मध्य प्रदेश के धार जिले में अवैध जीएम कपास बीजों का गुपचुप विस्तार हो रहा है।
किसानों को इन बीजों की जानकारी अन्य किसानों या एजेंटों से मिलती है।
ये बीज गुलाबी सुंडी और खरपतवारनाशी के प्रतिरोधी हैं, लेकिन तकनीकी रूप से अवैध हैं।
सरकार की नीतियों की कमी और नियामकीय खामियों के चलते यह समस्या बढ़ रही है।
इस साल मई के महीने में मध्य प्रदेश के धार जिले की मनावर तहसील के कवाठी गांव में बीज और कीटनाशक की एक दुकान पर जाने के दौरान मैंने ग्लाइफोसेट नामक खरपतवारनाशी की सजी-धजी बोतलें देखीं। यह दवा अक्सर खरपतवार नियंत्रण के लिए उपयोग की जाती हैं। हालांकि यह इंसानों और पर्यावरण पर इसके संभावित दुष्प्रभावों को लेकर कुख्यात है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की इंटरनेशनल एजेंसी फॉर रिसर्च ऑन कैंसर (आईएआरसी) इसे “मनुष्यों के लिए संभवतः कैंसरकारी” बताती है। कई अध्ययनों का मानना है कि यह मिट्टी में सूक्ष्मजीवों के असंतुलन और “सुपरवीड्स” यानी दवाओं से प्रतिरोधी खरपतवारों के उभरने का कारण भी बन सकती है।
दुकान के एक सहायक से ग्लाइफोसेट पर बात करते-करते चर्चा खरपतवारनाशी सहिष्णु यानी दवा को सह सकने वाले बीजों पर चली गई। उसने मुझे गुजरात से लाए गए कुछ बीज पैकेट दिखाए, जिन पर “युगम 5जी” और “बाहुबली 4जी” लिखा था। उसने बताया कि ये बीज कपास की एक बड़ी कीट समस्या गुलाबी सुंडी से बचाव करते हैं और साथ ही ग्लाइफोसेट के प्रति भी सहिष्णु हैं। उसने कहा कि इन बीजों की बहुत मांग है।
इस बातचीत में दुकान का मालिक भी शामिल हुआ और उसने स्वीकार किया कि ये बीज तकनीकी रूप से अवैध हैं और सिर्फ उसकी अपनी जमीन पर उपयोग के लिए रखे गए हैं। “तकनीकी रूप से अवैध” कहने का कारण यह था कि चूंकि बीज गुलाबी सुंडी और खरपतवारनाशी दोनों के प्रतिरोध का दावा कर रहे थे, इसलिए यह संकेत मिलता था कि ये जेनेटिकली मॉडिफाइड (जीएम) बीज हैं लेकिन पैकेट पर ऐसा कुछ लिखा नहीं था।
भारत में अभी तक ऐसे जीएम कपास को व्यावसायिक खेती की इजाजत नहीं है, जो खरपतवार मारने वाली दवा को भी झेल सके। भारत सरकार ने अब तक बोलगार्ड I (बीजी ) और बोलगार्ड II (बीजी II) नाम के सिर्फ दो जीएम कपास किस्मों को मंजूरी दी है। इन्हें अमेरिका की कंपनी मॉनसेंटो ने विकसित किया था और भारत में इसकी संयुक्त कंपनी महायको-मॉनसेंटो बोटेक लिमिटेड ने बाजार में उतारा। इन्हें बीटी कपास कहा जाता है क्योंकि इनमें बैसिलस थ्यूरिनजिनेसिस नामक जीवाणु का एक जीन जोड़ा गया है जो इसकी गुलाबी सुंडी से रक्षा करता है।
