सुखदीप सिंह उन हजारों किसानों में से एक हैं, जो सितंबर 2020 में संसद द्वारा पारित तीन कृषि कानूनों को निरस्त करने की मांग करते हुए दिल्ली की सीमाओं पर डटे हैं। किसानों को डर है कि ये कानून विनियमित मंडियों और न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) व्यवस्था को चरणबद्ध रूप से समाप्त कर देंगे। सुखदीप पंजाब में रहते हैं जिसने देश को खाद्य उत्पादन में आत्मनिर्भर बनाने में अहम भूमिका निभाई है। पंजाब का किसान देश के सबसे अमीर किसानों में है।
आमतौर पर एक औसत भारतीय किसान परिवार 77,124 रुपए हर साल कमाता है जबकि पंजाब के किसान परिवार की औसत कमाई 2,16,708 रुपए है। ऐसे में पंजाबी किसान देश के उन लाखों लघु व सीमांत किसानों के लिए प्रेरणास्रोत है जो 80 प्रतिशत से अधिक हैं और 2 हेक्टेयर से कम भूमि के मालिक हैं। पंजाब के किसानों की समृद्धि इस बात का भी प्रतीक है कि सरकारी सहायता कितनी मददगार हो सकती है। सुखदीप कहते हैं, “मैं केवल गेहूं और धान उगाता हूं, क्योंकि केवल ये दोनों फसलें ही न्यूनतम समर्थन मूल्य सरकार द्वारा खरीदी जाती हैं।”
पंजाब में करीब 95 फीसदी किसान सरकार की खरीद प्रणाली के तहत उपज बेचते हैं। सुनिश्चित खरीद की गारंटी के चलते पंजाब एकमात्र ऐसा राज्य है जहां फसलों के भंडारण की जरूरत नहीं पड़ती। खरीद की इस गारंटी पर आंच आने की आशंका ने किसानों के मन में डर पैदा कर दिया है। साठ के दशक में राज्य में प्रति हेक्टेयर गेहूं और धान की पैदावार महज 1.2 टन थी जो अब चार गुणा बढ़ गई है।
अब उपज बढ़ाना बेहद मुश्किल है, वहीं दूसरी तरफ खेती की लागत में वृद्धि जारी है। आय बढ़ाने का एकमात्र तरीका न्यूनतम समर्थन मूल्य में वृद्धि और सब्सिडी है। यह सब्सिडी मुफ्त बिजली, सस्ते उर्वरक और इनपुट लागत कम करने के लिए मिलने वाली आर्थिक सहायता के रूप में मिलती है। अगर इस व्यवस्था को कमजोर या कम किया जाता है तो कृषि अर्थव्यवस्था चरमरा जाएगी।
देश के अन्य राज्यों के किसान भी एमएसपी और खरीद की ऐसी व्यवस्था की मांग कर रहे हैं। इसके लिए अधिकांश भारतीय किसानों को व्यापार में ढांचागत बदलाव करना होगा। इस बदलाव का मतलब है निजी बाजारों से सरकार द्वारा नियंत्रित और सुविधाजनक व्यवस्था में जाना। विडंबना यह है कि नए कानूनों का उद्देश्य किसानों के लिए निजी बाजार खोलना है।
भारत के अधिकांश किसान पहले से ही खुले बाजारों में अपनी उपज बेच रहे हैं। यानी जिस लक्ष्य के लिए नए कानूनों को बनाया गया है, वे पहले से हासिल हैं। भारतीय खाद्य निगम के पुनर्गठन पर शांता कुमार समिति की 2015 में जारी रिपोर्ट में भी कहा गया है कि 94 फीसदी किसान निजी बाजारों पर आश्रित हैं। प्रदर्शन में शामिल होने दिल्ली पहुंचे उत्तर प्रदेश के बांदा जिले के किसान उमेश कुमार कहते हैं, “मैं धान या गेहूं नहीं उगाता क्योंकि हमारे पास पानी नहीं है। दलहन और मोटा अनाज एमएसपी पर न के बराबर बिकता है।”
