कृषि

सहकारिता अलग होने के बाद कृषि मंत्रालय में बचेगा क्या?

Ajeet Singh

केंद्रीय मंत्रिमंडल में विस्तार से पहले मोदी सरकार ने सहकारिता मंत्रालय बनाने का ऐलान किया, जिसका जिम्मा गृह मंत्री अमित शाह संभाल रहे हैं। हालांकि, यह पहली बार नहीं है जब देश में अलग सहकारिता मंत्रालय बना है। आजादी के बाद जब सहकारिता आंदोलन ने जोर पकड़ा, तब 1958 में सहकारिता को कृषि से अलग कर सामुदायिक विकास एवं सहकारिता मंत्रालय बनाया गया था। लेकिन 1966 में इस मंत्रालय का विलय खाद्य एवं कृषि मंत्रालय के साथ हुआ और तब से यह कृषि मंत्रालय का हिस्सा रहा है।

अलग सहकार मंत्रालय बनाने के पीछे सहकारिता को बढ़ावा देने की मंशा बतायी जा रही है। लेकिन इसका दूसरा पहलू यह है कि खेती-किसानी से जुड़े फैसले लेने वाले अब देश में आधा दर्जन मंत्रालय हो गये हैं। ग्रामीण विकास, पंचायती राज, खाद्य, उर्वरक, सिंचाई, पशुपालन और फूड प्रोसेसिंग जैसे विभाग अलग होने के बाद कृषि मंत्रालय का महत्व काफी घट गया है। नब्बे के दशक में कृषि मंत्रालय को कवर कर चुके वरिष्ठ पत्रकार हरवीर सिंह बताते हैं कि कृषि से जुड़े मामलों के विभिन्न मंत्रालयों के तहत आने से इनके बीच समन्वय बनाने की चुनौती रहेगी। इसलिए खेती-किसानी और ग्रामीण अर्थव्यवस्था से जुड़े सभी विभागों को एक मंत्रालय के तहत लाने के सुझाव दिए जाते रहे हैं।  

देश की आजादी के साथ 1947 में बने कृषि मंत्रालय में विभागों के जुड़ने और निकलने का सिलसिला तभी से जारी है। 1970 और 80 के दशक में खाद्य, ग्रामीण विकास, सिंचाई, पशुपालन और उर्वरक विभाग भी कृषि मंत्रालय का हिस्सा हुआ करते थे। लेकिन धीरे-धीरे कृषि मंत्रालय से विभाग अलग होते गये और कृषि मंत्रालय का रुतबा घटता गया। कृषि मंत्रालय का वजूद घटाने का सिलसिला मोदी सरकार में भी जारी रहा है।

2015 में कृषि मंत्रालय का नाम बदलकर कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय किया गया, लेकिन साल 2019 में मत्स्य, पशुपालन और डेयरी को कृषि से अलग कर नया मंत्रालय बना दिया। जबकि खेती और पशुपालन एक ही सिक्के के दो पहलू जैसे हैं और यह विभाग कई दशकों तक कृषि मंत्रालय का हिस्सा रहा है। अलग मंत्रालय बनने के बाद मत्स्यपालन, पशुपालन और डेयरी मंत्रालय में एक कैबिनेट मंत्री और दो राज्य मंत्री है। लेकिन सालाना बजट 2021-22 में मात्र 4322 करोड़ रुपये है। केंद्र सरकार के किसी मंत्रालय के लिहाज से यह बेहद मामूली बजट है।

फिलहाल देश में खेती-किसानी से जुड़े आधा दर्जन से ज्यादा मंत्रालय हैं। खेती-किसानी से जुड़े जितने विषय कृषि मंत्रालय के अधीन हैं उससे ज्यादा अन्य मंत्रालयों के तहत आते हैं। हालत यह है कि फूड अलग मंत्रालय है और फूड प्रोसेसिंग अलग मंत्रालय। कृषि निर्यात, टी व कॉफी बोर्ड वाणिज्य व उद्योग मंत्रालय के तहत आते हैं। सिंचाई जलशक्ति मंत्रालय में है तो ग्रामीण विकास व पंचायती राज अलग मंत्रालय हैं। यह मोदी सरकार के मिनिमम गवर्नमेंट, मैक्सिमम गवर्नेंस यानी न्यूनतम सरकार, अधिकतम शासन के सिद्धांत के विपरीत है। खेती-किसानी से जुड़े मामलों का विभिन्न मंत्रालयों में बिखरा होना प्रशासनिक दृष्टि से भी उचित नहीं है।  

खाद्यान्न की खरीद, भंडारण, वितरण, चीनी उद्योग और आवश्यक वस्तुओं से स्टॉक लिमिट लगाने जैसे फैसले उपभोक्‍ता मामले, खाद्य और सार्वजनिक वितरण मंत्रालय लेता है। देश की खाद्य सुरक्षा और हरित क्रांति में अहम भूमिका निभाने वाला खाद्य विभाग भी पहले कृषि मंत्रालय के तहत आता था। साल 1983 में इसे कृषि मंत्रालय से अलग कर खाद्य एवं नागरिक आपूर्ति मंत्रालय की स्थापना की गई। बाद में उपभोक्ता मामलों का विभाग भी इसी में जुड़ गया।

