भारतीय कृषि को इसकी मौजूदा दुर्दशा से बाहर निकालने के लिए कृषि विपणन और कृषि विस्तार (वैज्ञानिक कृषि ज्ञान का प्रसार) व्यवस्था में सुधार की तत्काल जरूरत है। साथ ही जमीन को टुकड़े होने से बचाने और किसानों के अनुकूल एक्जिट पॉलिसी भी बनाने की जरूरत है। 1929 से भारतीय कृषि की एक ही वास्तविक समस्या रही है। ये किसानों के लिए शुरू से गैर-लाभकारी व्यवसाय रहा है। अमेरिकन सिविल वार ने भारतीय कॉटन को विश्व बाजार से गायब कर दिया। तभी से भारतीय कृषि हाशिये पर धकेल दी गई।
महामंदी के बाद द्वितीय विश्व युद्ध ने कृषि उत्पादों की कीमत कम कर दी और साथ ही अन्न का अभाव भी पैदा हुआ। अंग्रेजों ने भारत से सस्ता अनाज खरीद कर वापस भारत को ही महंगा उत्पाद (मैन्युफैक्चर्ड) भेजने की नीति अपना ली। भारतीय उद्योग भी इसी नीति का फायदा उठाने लगे। आजादी अपने साथ विभाजन की त्रासदी लेकर आई। ज्यादा अन्न उपजाने वाले कुछ राज्य पाकिस्तान के हिस्से में चले गए और वहां से आए शरणार्थियों की वजह से अन्न की कमी और अधिक बढ़ गई।
नौकरशाही पर सरकार की निर्भरता और समाजवाद की आरंभिक सोच ने इंस्पेक्टर राज को जन्म दिया, जिसे राजनीतिक लोकप्रियता के तहत “कम लागत वाली अर्थव्यवस्था” (लो कॉस्ट इकॉनमी) कहा गया। इस नीति में किसानों के खिलाफ अंतर्निर्मित पक्षपात छुपा हुआ था। समाज के समाजवादी पैटर्न ने चीजों को और खराब ही किया, क्योंकि औद्योगीकरण के लिए सस्ता कच्चा माल और श्रम की जरूरत थी।
1960 की हरित क्रांति ने अन्न की कमी को तो खत्म कर दिया लेकिन इसने खेती की लागत बढ़ा दी। इससे खाद, कीटनाशक, बिजली के दाम महंगे होते चले गए। मार्केटिंग सिस्टम और बुनियादी ढांचे की कमजोरी ने कृषि को एक बार फिर नुकसान का सौदा बना दिया। कृषि मूल्य आयोग (एपीसी) की स्थापना और न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की शुरुआत से 1965-1970 के बीच चीजें सुधरनी शुरू हुईं।
इसके बाद जब एपीसी की जगह कमिशन फॉर एग्रीकल्चरल कॉस्ट्स एंड प्राइस (सीएसीपी) बना, तब एक ऐसा समय भी आया, जब कमिशन द्वारा सुझाए गए एमएसपी को इरादतन कम कर दिया जाता था और इस तरह किसानों को दिया जाने वाला न्यूनतम मूल्य ही उच्चतम मूल्य बन गया। व्यापार और निर्यात पर प्रतिबंध, भंडारण की अपर्याप्त व्यवस्था, प्रोसेसिंग, यातायात की समस्या ने आगे भारतीय कृषि को और अधिक नुकसानदायक स्थिति में पहुंचा दिया।
1990 का आर्थिक सुधार उद्योग और वित्त जगत तक ही सीमित रहा। कृषि क्षेत्र को इस सुधार प्रक्रिया से दूर ही रखा गया। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के शासनकाल में मार्केटिंग के मोर्चे पर कुछ सुधार के काम हुए। जब सुधार के दूसरे चरण का समय आया, तब एक बार फिर यूपीए सरकार के समय कृषि को राज्य के अधीन विषय बताकर छोड़ दिया गया। अब दूसरी हरित क्रांति की भी बात हो रही है। आम लोग भी समझ रहे हैं कि कृषि विपणन व्यवस्था के मौजूदा हालात को सुधारने की आवश्यकता है। किसानों द्वारा आत्महत्या के बाद इन सुधारों की जरूरत और तीव्रता से महसूस की गई। दुर्भाग्य से जब कांग्रेस पार्टी की सोच में बदलाव आया, तब उसके लेफ्ट के सहयोगी उन पर हावी रहे। नतीजतन, यूपीए सरकार ऐसे बदलाव लाती रही, जो अप्रासंगिक और अनुचित थे।