उमेश का मामला सुखदीप से बिल्कुल अलग है। उमेश सूखाग्रस्त बुंदेलखंड क्षेत्र से आते हैं और उन्हें पता है कि धान या गेहूं की खेती से वह ज्यादा कमा सकते हैं। वह कहते हैं, “यह सुनिश्चित करने के लिए मुझे एमएसपी और पंजाब जैसी मंडी व्यवस्था चाहिए।”
अमेरिका स्थित यूनिवर्सिटी ऑफ पेंसिलवेनिया के सेंटर फॉर द एडवांस्ड स्टडी ऑफ इंडिया के सर्वेक्षण में पाया गया कि एमएसपी पर सरकारी एजेंसियों द्वारा खरीद के परिणामस्वरूप उत्पाद की कीमतों में वृद्धि हुई है। 2020 में जारी इस सर्वेक्षण में पंजाब, ओडिशा और बिहार समेत विभिन्न राज्यों के 10 हजार किसानों को शामिल किया गया था। सर्वेक्षण के मुताबिक, “सरकारी खरीद एजेंसियों को अपनी उपज बेचने पर बिहार में कीमतों में 16 प्रतिशत और ओडिशा में 17.5 प्रतिशत सुधार हुआ।”
सितंबर 2020 में संसद द्वारा तीनों कानूनों को पारित करने के बाद 19 राज्यों में करीब 20 विरोध प्रदर्शन हुए। इन प्रदर्शनों में मुख्य मांग यही थी कि एमएसपी पर सरकारी खरीद सुनिश्चित की जाए और आयात के जरिए आने वाले व स्थानीय बाजार को चोट पहुंचाने सस्ते कृषि उत्पादों से रक्षा की जाए।
किसानों की मांग और ज्यादा बाजारों तक पहुंच की नहीं थी। यह भी सर्वविदित है कि ज्यादातर फसलें एमएसपी से नीचे बिक रही हैं। कृषि मंत्रालय के आंकड़ों से पता चलता है कि 14 सितंबर से 14 अक्टूबर 2020 के बीच 600 थोक बाजारों में 10 चुनिंदा फसलों का 68 प्रतिशत लेन-देन एमएसपी से कम कीमतों पर था।
टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंस में स्कूल ऑफ डेवलपमेंट स्टडीज के सेंटर फॉर स्टडी ऑफ डेवलपिंग इकॉनोमीज में पढ़ा रहे आर रामाकुमार के अनुसार, “कोविड-19 ने सरकार की सहायता को दुनियाभर में अधिक जरूरी, महत्वपूर्ण और व्यापक बना दिया है। दुनियाभर में कृषि और खाद्य सुरक्षा प्राथमिकता रहेगी। इसके कारण कृषि को समर्थन में गिरावट या कमी की संभावना नहीं है।”
ऑर्गनाइजेशन फॉर इकोनॉमिक कोऑपरेशन एंड डेवलपमेंट (ओईसीडी) द्वारा जारी वार्षिक रिपोर्ट एग्रीकल्चरल पॉलिसी मॉनिटरिंग एंड इवेल्यूशन 2020 के अनुसार, 35 देशों और यूरोपीय संघ (ईयू) ने किसानों के लिए कोविड-19 का सामना करने के लिए वित्तीय सहायता योजनाओं की घोषणा की है। 54 देशों को कवर करने वाली इस रिपोर्ट में कहा गया है कि खाद्य और कृषि से संबंधित 400 से अधिक नीतिगत घोषणाएं हुई हैं।
वैश्विक परिदृश्य
ओईसीडी की रिपोर्ट के अनुसार, दुनिया में केवल 54 देश लगभग दो बिलियन डॉलर की सब्सिडी किसानों को दे रहे हैं। 2017-2019 में इन देशों द्वारा कृषि क्षेत्र में शुद्ध हस्तांतरण 619 अरब डॉलर प्रतिवर्ष था। इसमें से 425 अरब डॉलर बजटीय सहायता थी। शेष राशि भारत की न्यूनतम समर्थन मूल्य जैसी बाजार सहायता के लिए थी। इसका करीब 536 अरब डॉलर का एक बड़ा हिस्सा किसानों को प्रत्यक्ष रूप से दिया गया। यह राशि किसान की सकल कृषि प्राप्तियों का 17.6 प्रतिशत थी।
