मध्य प्रदेश में नाइट्रोजन युक्त यूरिया का जबरदस्त संकट बना हुआ है। सोशल मीडिया और महत्वपूर्ण प्रेस वीडियो और रिपोर्ट से भरे पड़े हैं, जो यह दर्शा रहे हैं कि पुलिस वालों की मौजूदगी में भी यूरिया मिलने में कितनी मुसीबतें किसानों को उठानी पड़ रही हैं। पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने भी एक वीडियो साझा किया है। इस वीडियो में दिखाई देता है कि एक बोरे यूरिया के लिए लंबी कतार लगी है जो एक-दूसरे को ठेलती दिख रही है।
संकट की इस घड़ी में सूबे में राज्य सरकार 80 फीसदी यूरिया को-ऑपरेटिव सोसाइटी के जरिए बंटवा रही है। पहले को-ऑपरेटिव और बाजार मिलकर 50-50 फीसदी यूरिया बेच रहे थे। 45 किलो वाली एक यूरिया बोरी की लागत 266 रुपये है। यूरिया में नाइट्रोजन की उपलब्धता अधिक है जो कि मिट्टी में अमोनिया को बढ़ाता है। यूरिया सबसे अधिक नाइट्रोजन का वहन करता है जो कि गेहूं की अच्छी फसल के लिए काफी इस्तेमाल किया जाता है।
बीते कुछ वर्षों में मध्य प्रदेश में यूरिया के ऐसा संकट नहीं देखा गया है। गेहूं का रकबा अचानक बढ़ने से यूरिया की भी अधिक मांग राज्य में हुई है। वहीं ठीक इसी समय दाल वाली फसलों के रकबा क्षेत्र में कमी आई है। बीते वर्ष के मुकाबले नवंबर के अंत तक मध्य प्रदेश में गेहूं के रकबे में 8.5 फीसदी इजाफा हुआ है। मौजूदा वर्ष 2019-20 में गेहूं का रकबा 3.72 मिलियन हेक्टेयर एरिया (एमएचए) है जबकि बीते वर्ष की समान अवधि में गेहूं का रकबा 2.7 एमएचए था। वहीं,2017-18 में 3 एमएचए और 2016-17 में 3.4 एमएचए था।
अचानक से गेहूं के रकबा क्षेत्र में बढ़ोत्तरी विस्तारित मानसून सीजन का परिणाम है। मानसून न सिर्फ देरी से आया बल्कि मध्य प्रदेश में काफी देर तक ठहरा भी। सितंबर के बजाए मानसून की विदाई मध्य प्रदेश से नवंबर के अंत तक हुई। वहीं, इस विस्तारित मानसून ने सूबे में खरीफ की फसल जैसे सोयाबीन को काफी नुकसान भी पहुंचाया।
अत्यधिक और लंबी अवधि वाला मानसून जलवायु परिवर्तन का प्रभाव है लेकिन सरकार इनसे पूरी तरह अनजान बनी रही। मध्य प्रदेश के हरदा गांव निवासी व किसान राम इनानिया ने बताया कि राज्य सरकार इस मुसीबत को भांपने में पूरी तरह असक्षम रही। उसे यह भी भान नहीं हुआ कि मौसम के इस तरह की स्थिति से यूरिया की जरूरत व मांग में बढ़ोत्तरी होगी।
पानी की अत्यधिक उपलब्धता गेहूं की फसल के अनकूल है। इसने पारंपरिक तौर पर बोये जाने वाले वर्षा आधारित दलहन जैसी फसलों की जगह ले लिया है। यही वजह है कि नवंबर के अंत तक दालों का रकबा तेजी से घटा है। यह भी गौर करने लायक है कि दलहन फसलों में यूरिया का इस्तेमाल न के बराबर किया जाता है।
राज्य में चना, मसूर और मटर जैसी दलहन का सामान्य रकबा 4.44 एमएचए है। इस वर्ष नवंबर के अंत तक दाल फसलों का रकबा 2.49 एमएचए ही रिपोर्ट किया गया। जबकि बीते वर्ष दाल की फसलों का रकबा 3.56 एमएचए था। इस सीजन में नवंबर के अंत तक दाल वाली फसलों के रकबे में करीब एक एमएचए की कमी आई है।
चने की फसल का रकबा बहुत ही तेजी से गिरा है। इस सीजन में चने की फसल का रकबा 1.93 एमएचए है जबकि बीते वर्ष की समान अवधि में चने की फसल का रकबा 2.82 एमएचए था। मसूर फसल का रकबा 0.359 है जबकि 2018 में 0.486 एमएचए था। इसी तरह मटर का रकबा 0.17 एमएचए है जबकि बीते वर्ष 0.21 एमएचए था।
लेकिन राज्य सरकार ने इस यूरिया संकट के लिए केंद्रीय सरकार पर आरोप मढ़ा है। राज्य सरकार का आरोप है कि केंद्र पर्याप्त यूरिया की आपूर्ति नहीं कर रही है। डाउन टू अर्थ ने जब राज्य कृषि मंत्री सचिन यादव से संपर्क करने की कोशिश की तो वे ऑफिस में उपस्थित नहीं थे। हालांकि, उनके कार्यालय की ओर से कहा गया कि राज्य की जरूरत के मुताबिक केंद्र सरकार यूरिया की आपूर्ति नहीं कर रही है।
राज्य कृषि मंत्री के कार्यालय ने डाउन टू अर्थ को दिए अपने जवाब में कहा कि केंद्र सरकार ने केवल 1.54 मिलियन मिट्रिक टन (एमएमटी) यूरिया दिया है जबकि हमारी जरूरत 1.8 एमएमटी की है। राज्य सरकार इस संकट में अपनी अनदेखी की जिम्मेदारी मानने के बजाए केंद्र सरकार पर आरोप मढ़ रही है। कृषि मंत्री के कार्यालय ने कहा कि केंद्र सरकार विपक्षी कांग्रेस सरकार को यह सजा दे रही है।
हालांकि केंद्रीय रसायन व खाद्य मंत्रालय इन आरोपों को खारिज करता है। मंत्रालय के सचिव चाबिलेंद्र राउल कहते हैं कि हम जरूरत के हिसाब से ही राज्य सरकार को यूरिया आपूर्ति कर रहे हैं। हमसे अतिरिक्त मांग नहीं की गई है। वहीं, एक अन्य अधिकारी ने बताया कि यह मौजूदा आरोप-प्रत्यारोप का खेल सिर्फ राजनीति है। जैसा कि केंद्र और अलग-अलग पार्टियों वाली राज्य सरकारों के बीच राजनीतिक लाभ के लिए होता है।
इस पूरे यूरिया संकट को करीब से देखने वाले एक अन्य अधिकारी ने कहा कि गेहूं उत्पादन में कमी का भुक्तभोगी केवल किसान ही होगा।