कृषि

चारा संकट की जड़ें, भाग दो: पशुओं की आबादी बढ़ी, लेकिन चारागाहों में आई कमी

आजादी के बाद से देश में कुल दर्ज चारागाह भूमि में 30 प्रतिशत से अधिक की कमी आई है

Deo Narayan Singh

देश में पशुओं के लिए चारा एक बड़ी समस्या बन गया है। चारा संकट की जड़े तलाशती इस रिपोर्ट के पहले भाग में आपने पढ़ा, हरित क्रांति के समय से शुरू हो गई थी समस्या । पढ़ें अगली कड़ी - 

सालाना लगभग 280 मिलियन टन चारा स्थायी चारागाह और चराई भूमि, जिसमें जानवरों के चरने की सामुदायिक भूमियां भी शामिल हैं, से प्राप्त होता है । लेकिन भारत में चारागाह और चारागाह भूमि के स्पष्ट सीमांकन और प्रबंधन के लिए कोई निर्दिष्ट नीति नहीं है। इस तरह के निर्दिष्ट और सहायक भूमि अभिलेखों और नक्शों के अभाव में, इन गैर-निर्दिष्ट चारागाहों को धीरे-धीरे अन्य भूमि उपयोगों में परिवर्तित किया जा रहा है, जिसके परिणामस्वरूप चारागाहों के आकार में गिरावट आई है जो पहले से ही खंडित हैं। भारत के योजना आयोग (2015 से नीति आयोग द्वारा प्रतिस्थापित), वानिकी और सतत प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन पर कार्यकारी समूह के तहत गठित चारा और चारागाह प्रबंधन पर उप समूह III, ने अपनी रिपोर्ट में 2011 में बताया है कि देश के चारागाह 1947 में 70 मिलियन हेक्टेयर से घटकर 1997 में लगभग 38 मिलियन हेक्टेयर हो गए हैं।

चारागाह क्षेत्रफल में इस कमी का अधिकांश भाग सामुदायिक जमीनों के अन्यान्य उपयोग में लेने के कारण हुई है। इसके अलावा, अधिकांश चारागाह भूमि, जिसमें चारागाह, झाड़ीदार वन, परती, अनुपयोगी अपशिष्ट और गांव के कॉमन शामिल हैं, पर आक्रमणकारी विदेशी पौधों की प्रजातियों (विदेशी खरपतवार), जैसे कि लैंटाना, पार्थेनियम, यूपेटोरियम, ल्यूकेना, प्रोसोपिस जुलीफ्लोरा आदि द्वारा आक्रमण किया गया है। इससे इन क्षेत्रों की उत्पादकता में काफी कमी आई है। इनमें से कुछ विदेशी खरपतवार इन क्षेत्रों के लंबे समय से खराब प्रबंधन के कारण फैल गए हैं। कुछ प्रजातियां जैसे ल्यूकेना और प्रोसोपिस जुलीफ्लोरा ने देसी घास और चारे की प्रजातियों को खत्म कर दिया है। इसी प्रकार चारे की आपूर्ति बढ़ाने के लिए चारागाहों पर रखी गई कई विदेशी पौधों की प्रजातियों ने स्थानीय चारे की प्रजातियों का दमन किया है।

जनसंख्या के बढ़ते दबाव और औद्योगीकरण ने स्थायी चारागाहों और चारागाहों को खेती योग्य भूमि और अन्य उपयोग के लिए मोड़ने पर दबाव डाला है। यह अनुमान लगाया गया है कि आजादी के बाद से देश में कुल दर्ज चारागाह भूमि में 30 प्रतिशत से अधिक की कमी आई है। चारागाह की क्षेत्रफल में यह कमी ज्यादातर सामुदायिक चराई वाली जमीनों के अन्यान्य उपयोगों हेतु लिए जाने से हुई है। इसी प्रकार अधिकांश चारागाहों (जिनमें स्थायी चारागाह, झाड़ीदार जंगल, ग्रामीण सामुदायिक भूमियां/शामलात शामिल हैं) में आक्रामक विदेशी प्रजातियों के खरपतवारों जैसे गाजर घास (पार्थेनियम), लैंटाना, प्रोसोफिस जुलीफ्लोरा, युपेतोरियम, ल्युसीना आदि ने अतिक्रमण कर लिया है। ये खरपतवार इन भूमियों के खराब रखरखाव व प्रबंधन के कारण ही अपनी जड़ें जमा सके हैं।