कृषि से जुड़ी कई नीतियां और कार्यक्रम चलाने वाले उपभोक्‍ता मामले, खाद्य और सार्वजनिक वितरण मंत्रालय के महत्व का अंदाजा इस बात से लगा सकते हैं कि इसका सालाना बजट 2,56,948 करोड़ रुपये हैं जो कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय के 1,31,531 करोड़ रुपये के सालाना बजट से लगभग दोगुना है।

मनरेगा जैसी महत्वपूर्ण योजना चलाने वाला ग्रामीण विकास मंत्रालय भी कभी कृषि मंत्रालय में शामिल था। सन 1979 में इसे अलग मंत्रालय का दर्जा मिला। लेकिन 1985 में कृषि और ग्रामीण विकास को मिलाकर कृषि एवं ग्रामीण विकास मंत्रालय बनाया गया जिसमें सहकारिता और उर्वरक विभाग भी शामिल थे। यह राष्ट्रीय राजनीति में किसान नेताओं के दबदबे वाला दौर था और कृषि मंत्रालय देश के सबसे महत्वपूर्ण मंत्रालयों में शुमार किया जाता था।

1991 में ग्रामीण विकास अलग मंत्रालय बना और तब से स्वतंत्र मंत्रालय के तौर पर काम कर रहा है।  ग्रामीण विकास मंत्रालय का वार्षिक बजट भी कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय से ज्यादा है। ग्रामीण विकास मंत्रालय के साथ रहा पंचायती राज भी अब एक स्वतंत्र मंत्रालय है, जिसका सालाना बजट केवल 913 करोड़ रुपये है। कृषि मंत्रालय से अलग होने के बाद ऐसे कई छोटे-छोटे कई मंत्रालय बन गये हैं।

देश में बड़े बांधों के निर्माण और बहुद्देशीय परियोजनाओं के दौर में सिंचाई केंद्र सरकार का एक महत्वपूर्ण विभाग था जो सत्तर के दशक में कृषि एवं सिंचाई मंत्रालय के तहत अस्तित्व में रहा। यह विभाग भी 1985 में ही जल संसाधन मंत्रालय बन गया जो अब जल शक्ति मंत्रालय कहलाता है। इस तरह सिंचाई से जुड़ी परियोजनाएं भी कृषि मंत्रालय से बाहर हो गईं।

फर्टिलाइजर और फूड प्रोसेसिंग भी ऐसे विषय हैं जो कृषि मं त्रालय के पास थे। डिपार्टमेंट ऑफ फर्टिलाइजर 1991 में कृषि मंत्रालय से अलग होकर रसायन एवं उर्वरक मंत्रालय में चला गया जबकि फूड प्रोसेसिंग इंडस्ट्रीज को 2001 में स्वतंत्र मंत्रालय का दर्जा मिला। अस्सी के दशक में पर्यावरण एवं वन मंत्रालय के गठन के साथ ही कृषि मंत्रालय की फॉरेस्ट्री विंग भी अलग होकर नए मंत्रालय में जुड़ गई थी।

अब सहकारिता का स्वतंत्र मंत्रालय बनना कृषि मंत्रालय का वजूद घटने के क्रम में एक नई कड़ी है। कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने दावा किया है कि इससे सहकारिता के क्षेत्र को महत्व मिलेगा और गरीब वर्ग व किसानों के जीवन स्तर में बदलाव आएगा। हालांकि, कुछ इसी तरह के दावे नए जलशक्ति मंत्रालय के साथ-साथ जल संसाधन, नदी विकास व गंगा संरक्षण विभाग बनाते वक्त भी किये गए थे। लेकिन ये नए-नए नाम और प्रशासनिक तंत्र भी कोरोना की दूसरी लहर में शवों को गंगा नदी में बहने से नहीं रोक पाए।

हाल के वर्षों में कौशल विकास,  पशुपालन, जलवायु परिवर्तन के लिए बने अलग मंत्रालय भी नीतिगत स्तर पर कोई खास प्रभाव छोड़ने में नाकाम रहे हैं। इस बीच केंद्र सरकार ने शहरी विकास और आवास मंत्रालयों को मिलाकर मिनिमम गवर्नमेंट की दिशा में कदम बढ़ाने की कोशिश की हैं, कृषि मंत्रालय के विभाजन का सिलसिला जारी रहा है।

कृषि नीति के विशेषज्ञ देविंदर शर्मा मानते हैं कि अलग मंत्रालय बनने से सहकारिता पर फोकस बढ़ने की उम्मीद की जा सकती है। कृषि में सहकारिता के सफल मॉडल को आगे बढ़ाने की जरूरत है। अगर सहकारिता को बढ़ावा देने के लिए नया मंत्रालय बनाया गया है तो यह स्वागत योग्य कदम है। लेकिन साथ ही वे यह भी मानते हैं कि खेती-किसानी से जुड़े विषयों के अलग-अलग मंत्रालयों में बंटने से कृषि से जुड़ी समग्र नीतियां बनाने में बाधा उत्पन्न हो सकती है।