जीडीपी विकास दर अब दोहरे अंक में प्रवेश करने जा रही है, लेकिन कृषि विकास दर अब भी 3 फीसदी की रेखा पार करने के लिए जद्धोजहद कर रही है। नीति-निर्माता कृषि क्षेत्र के 4 फीसदी विकास दर सुनिश्चित करने पर जोर दे रहे हैं। जाहिर है, कृषि के उच्चतम विकास दर का स्वागत किया जाना चाहिए। लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि 4 फीसदी का लक्ष्य जीडीपी विकास दर और कृषि उत्पाद के बीच सह-संबंध का अध्ययन किए बिना तय किया गया था। विशेषज्ञ 4 फीसदी लक्ष्य की बात तब भी कर रहे थे, जब जीडीपी महज 6 फीसदी थी और तब भी 4 फीसदी की ही बात कर रहे हैं, जब यह 9 फीसदी से ऊपर चली गई है। ग्रामीण एवं कृषि व्यापार के सहकारी स्वरूप को लेकर फिर से विचार किए जाने की जरूरत है। सहकारिता का मॉडल फेल हो चुका है, सिवाए कुछ अपवादों के जहां नेतृत्व बहुत मजबूत था या जहां एकाधिकार वाली स्थिति थी। हरित-क्रांति से पूर्व के दिनों में अन्न की कमी एक समस्या थी और आज भी है, जब भारत कई खाद्यानों का मुख्य उत्पादक देश बन चुका है।
खाद्य सुरक्षा की बात को सही साबित करने के क्रम में “खाद्य सुरक्षा” की परिभाषा को ही विस्तृत बनाया जा रहा है। खाद्य सुरक्षा का अर्थ सिर्फ खाद्यान की भौतिक उपलब्धता भर नहीं है। इसका अर्थ यह भी है कि इसे पाने के लिए पर्याप्त क्रय शक्ति का होना, पानी की उपलब्धता होना, पर्याप्त साक्षरता होना और महिला सशक्तिकरण का होना। “खाद्य सुरक्षा” के दायरे को विस्तृत बनाने में एनजीओ का अपना कुछ छुपा हित हो सकता है। सरकार फूड सिक्योरिटी मिशन बनाते समय एक लोकप्रिय दबाव से झुकी रहती है। ये मिशन “अधिक अन्न उपजाओ” की रणनीति को अपना रहा है। ये वैसी ही रणनीति है, जो 1960 से पूर्व की अवधि में फेल हो चुकी है। इसमें बुनियादी ढांचे और तकनीक पर जोर है, जबकि किसानों को आर्थिक लाभ देने पर तकरीबन नगण्य ध्यान दिया गया है।
वाम अर्थशास्त्रियों के विचार ने भी कृषि बहस को बहुत अधिक प्रभावित किया है, जिसमें वे सीमांत और छोटे किसानों की स्थिति पर बहुत अधिक जोर देते हैं। तथ्य यह है कि किसी एक किसान के पास जमीन का आकार आर्थिक स्थिति के मुकाबले परिवार की एकजुटता पर निर्भर करता है। छोटी जोत वाले किसान आमतौर पर ऐसे परिवारों से आते हैं, जहां भाइयों के बीच हर पीढ़ी के दौरान जमीन का बंटवारा होता रहा है। गौरतलब है कि ये अर्थशास्त्री ऑपरेशनल कंसोलिडेशन (चकबन्दी) का रास्ता नहीं सुझाते, बल्कि आगे और अधिक बंटवारे और भूमि सुधार की सिफारिश करते हैं। यह बंद होना चाहिए। इसी तरह ग्रामीण परिदृश्य में महाजनों के खिलाफ भी एक पूर्वाग्रह की स्थिति है।