भारत और चीन जैसी उभरती अर्थव्यवस्थाओं में किसानों को सालाना कुल 295 अरब डॉलर का समर्थन मिला और इसका 71 प्रतिशत हिस्सा सीधे उत्पादकों के पास गया। यह राशि एक किसान की सकल प्राप्ति का 8.5 प्रतिशत है। ओईसीडी के आंकड़ों के मुताबिक, जिन 20 सबसे बड़े उत्पादक देशों के सब्सिडी के आंकड़े उपलब्ध हैं, उनके कृषि क्षेत्र को 2015 और 2017 के बीच सालाना 620 बिलियन डॉलर से अधिक का भुगतान हुआ। इसमें करीब 475 बिलियन डॉलर का प्रत्यक्ष भुगतान हुआ। लगभग सभी देशों में कृषि का समर्थन एक ही तरीके से होता है।
आइए नजर डालते हैं विभिन्न देशों में चल रही सहायता प्रणालियों और नीतिगत हस्तक्षेप पर:
यूरोपीय संघ: कृषि खाद्य उत्पादों का दुनिया का सबसे बड़ा आयातक और निर्यातक यूरोपीय संघ के पास कॉमन एग्रीकल्चर पॉलिसी (सीएपी) है। इसके तहत यह सदस्य देशों को सब्सिडी वितरित करता है। सकल कृषि प्राप्तियों के रूप में यह किसानों को मदद देता है। 2010 के बाद से किसानों को मिलने वाला सहयोग 19 प्रतिशत बना हुआ है। इसके कुल समर्थन का 89 प्रतिशत व्यक्तिगत उत्पादक को जाता है।
यूरोपीय संघ की सब्सिडी नीति 2003 के बाद से उत्पादन से आय सहायता की ओर बढ़ रही है। 2014-18 में कृषि से परिवार की आय में इस प्रकार का समर्थन 57 प्रतिशत हिस्सा था। यूरोपीय संघ में सब्सिडी का मूल सिद्धांत छोटे किसानों का समर्थन करना और ऐसी कृषि को प्रोत्साहित करना है जो पर्यावरण के लिए कम नुकसानदायक है।
उत्पादकों को लगभग 80 प्रतिशत भुगतान पर्यावरणीय मानदंडों को पूरा करने की शर्त पर प्रदान किया जाता है। इनमें फसलों की विविधता सुनिश्चित करने और 2014 के स्तर पर स्थायी घास के मैदानों को सुनिश्चित करने हेतु एक साथ कम से दो से तीन विभिन्न फसलों को लेना शामिल है। 2020 के बाद शर्तों में बदलाव देखने को मिल सकते हैं। लेकिन किसानों को मिलने वाला समर्थन पारिस्थितिकी तंत्र की सेवाओं के भुगतान के रूप में अधिक होगा।
अमेरिका: यह किसानों को कृषि कानूनों के जरिए मदद देता है। इन कानूनों की शुरुआत 1933 की महामंदी के समय हुई थी। इनका मकसद था महामंदी के फलस्वरूप कीमतों में आई गिरावट से किसानों को बचाना। कांग्रेस आमतौर पर इन कानूनों की समीक्षा करती रहती है और बदली हुई परिस्थितियों के अनुसार सुधार करती है।
अमेरिका कृषि क्षेत्र को इसलिए समर्थन करता है ताकि खाद्य मुद्रास्फीति को नियंत्रित रखा जा सके, खेती का जोखिम कम किया जा सके और अमेरिका के गरीब खाद्य उत्पाद खरीदने में सक्षम हो सकें। मौजूदा कानून के तहत कृषि को अधिकांश मदद पूरक पोषण सहायता कार्यक्रम (जिसे पहले फूड स्टैंप कार्यक्रम कहा जाता था) और महिलाओं, शिशुओं व बच्चों के लिए विशेष पूरक पोषण कार्यक्रम के लिए प्रतिबद्ध है। इसी कारण अमेरिका के किसानों की फसलें बीमा से कवर होती हैं। सरकार बीमा से फसल की 70 प्रतिशत लागत कवर करती है।