मॉनसेंटो ने तीसरी पीढ़ी की एक किस्म बीजी II राउंडअप रेडी फ्लेक्स (बीजी II आरआरएफ) भी विकसित की थी, जिसमें कीट प्रतिरोध और खरपतवारनाशी सहिष्णुता दोनों गुण मौजूद हैं। 2015 में महायको-मॉनसेंटो ने इसे भारत में स्वीकृति के लिए पेश किया लेकिन 2016 में फील्ड ट्रायल के बाद इसे सरकार की नीतियों को लेकर चिंताओं के चलते वापस ले लिया।
बाद में 2021 में जर्मनी की कंपनी बायर (जिसने मॉनसेंटो का अधिग्रहण किया) ने दोबारा आवेदन किया। यह अब भी जेनेटिक इंजियनियरिंग अप्रेजल कमेटी (जीईएसी) और अन्य संस्थाओं की मंजूरी का इंतजार कर रहा है। इसके बावजूद खरपतवारनाशी सहिष्णु कपास के बीज सिर्फ कवाठी ही नहीं बल्कि पूरे धार जिले के गांवों में बिक रहे हैं और बोए जा रहे हैं।
मनावर तहसील के गांगली गांव में एक किसान ने दूसरे किसानों को “ग्लाइफो गार्ड 4जी” नामक बीज पैकेट दिखाए, जो उसने गांधीनगर से निजी संबंधों के जरिए हासिल किए थे। वह इसे लेकर काफी आशावादी था और उसने अपने रिश्तेदारों को भी इसकी बुआई शुरू करने को कहा था। जब उससे पूछा गया कि पैकेट पर लिखे वितरक “ग्लाइफो फार्म्स” से मिला जा सकता है या नहीं तो उसने कहा कि शायद वह कंपनी असल में अस्तित्व में ही न हो।
मीडिया रिपोर्टों में भी ऐसे कई मामले सामने आए हैं। न सिर्फ मध्य प्रदेश बल्कि महाराष्ट्र और गुजरात से भी ऐसे मामले उजागर हुए। मिसाल के तौर पर जून की शुरुआत में खबर आई कि महाराष्ट्र से 15 लाख रुपए मूल्य के 700 से अधिक बिना अनुमति वाले बीटी कपास बीज पैकेट जब्त किए गए। गौर करने लायक है कि भारत में मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और गुजरात सबसे बड़े कपास उत्पादन क्षेत्र हैं। यह तीनों राज्य मिलकर भारत का सबसे बड़ा कपास उगाने वाला क्षेत्र बनाते हैं। कृषि मंत्रालय की 2023 की रिपोर्ट एग्रीकल्चरल स्टैस्टिक्स एट ए ग्लांस के मुताबिक साल 2022-23 में देश की कुल 1.237 करोड़ हेक्टेयर कपास क्षेत्र में से लगभग 56 फीसदी हिस्सा इन्हीं राज्यों का था।
यह समझने के लिए कि खरपतवारनाशी-सहिष्णु कपास बीज किस हद तक फैल चुके हैं, मैंने मई में धार जिले के पांच गांवों के 80 से अधिक किसान परिवारों से बातचीत की। सभी किसानों ने माना कि वे जानते हैं कि वह किस्में जिन्हें स्थानीय तौर पर “4जी” या “5जी” बीज कहा जाता है, दरअसल वह अवैध हैं। इसके बावजूद, लगभग आधे किसानों ने स्वीकार किया कि उन्होंने पिछले पांच सालों में कम से कम एक बार इन्हें खरीदा और बोया ताकि कीट-प्रतिरोध और खरपतवारनाशी-सहिष्णुता दोनों का फायदा उठा सकें।
