उत्तराखंड सरकार ने राज्य की कृषि भूमि को लीज पर देने के प्रस्ताव को मंजूरी दे दी है। अब कोई भी व्यक्ति या संस्था उत्तराखंड में 30 सालों के लिए जमीन लीज पर ले सकता है। सरकार का कहना है कि इससे उत्तराखंड वासियों को बंजर या खाली पड़ी जमीन से भी आमदनी होगी और उत्तराखंड की अर्थव्यवस्था को फायदा होगा, लेकिन क्या ऐसा होगा?
जानेमाने कृषि विशेषज्ञ देविंदर शर्मा कहते हैं कि अब तक उत्तराखंड में बटाई पर तो खेती की जमीन देते थे, लेकिन उद्योगपतियों को जमीन लीज पर देने का मतलब किसान अपनी ही जमीन का श्रमिक बन जाएगा। उत्तराखंड ऐसा पहला राज्य है, जो इस तरह का कदम उठा रहा है। देविंदर कहते हैं कि उत्तराखंड धीरे-धीरे कॉन्ट्रेक्ट फार्मिंग (ठेके पर खेती) की ओर बढ़ रहा है। लेकिन अब तक के ज्यादातर अध्ययन से पता चलता है कि कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग बहुत उपयोगी साबित नहीं हुई है।
वह सरकार की मंशा पर सवाल खड़े करते हुए कहते हैं कि सरकार कॉर्पोरेट्स को पैसा देने को तैयार है, लेकिन किसान को देने को तैयार नहीं। कंपनियों के लिए सरकार निवेश कर सकती है, लेकिन किसान की सुविधा के लिए नहीं। यही वजह है कि अब किसान खेती करना ही नहीं चाहता। अपने बच्चों से खेती नहीं करवाना चाहता। फिर जमीन का क्या होगा। अब हम इस स्तर पर आ पहुंचे हैं कि बंजर खेत उद्यमियों को देने की नौबत आ गई है। वह हिमाचल प्रदेश का उदाहरण देते हैं, जहां देश के सबसे समृद्ध गांव हैं। वहां के किसान भी खेती छोड़कर शहरों में बसना चाहते हैं। ऐसी मानसिकता बन गई है कि आप शहर के दो कमरों में रहना चाहते हैं लेकिन गांव के बड़े घर में नहीं। जबकि वहां सारी सुविधाएं मौजूद हैं।
दरअसल सरकार चकबंदी लागू करने में असफल रही तो अब यह तरीका निकाला है। राजभवन से अनुमति मिलने के बाद 21 जनवरी को अधिसूचना जारी कर दी गई है। उत्तर प्रदेश जमींदारी उन्मूलन और भू-सुधार कानून-1950 में संशोधन के बाद यह व्यवस्था अब लागू हो गई है। इसके तहत किसान अधिकतम 30 एकड़ तक ज़मीन खेती, हॉर्टीकल्चर, जड़ी-बूटी उत्पादन, पॉलीहाउस, दुग्ध उत्पादन और सौर ऊर्जा के लिए किसी व्यक्ति, कंपनी या गैर-सरकारी संस्था को 30 वर्ष के लिए लीज पर दे सकता है। इसके बदले उसे किराया मिलेगा। जिलाधिकारी के मार्फत ये कार्य किया जा सकेगा।
पर्यावरणविद जगत सिंह जंगली कहते हैं कि ये लोगों की गलती है, जिस जमीन पर हमारे पुरखों के फुटप्रिंट्स दर्ज हैं, वो लीज़ पर दी जा सकेगी। हमने अपने खेतों को बंजर छोड़ा। अगर खेती नहीं कर रहे थे तो पेड़ ही लगा देते। जंगली कहते हैं कि जिस ज़मीन को बंजर छोड़ हमारे लोग दिल्ली-मुंबई कूच कर गए हैं, महानगरों में बढ़ता प्रदूषण एक बार फिर उन्हें अपने पहाड़ों की ओर लौटने को विवश करेगा। आज से दो पीढ़ी पहले तक यही खेत अन्न के भंडार थे। जिन पर कई पीढ़ियां निर्भर रहीं। जलवायु परिवर्तन ने भी पहाड़ की खेती को प्रभावित किया। समय से बारिश न होना, अत्यधिक बारिश होना, जैसी अप्रत्याशित घटनाओं के चलते भी लोगों ने खेती छोड़ी। आज जंगली जानवर हमारे खेतों में घुस गया है।
टिहरी के किसान विजय जड़धारी कहते हैं कि यह कदम पहाड़ के हित में नहीं है। सरकार लोगों को खेती के लिए प्रशिक्षित नहीं कर सकी। जब वे पलायन कर रहे थे और उन्हें इकट्ठा करने का कोई प्रयास नहीं किया गया। जड़धारी पूछते हैं कि स्टार्टअप योजना, कौशल प्रशिक्षण केंद्र पर दी जा रही ट्रेनिंग का क्या हुआ। आप गांव के लोगों को सोलर पैनल लगाने की ट्रेनिंग देते। उन्हें एकजुट करके चाय बगान लगवाते। जड़धारी चंबा के आगे कौठिया क्षेत्र में बने बंदरबाड़े का उदाहरण देते हैं। जहां बंदरों को नसबंदी करायी जानी थी। लेकिन वहां सिर्फ इमारत खड़ी नजर आती है। पूरा बंदरबाड़ा सूना है। ऐसे ही खेती को नुकसान पहुंचा रहे कुछ जगहों पर जंगली सूअर को मारने के आदेश जारी किए। लेकिन क्या लोग इस काम को करेंगे। ये लोगों के बस की बात नहीं।
रिवर्स माइग्रेशन का उदाहरण बने पौड़ी के किसान सुधीर सुंद्रियाल कहते हैं कि स्थानीय लोग भरोसा करने को तैयार नहीं है कि इन बंजर खेतों में अब गोभी, ब्रोकोली के फूल दिख सकते हैं। पौड़ी के पोखड़ा और एकेश्वर ब्लॉक में कई किलोमीटर तक बंजर ही बंजर जमीन दिखती है। इस बंजर को आबाद करने की ताकत यहां के स्थानीय आदमी में नहीं है। इसलिए मौजूदा हालात में ये मॉडल जरूरी है।