अनुमान के मुताबिक, 2020 में अमेरिका किसानों को 46 बिलियन डॉलर की सब्सिडी दे रहा था। यह सब्सिडी कितनी बड़ी है, इसे इस तथ्य से समझा जा सकता है कि 2020 में कृषि से प्राप्त हुई आमदनी में इसका योगदान 40 प्रतिशत था। अगर किसानों को यह सब्सिडी न मिले तो कृषि से होने वाली आमदनी ऋणात्मक हो जाएगी।
चीन: इसमें कोई संदेह नहीं है कि चीन की सब्सिडी योजनाएं काफी खर्चीली हैं। इनका एकमात्र मकसद है बढ़ी आबादी को सस्ता भोजन उपलब्ध कराना। 2004 में चीन नेट फूड इम्पोर्टर बन गया। तब से पूरी कृषि सहायता प्रणाली का मकसद स्थानीय उत्पादन और स्थानीय आय बढ़ाने का रहा है।
चीन ने 2006 में कृषि पर लगभग सभी करों को समाप्त कर एक व्यापक कृषि सहायता कार्यक्रम शुरू किया। इसके तहत खेती की जमीन के आधार पर किसानों को सीधा भुगतान शुरू हुआ। उर्वरक और ईंधन जैसी इनपुट लागतों पर उच्च सब्सिडी का भी प्रत्यक्ष भुगतान किया गया। चीन उन्नत बीजों के लिए भी नकद सहायता देता है। भारत की तरह चीन में भी चावल और गेहूं का न्यूनतम समर्थन मूल्य है। इसके चलते 2005-15 के बीच चावल, गेहूं और मक्का के उत्पादन में 40 फीसदी की बढ़ोतरी हुई।
भारत: सरकार का सहयोग उत्पादन, प्रसंस्करण और वितरण तक फैला है। वर्तमान में नकद सहायता योजना भी शुरू की गई है। 2020-21 के केंद्रीय बजट में प्रत्यक्ष आय हस्तांतरण योजना पीएम-किसान के लिए 7,50,000 करोड़ रुपए (10.6 बिलियन डॉलर) आवंटित किए गए। भारतीय सांख्यिकी संस्थान के मार्च 2019 के अध्ययन के अनुसार, 2017-18 में सब्सिडी का कुल खर्च (केंद्र और राज्य सरकार) करीब 2,35,500 करोड़ रुपए था। इसमें से 1,20,500 करोड़ रुपए केंद्र सरकार से आए जबकि बाकी राज्यों द्वारा वहन किया गया। 2014 में बोए गए खेत में प्रति हेक्टेयर इनपुट सब्सिडी 7,750 रुपए थी जबकि कीमत सब्सिडी 1,050 रुपए थी। 2017 में कृषि सब्सिडी व्यय औसत कृषि आय का 21 प्रतिशत थी।
ओईसीडी के ताजा आकलन में कहा गया है कि भारत उन चंद देशों में शामिल है जिसने उपभोक्ताओं को खुश रखने के लिए किसानों को दंडित किया है। किसी सरकार के बजटीय और अन्य सब्सिडी का अंतरराष्ट्रीय पैमाना उत्पादकों को दिए जाने वाले समर्थन का अनुमान यानी प्रोड्यूसर सपोर्ट एस्टीमेट (पीएसई) है। वैश्विक कृषि सहयोग को ट्रैक करने के लिए इसे ओईसीडी द्वारा विकसित किया है। यह अनुमान किसानों को मिलने वाले सहयोग का पता लगाता है।
ओईसीडी का आकलन है कि भारतीय किसानों के लिए पीएसई नकारात्मक 5.7 प्रतिशत है अथवा सरकार ने वास्तव में किसानों पर कर लगाया है। भारतीय किसानों ने 2019 में इस तरह 23 बिलियन डॉलर गंवा दिए। इसके उलट नॉर्वे का पीएसई 60 फीसदी है।
भारत का नकारात्मक पीएसई सस्ता भोजन सुनिश्चित करता है। सरकारी सहायता और नीतिगत हस्तक्षेप से थोक मूल्य कम रहता है। सस्ती दरों पर सार्वजनिक वितरण प्रणाली के माध्यम से खाद्य मुद्रास्फीति नियंत्रित रहती है। ओईसीडी के मुताबिक, वर्ष 2017-19 में उपभोक्ताओं के लिए लाभ 80 बिलियन डॉलर था। यह नीति अधिकांश देशों से उलट है।
