नासिक, महाराष्ट्र में प्याज की खेती करने वाले संजय साठे ने 1,064 रुपए कथित रूप से विरोध स्वरूप प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को भेजे जो उन्होंने 750 किलोग्राम प्याज की फसल बेचकर कमाए थे। देशभर में किसान अपनी फसलों की गिरती हुई कीमतों का विरोध करने के लिए सड़कों पर उतरे हुए हैं। मिजोरम से लेकर कर्नाटक तक 11 राज्यों के किसान अपनी फसल की बेहतर कीमतों की मांग को लेकर विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं।
समाचार पोर्टल एनडीटीवी डॉटकॉम के अनुसार साठे “उन कुछ प्रगतिशील किसानों में से एक थे जिन्हें केंद्रीय कृषि मंत्रालय ने वर्ष 2010 में तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की भारत यात्रा के दौरान मुलाकात करने के लिए चुना था।”
साठे कहते हैं, “अपनी चार महीने की मेहनत का यह फल देखना बहुत तकलीफदेह है। इसलिए मैंने विरोध स्वरूप 1,064 रुपए प्रधानमंत्री राहत कोष में दान किए हैं। मुझे ये पैसे मनीऑर्डर से भेजने के लिए और 54 रुपए देने पड़े।”
आप इस थोक कीमत की तुलना आपके द्वारा प्याज खरीदने के लिए दी जाने वाली कीमत से करके देखिए। 2 दिसंबर को प्याज का खुदरा मूल्य 25 रुपए प्रति किलोग्राम था जो साठे को मिलने वाली कीमत से 20 गुना ज्यादा था। हालांकि यह स्थिति उपभोक्ता तक पहुंचने से पहले फसल के कई स्तरों पर कई तरह के लोगों के बीच से गुजरने की लंबी श्रृंखला को स्पष्ट करती है, तथापि इससे बड़ा सवाल यह है कि क्या किसानों को अपने स्तर पर बिक्री में मुनाफा हो रहा है जो वास्तव में थोक बाजार है।
केंन्द्र सरकार द्वारा गठित 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने की रणनीति संबंधी समिति की रिपोर्ट के अनुसार, किसानों को लाभ होने की तो छोड़ो, लंबे समय तक तो वह अपने निवेश की वसूली भी नहीं कर पा रहे थे।
वर्ष 1981-82 के आंकड़ों के विश्लेषण पर आधारित रिपोर्ट के अनुसार “अधिकांश वर्ष खाद्य पदार्थों का डब्ल्यूपीआई (थोक मूल्य सूचकांक) कृषि सामग्री से कम था जो यह दर्शाता है कि किसानों को उस कीमत से भी कम मूल्य मिल रहा था जो उन्होंने खेती के लिए सामान खरीदने के लिए खर्च की थी।” यह मुख्य रूप से सिंचाई, बिजली और कीटनाशक तथा उर्वरकों जैसे सामान की कीमतों में बढ़ोतरी के कारण हुई है।
इसी दौरान 2008-09 से खाद्य पदार्थों की कीमतों में तेजी से वृद्धि हुई है। इससे स्पष्ट होता है कि उपभोक्ता के तौर पर हम ज्यादा भुगतान कर रहे हैं लेकिन संभवतः इसका लाभ किसानों को नहीं मिल पा रहा है।
समिति की रिपोर्ट के अनुसार, “इससे पता चलता है कि वर्तमान मूल्य पर किसान परिवार की अखिल भारतीय आय 2002-03 में 25,622 रुपए से बढ़कर 2012-13 में 77,977 रुपए हो गई जिसमें वर्तमान मूल्य पर वार्षिक वृद्धि दर 11.8 प्रतिशत और स्थिर मूल्य पर केवल 3.6 प्रतिशत है। ध्यान देने वाली बात है कि यह वास्तविक कृषि जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) से काफी कम है।”
यह भारत में किसानों की कम आय को दर्शाता है। सरकारी अनुमानों के अनुसार, 2015-16 में एक किसान परिवार की वार्षिक आय 96,703 रुपए थी। एक परिवार में पांच लोग थे। लेकिन पांच सदस्यों वाले एक छोटे और सीमांत खेतीहर परिवार (2 हेक्टेयर या उससे कम भूमि पर खेती करने वाले) की एक वर्ष की आमदनी केवल 79,779 रुपए अथवा 221 रुपए प्रतिदिन थी। भारत की कुल खेती योग्य जमीन में से 82 हिस्सा ऐसे ही परिवारों का है।
लेकिन इस कुल आमदनी में से खेती से होने वाली औसत आय केवल 41 प्रतिशत होगी। अतः खेती से एक दिन में होने वाली आय लगभग 90 रुपए है।
छोटे किसान परिवारों और बड़े किसान परिवारों (कम से कम 10 हेक्टेयर भूमि के मालिक) की आय में बहुत बड़ा अंतर है। सामान्यतः एक बड़ा किसान परिवार एक वर्ष में 6,05,393 रुपए कमाता है जो छोटे किसान परिवार की आय से आठ गुना ज्यादा है।
साफ तौर पर, किसानों को अपने उत्पाद से कोई लाभ नहीं मिल रहा है। वर्ष 2004-2014 के दौरान 23 फसलों के निवेश और आय के संबंध में किए गए विश्लेषण से पता चलता है कि केवल कुछ फसलों को छोड़कर अन्य फसलों से किसानों को कोई आमदनी नहीं हो रही है।
धान जैसी प्रमुख फसल की बात करें तो केवल सात राज्यों के किसानों की शुद्ध आय में बढ़ोतरी हुई है जबकि बिहार, झारखंड और ओडिशा जैसे गरीब राज्यों सहित छः राज्यों के किसानों को नुकसान उठाना पड़ा। इसी प्रकार देशभर में गेहूं की फसल से होने वाले लाभ में भी कमी आई है जिसमें झारंखड, हिमाचल प्रदेश, छत्तीसगढ़ और पश्चिम बंगाल में किसानों के घाटे में रहने की खबर है। पंजाब और हरियाणा जैसे प्रमुख गेहूं उत्पादक राज्यों में सरकार द्वारा निश्चित खरीद के कारण किसानों की लागत वसूल हो रही है।