ के अनुसार वे महिलाएं जो गांवों में रहती हैं और मुख्य रूप से खेती के काम करती हैं, हालांकि कभी-कभी ये गैर-कृषि काम भी करती हैं, वे सभी महिलाएं किसान हैं। वहीं बिल में महिला किसानों को सर्टिफिकेट देने और इन सर्टिफिकेट्स को सबूत के तौर पर मान्यता देने की बात थी।

इसके अनुसार ग्राम सभा की मंजूरी के बाद ग्राम पंचायत महिला किसानों को ऐसे सर्टिफिकेट उपलब्ध कराए जिनसे यह साबित हो सके कि महिला खेती से जुड़ी हुई हैं। महिला किसान एनटाइटलमेंट बिल लाने के लिए नवंबर, 2018 में करीब 10 हजार महिला किसानों ने “दिल्ली चलो” का आह्वान किया था, लेकिन सरकार ने किसानों की मांगों पर खास ध्यान नहीं दिया। “किसान मुक्ति मार्च” का आयोजन ऑल इंडिया किसान संघर्ष समन्वय समिति ने किया था। इसमें 200 से अधिक किसान संगठन शामिल हुए थे। महिला किसानों के इस मार्च की मुख्य मांगें लगभग वही थीं, जिनका स्वामीनाथन ने अपने बिल में जिक्र किया था। 2018 में ही खेती में लिंग आधारित भेदभाव को खत्म करने के लिए “ग्राम सभा से विधान सभा” के नाम से एक मार्च भी निकाला गया। यह मार्च 2006 में गोरखपुर पर्यावरण क्रिया समूह (जीईएजी) के शुरू किए अभियान अरो का ही हिस्सा था। इस अभियान का मुख्य उद्देश्य खेती में वास्तविक रूप से योगदान करने वालों का सशक्तिकरण करना था।

एक अनुमान के मुताबिक किसानी में शामिल 52-75 फीसदी महिलाएं अपनढ़ या बेहद कम पढ़ी-लिखी हैं। उनमें जागरुकता की कमी है। इसीलिए अधिकतर महिलाएं अपने खेतों में बिना किसी मेहनताने के ही काम करती हैं। कृषि में पुरुष किसानों की मजदूरी महिला मजदूरों के मुकाबले में एक चौथाई तक ज्यादा होती है। पूरी दुनिया में कृषि क्षेत्र में 50 प्रतिशत योगदान ग्रामीण महिलाओं का है। खेती में महिलाओं की भूमिका को देखते हुए भारत में हर साल 13 अक्टूबर को महिला-किसान दिवस मनाया जाता है। एफएओ के आंकड़े कहते हैं कि देश के हिमालयी क्षेत्र में एक ग्रामीण महिला हर साल 3,485 घंटे प्रति हेक्टेयर काम करती हैं। इसके मुकाबले पुरुष केवल 1,212 घंटे ही काम करते हैं। नेशनल सैंपल सर्वे ऑर्गेनाइजेशम (एनएसएसओ) के आंकड़े कहते हैं कि 23 राज्यों में कृषि, वानिकी और मछली पालन में ग्रामीण महिलाओं का 50 प्रतिशत श्रम लगा होता है। बंगाल, तमिलनाडु, पंजाब और केरल जैसे राज्यों में ये 50 फीसदी है तो बिहार, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में महिलाओं का श्रम 70 फीसदी तक है। पूर्वोत्तर के राज्यों में यह 10 प्रतिशत है।

खाद्य एवं कृषि संगठन के अनुसार, भारतीय कृषि में महिलाओं का योगदान लगभग 32 प्रतिशत है। 48 प्रतिशत महिलाएं कृषि संबंधी रोजगार में शामिल हैं जबकि 7.5 करोड़ महिलाएं दूध उत्पादन और पशुधन प्रबंधन में उल्लेखनीय भूमिका निभा रही हैं।