ये देश कृषि उपज के मूल्य को वैश्विक स्तर से अधिक रखते हैं और सरकार उपभोक्ताओं को मदद देकर इसकी भरपाई करती है। ऐसा करने से किसानों को अच्छा लाभ होता है। पिछले दो दशकों में उत्पादकों को सरकार का समर्थन नकारात्मक बना हुआ है। वहीं, उर्वरक और खाद्य सब्सिडी के लिए आवंटन 2018 और 2019 के बीच बढ़ा है। हालांकि वित्त वर्ष 2020-21 के लिए यह क्रमशः 10.8 और 37 प्रतिशत कम था।
न्यूजीलैंड: जब न्यूजीलैंड ने 1985 में किसानों को दी जाने वाली सभी प्रकार की सब्सिडी खत्म कर दी तब इसका विरोध बढ़ गया। लेकिन सरकार टस से मस नहीं हुई। इससे न्यूजीलैंड यह समझने के लिए जीता जागता उदाहरण बन किया कि बिना सरकारी समर्थन कृषि को कैसे जीवित रखा जा सकता है।
इसकी अर्थव्यवस्था सर्वाधिक वैश्विक मानी जाती है और इसमें इसके खाद्य निर्यात का अहम योगदान है। इसके सकल घरेलू उत्पाद में कृषि का योगदान 7 प्रतिशत है। यह देश मुख्य रूप से कृषि उत्पाद जैसे मीट या डेरी उत्पादों का निर्यात करता है। भेड़ के मांस और डेरी उत्पादों का यह दुनिया का सबसे बड़ा निर्यातक है।
न्यूजीलैंड के 36 साल पहले लिए गए फैसले ने देश में एक नए तरह के सरकारी समर्थन की शुरुआत भी की। सभी प्रकार की सब्सिडी और सहायता कृषि अनुसंधान और विकास के लिए दी जाने लगी। अन्य सभी देशों की तरह न्यूजीलैंड का भी यही उद्देश्य था कि वैश्विक बाजारों में स्थानीय कृषि उत्पादों को प्रतिस्पर्धी बनाया जाए।
अनुसंधान और नवाचार कोष मुख्य रूप से देश के स्थानीय रूप से संपन्न कृषि गतिविधि की उत्पादकता बढ़ाने पर केंद्रित थे, जैसे पशुधन और इसके उत्पाद। देश ने गेहूं जैसी वैश्विक स्तर पर चर्चित कृषि उत्पाद पर ध्यान नहीं दिया। 1984 के बाद से इसने भेड़ों की संख्या को आधा कर दिया लेकिन अब भी उसी स्तर पर उत्पादन बरकरार रखा है।
न्यूजीलैंड में सरकार का कृषि समर्थन किसानों की सकल प्राप्तियों का सिर्फ 1 प्रतिशत है, जो ओईसीडी देशों में न्यूनतम है। हालांकि कृषि समर्थन पूरी तरह से समाप्त नहीं हुआ है। यह फसलों के रोग नियंत्रण पर बड़ी राशि खर्च करता है और प्राकृतिक आपदाओं के कारण हुए नुकसान की भरपाई के लिए किसानों को प्रत्यक्ष भुगतान करता है।
यहां किसानों को कृषि से संबंधित सभी जानकारियां प्रदान करने के लिए विशाल नेटवर्क है। यहां की सरकार सामुदायिक स्तर पर ऑफ-फार्म सिंचाई परियोजनाओं का भी समर्थन करती है। न्यूजीलैंड भले ही डब्ल्यूटीओ में दूसरे देशों की कृषि सब्सिडी का मुखर विरोध करता है। लेकिन इसने मुक्त व्यापार से संबंधित सर्वाधित द्विपक्षीय समझौते किए हैं। इन्हीं समझौतों के कारण इसके कुल निर्यात में कृषि उत्पादों की हिस्सेदारी 66 प्रतिशत है।