बढ़ती आबादी और औद्योगिकीकरण से भी स्थायी चारागाह एवं सामुदायिक भूमियों, जो अभी तक चारागाह के रूप में प्रयोग होती थी को खेती तथा दूसरे उपयोगों के लिए स्थानांतरित करने का दबाव पड़ रहा है। एक अनुमान के अनुसार, आजादी के बाद से स्थायी चारागाहों की जमीन 30 प्रतिशत से भी ज्यादा घट गई है। यह भी ध्यातव्य है कि चारा एक स्थूल उत्पाद होने के कारण लंबी दूरी तक इसका परिवहन लागत प्रभावी (आर्थिक रूप से लाभकारी) नहीं है। ऐसे में देशव्यापी चारे की कमी की बजाय क्षेत्रीय एवं मौसमी मांग व आपूर्ति इसके दामों को अधिक प्रभावित करती है।


सरकारी नीतियों में चारे की उपेक्षा

सकल घरेलू उत्पाद में लगभग 15.4 प्रतिशत का योगदान और 70 प्रतिशत आबादी को आजीविका प्रदान करने वाले क्षेत्र कृषि को राष्ट्रीय बजट में मात्र 3.1 प्रतिशत की हिस्सेदारी मिलना सरकार की उपेक्षा स्पष्ट बयां करता है। सकल घरेलू उत्पाद में 4.1 प्रतिशत का योगदान करने वाले पशुपालन क्षेत्र को बजट में 0.1 प्रतिशत से भी कम का प्रावधान किया जाता है। यही हाल लगभग सभी राज्य सरकारों का भी है। विकास परियोजनाओं के लिए भूमि हस्तांतरण, भूमिहीनों को भूमि आवंटन, वृक्षारोपण तथा वाटर शेड प्रबंधन परियोजना के अंतर्गत भूमि आरक्षित करना, सामुदायिक ग्रामीण भूमियों के प्रबंधन में स्थानीय शासी निकायों को शामिल न करना, अवहनीय उपयोग, अतिचारण, राष्ट्रीय/राज्य स्तर पर चारे के लिए एक संगठित बाजार का अभाव, व्यापक राष्ट्रीय चारागाह एवं चराई नीति का अभाव आदि ऐसे अनेक नीतिगत कारण हैं जिन्हें वर्तमान चारा संकट के लिए उत्तरदायी माना जा सकता है।

अति चारण और अन्य अनियंत्रित गतिविधियों की वजह से अधिकांश वन भूमियां (लगभग 78 प्रतिशत) पहले ही बंजर या ऊसर हो गई हैं जिनकी उपजाऊ क्षमता बहुत कम है। ऐसी पशुपालन नीतियां जिनमें प्रति पशु उत्पादकता बढ़ाने की बजाय केवल कुल उत्पादन बढ़ाने पर जोर दिया जाता है, पशुओं की संख्या बढ़ाकर लक्ष्य को हासिल करती हैं, जिससे सीमित चारा संसाधनों में और अधिक दबाव पड़ता है। हमारे दुधारू पशुओं की उत्पादकता औसत उत्पादकता 1,538 लीटर प्रति पशु प्रतिवर्ष वैश्विक औसत (2,238) से बहुत कम है। पशुपालन नीतियां जो चारे के संसाधनों में सुधार करके उत्पादकता बढ़ाने की बजाय पशुओं की संख्या बढ़ाकर उत्पादन लक्ष्य को हासिल करने पर जोर देती हैं, भी चरागाहों और अन्य चारा संसाधनों के विकास पर प्रतिकूल असर डालती हैं ।

यह सच है कि दुनिया का दूसरा सबसे अधिक आबादी वाला देश, जिसके पास दुनिया के केवल 2.3 प्रतिशत भूमि संसाधन हैं, सीमित कृषि योग्य भूमि को चारे के उत्पादन के लिए देने का जोखिम नहीं उठा सकता है। लेकिन दुनिया की सबसे बड़ी पशुधन आबादी के लिए चारे की उपलब्धता सुनिश्चित करना भी उतना ही महत्वपूर्ण है। ऐसे में निम्नलिखित रणनीतियों को अपनाकर इन दोनों अहम जरूरतों के बीच संतुलन प्राप्त किया जा सकता है:

- सरकारों को एक व्यापक राष्ट्रीय चारा और चारागाह प्रबंधन नीति की बनानी चाहिए जिसमें चारा एवं चारागाह भूमि के स्पष्ट सीमांकन के प्रावधान हों और सीमांत भूमि पर चारे की खेती को बढ़ावा दिया जाए। चारे के लिए एक संगठित बाजार विकसित करने और चारा फसलों के लिए समर्थन मूल्य जैसी व्यवस्था करने की आवश्यकता है। गांव सामुदायिक भूमियों (शामलात) को चारागाह के रूप में विकसित किया जाना चाहिए। सरकार के कब्जे वाली खेती योग्य भूमि, जैसे कि केंद्रीय रक्षा मंत्रालय और भारतीय रेलवे की तमाम खली पड़ी जमीनों को भी चारागाह भूमि के रूप में विकसित किया जा सकता है।

- शोधकर्ताओं को अनाज की उपज को प्रभावित किए बिना लंबे, स्वादिष्ट डंठल वाली खाद्यान्न फसलों की किस्मों, विशेष रूप से चावल और गेहूं के विकास पर ध्यान देना चाहिए। देश के विभिन्न कृषि-जलवायु क्षेत्रों में खेती के लिए उपयुक्त चारा फसल फसलों की तेजी से बढ़ने वाली, कम अवधि व बहु-कटाई वाली प्रजातियों को विकसित करने की आवश्यकता है।

- किसानों को चाहिए कि फसल अवशेषों को जलाना बंद करें तथा इसको पशुधन के चारे के रूप में स्वयं उपयोग करें या बाजार में बेचकर आर्थिक लाभ लें, संगठित चारा बाजार और समर्थन मूल्य जैसी व्यवस्था के विकास से इसे बढ़ावा मिलेगा। पशु पालकों को भी केवल सूखे चारे और सांद्रित राशन पर निर्भर नहीं रहना चाहिए; इसके बजाय खेती योग्य भूमि में बरसीम, लोबिया, चारा मक्का, ज्वार/चरी जैसी छोटी अवधि की चारा फसलों को फसल चक्र में शामिल करके उगाना चाहिए । नेपियर घास जैसी बारहमासी घास की खेती के लिए मेढ़ों, नहर क्षेत्रों और खेत की सीमांत भूमि का उपयोग किया जा सकता है। बेबी कॉर्न, एक नकदी-सह-चारा फसल है जिसे 90 दिनों से भी कम समय में उगाया जा सकता है।

देश में चारा उत्पादन आवश्यकता से काफी कम है और पशुधन की संख्या में वृद्धि, फसल पद्धति में बदलाव और मौजूदा चराई संसाधनों के क्षरण के कारण मांग और आपूर्ति के बीच का अंतर हर साल बढ़ रहा है। समस्या का समाधान खोजने की तत्काल आवश्यकता है, जिसे सभी हितधारकों-डेयरी किसानों, सरकार और शोधकर्ताओं के व्यापक और सहयोगात्मक प्रयासों के माध्यम से हासिल किया जा सकता है। एक व्यापक राष्ट्रीय चारा और चारागाह प्रबंधन नीति को तुरंत लागू किया जाना चाहिए। 1988 में पर्यावरण मंत्रालय की चारा और घास पर समिति और योजना आयोग के घास के मैदानों व रेगिस्तानों पर कार्य बल की रिपोर्ट (2006) और सिफारिशों के आधार पर चारागाह भूमि और चारा संसाधनों की बहाली और सुधार के लिए बनी योजना के पुनरावलोकन, अद्यतनीकरण करने और नए शिरे से विकसित करने का भी समय आ गया है।

(लेखक वाराणसी स्थिति उदय प्रताप स्वायत्तशासी महाविद्यालय में सस्य विज्ञान विभाग में सहायक प्राध्यापक हैं)