सत्य यही है कि औपचारिक ऋण संगठन पर जोर देने के बाद भी ग्रामीण अर्थव्यवस्था में अनौपचारिक रूप से ऋण देने वाले महाजनों ने कृषि ऋण क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। उनका ब्याज दर या कर्ज वसूलने के तरीके भी उतने बुरे नहीं, जितने माइक्रो फाइनैंस संगठनों के होते हैं। बांग्लादेश मॉडल की नकल के बजाए बेहतर होगा कि हम महाजनों की व्यवस्था को ही औपचारिक ऋण संस्थान के रूप में मान्यता दें और “यूजयूरियस लोन एक्ट” (ज्यादा ब्याज वसूलने से संबंधित कानून) की समीक्षा करें, ताकि ग्रामीण अर्थव्यवस्था से इस घृणित प्रथा को खत्म किया जा सके।
कृषि क्षेत्र से संबंधित कई ऐसे मुद्दे हैं, जो आजादी के दिनों से लेकर आज तक प्रासंगिक बने हुए हैं। फिर भी, कुछ ऐसे मुद्दों की सूची बनाना लाभकारी होगा, जिसका सामना आने वाले दशकों में भारतीय कृषि क्षेत्र को करना होगा। ज्यादातर किसान कृषि कार्य में इसलिए शामिल हैं, क्योंकि उनके माता-पिता उनके लिए जमीन छोड़ कर गए हैं। सर्वे के अनुसार, अगर विकल्प दिया जाए तो ज्यादातर किसान आज ही किसानी का काम त्याग देंगे। दूसरी ओर जिनके पास पैसा है, प्रबन्धकीय कौशल है और तकनीक से परिचित है, वे इस क्षेत्र में आने को लेकर अनिच्छुक हैं। कृषि भूमि घट रही है और बाजार जमीन के बदले आकर्षक पैसा देने के लिए तैयार है। ऐसी स्थिति में स्पेशल इकोनोमिक जोन के लिए जमीन का आवश्यक अधिग्रहण अनुचित होगा। किसानों के अनुकूल एक एक्जिट पॉलिसी (बाहर निकलने का रास्ता) बनाना बेहतर विचार होगा, जहां किसानों के पास यह अधिकार हो कि वह अपनी मर्जी से या तो कृषि कार्य करता रहे या अपनी जमीन बेच दे। वैश्वीकरण की प्रक्रिया का तब तक कोई खास अर्थ नहीं होगा, जब तक कि उत्पादन के कारकों का इंटर-सेक्टोरल ट्रांसफर न हो।
भारत वैश्विक तापमान जैसी नई आपदा को झेलने के लिए तैयार नहीं है। 1960 से किए जा रहे बेहतर प्रयास इस आपदा की वजह से धूल में मिल जाएंगे। अधिक उपज देने वाले बीज, जो हरित क्रांति के दौरान अच्छा मुनाफा देते रहे हैं, शायद तब ऐसी भूमिका न निभा पाएं, जब अचानक तापमान और मौसम की स्थिति में तेजी से बदलाव आने लगे।
बजट भाषण में वित्तमंत्री स्वीकार कर चुके हैं कि कृषि विस्तार और इनपुट सब्सिडी की व्यवस्था चरमरा चुकी है। कृषि विस्तार व्यवस्था को वेतनभोगी सलाहकार कर्मचारी के बजाए कमिशन आधारित सलाहकार में बदले जाने की जरूरत है। आज किसानों को खाद या भोजन पर दी जाने वाली सब्सिडी का मजाक बनाया जाता है। यह रुकना चाहिए। सीधे किसानों तक सब्सिडी का सही लाभ पहुंचाना कोई बहुत कठिन काम नहीं है, बशर्ते ऐसा करने की राजनैतिक इच्छाशक्ति हो।
(लेखक शेतकारी संगठन के राष्ट्रीय अध्यक्ष रहे हैं। लेख अकैडमिक फाउंडेशन द्वारा प्रकाशित किताब डाउन टू अर्थ से साभार)