न्यूजीलैंड ने 2019 में क्लाइमेट चेंज रेस्पॉन्स (शून्य कार्बन) अमेंडमेंट एक्ट को अपनाया ताकि वह वैश्विक तापमान को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने के लक्ष्य यानी पेरिस समझौते मानने के लिए कानूनी रूप से बाध्य हो सके। यह कानून देश को मीथेन के अलावा सभी ग्रीन हाउस गैस के उत्सर्जन 2050 तक शून्य करने को कहता है।
कानून बायोजेनिक मीथेन (जैविक स्रोतों से उत्पन्न) के उत्सर्जन को 2050 तक 2017 के स्तर से 24-47 प्रतिशत तक कम और 2030 तक 2017 के स्तर से 10 प्रतिशत से कम करने को कहता है। यह सभी किसानों को कृषि विशिष्ट उत्सर्जन कटौती की योजना बनाने को भी कहता है। यदि वे अनिवार्य रूप से उत्सर्जन को कम नहीं करते हैं, तो उन्हें 2022 तक अतिरिक्त करों की अदायनी करनी होगी।
पशुधन क्षेत्र ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन का प्रमुख स्रोत है, इसलिए डेरी किसान समर्थन की मांग कर रहे हैं। सरकार ने भी किसानों को समर्थन देने के लिए 229 बिलियन डॉलर का बजट आवंटित किया है।
बिना समर्थन खेती असंभव
रामाकुमार कहते हैं, “बिना सरकारी मदद के भोजन नहीं उगाया जा सकता। अगर विकसित या ओईसीडी देशों में सब्सिडी हटा दी गई तो उनका निर्यात अब अंतरराष्ट्रीय बाजार में प्रतिस्पर्धी नहीं होगा।” अमेरिका में चीनी और मक्का जैसी कृषि उपज के उत्पादन के मूल्य के 55 प्रतिशत के बराबर सरकारी सहायता है। इसी प्रकार यूरोपीय संघ ने 2000 तक कैप के तहत सब्सिडी का नाम बदलकर “ग्रामीण विकास सहायता योजना” कर दिया, जिसका ग्रामीण यूरोप केंद्र बिंदु बन गया है। इस एकल भुगतान योजना के तहत किसानों को भूमि के आकार और प्रकार के आधार पर सब्सिडी मिलती है। इसके अलावा खेत में एक पेड़ की संख्या के आधार पर ग्रीन पेमेंट की व्यवस्था है। यूरोपीय संघ ने युवा किसान को भी भुगतान शुरू किया है।
वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय के तहत संचालित सेंटर फॉर डब्ल्यूटीओ स्टडीज में एसोसिएट प्रोफेसर सचिन कुमार शर्मा कहते हैं, “सरकारी सहायता की जरूरत है क्योंकि कई बार अच्छा उत्पादन होने पर भी बाजार की स्थिति खराब हो जाती है। कृषि में बाजार की विफलता अन्य क्षेत्रों की तुलना में अधिक है क्योंकि यह क्षेत्र मौसम की स्थिति जैसे कई कारकों पर निर्भर करता है। कोई भी देश कृषि क्षेत्र को बाजार के हवाले नहीं कर सकता। इसका मतलब यह नहीं है कि बाजार की कोई भूमिका नहीं है। एक-दूसरे के अस्तित्व के लिए दोनों की जरूरत है।
आईआईएम-अहमदाबाद के सेंटर फॉर मैनेजमेंट इन एग्रीकल्चर के प्रोफेसर सुखपाल सिंह कहते हैं, “मुद्दा यह नहीं है कि सरकार को सब खरीदना है। बाजार में हस्तक्षेप के सिद्धांत से पता चलता है कि यदि आप 15-20 प्रतिशत बाजार को नियंत्रित कर सकते हैं, तो अन्य पक्षों पर असर पड़ेगा। इसे मार्केट सैल्यूटरी इफेक्ट कहा जाता है और इसकी जरूरत है। अपने सभी संसाधनों को गेहूं और धान में लगाने की जरूरत नहीं है। विविध फसलों में भी निवेश करना चाहिए और किसानों को न्यूनतम लाभकारी स्तर तक लाने के लिए उसे खरीदना चाहिए।