किसानों ने जिन बीजों के नाम बताए उनमें युगम 5जी, बाहुबली 4जी, ग्लाइफो गार्ड 4जी, किलर, हनी 4जी, रुद्र प्लस, राफेल-1 4जी, व्हाइट गोल्ड 5जी और निर्भय 4जी शामिल थे। जब उनसे पूछा गया कि उन्हें इन बीजों के बारे में जानकारी कहां से मिली तो किसानों ने बताया कि उन्हें इन बीजों की जानकारी या तो अन्य किसानों से मिली थी या फिर कंपनियों के एजेंट गांवों में आए थे। कुछ ने कहा कि कंपनियां जानकारी बांटने के लिए व्हाट्सऐप पर ग्रुप भी बनाती हैं। कवाठी गांव के एक किसान ने बताया कि एक कंपनी ने अलग-अलग गांवों के 15 किसानों को गुजरात की एक खेत-यात्रा पर ले गया था, जहां सभी तरह का खर्च कंपनी द्वारा वहन किया गया था ताकि वे रूद्र प्लस बीज देख सकें। हालांकि उसने यात्रा के बारे में अधिक जानकारी साझा नहीं की।
बीज पैकेट 450 ग्राम के हिसाब से 1,500 से 2,100 रुपए तक बेचे जाते हैं, जबकि बीजी II किस्मों जैसे रासी सीड्स 659 और नुजिवीडू सीड्स आशा-1 (एनसीएस-866) की कीमत 900 से 1,000 रुपए तक है, जिन्हें इस क्षेत्र में बड़े स्तर पर बोया जाता है। किसानों ने बताया कि ये बीज आम तौर पर गुजरात से मेल ऑर्डर के जरिए मंगवाए जाते हैं लेकिन उन्होंने सटीक पते साझा नहीं किए।
कुकशी तहसील के कटनेरा गांव में 30 किसानों ने बताया कि सभी ने 2022 में खरपतवारनाशी-सहिष्णु किलर बीजों के तीन से पांच पैकेट मंगवाए थे। बीज बसों के माध्यम से गांव तक पहुंचे और फिर स्थानीय एजेंटों द्वारा किसानों के घरों या पहले से तय किए गए सुनसान स्थानों पर बांटे गए। प्रत्येक पैकेट की कीमत लगभग 1,500 रुपए थी और इसके साथ कोई रसीद नहीं दी गई। मैंने गांव की एक बीज दुकान में इस ब्रांड के पैकेट खुद देखे।
लगभग 90 फीसदी किसानों ने कहा कि वे नए बीज इसलिए खोज रहे हैं क्योंकि प्रतिरोध के दावों के बावजूद बीजी II किस्में बा-बार गुलाबी सुंडी और सफेद मक्खी, माहू और थ्रिप्स जैसे द्वितीयक कीटों के हमले झेल रही हैं। कुकशी तहसील में 12 किसानों के साथ हुई एक सामूहिक चर्चा में कुछ ने बताया कि वे एक ही मौसम में 15 तक कीटनाशक छिड़कते हैं फिर भी पैदावार में गिरावट देखते हैं। कई किसानों का मानना है कि बीटी कपास अगले तीन से चार वर्षों में अप्रचलित हो जाएगा और उसकी जगह 4जी और 5 जी बीज ले लेंगे।
स्थानीय बीज डीलरों ने भी बीजी II बीजों की मांग में कमी की पुष्टि की। कुछ मामलों में उन्हें घाटा उठाना पड़ा क्योंकि उन्हें अपेक्षा से अधिक पैकेट वापस करने पड़े। ऊंची लागत और मजदूरों की कमी ने भी समस्या बढ़ा दी है। दक्षिण और पश्चिमी मध्य प्रदेश के कपास उगाने वाले इलाकों से खेत मजदूर अक्सर मौसमी रूप से गुजरात चले जाते हैं। इससे निराई-गुड़ाई और कटाई के चरम महीनों में मजदूरों की भारी कमी हो जाती है। ऐसे में खरपतवारनाशी-सहिष्णु बीटी कपास बीज किसानों को सीधे खेतों में ग्लाइफोसेट छिड़कने की सुविधा देते हैं, जिससे निराई-गुड़ाई के लिए मजदूरों पर निर्भरता घट जाती है। लेकिन ग्लाइफोसेट के इस बढ़ते आकर्षण को लेकर स्वास्थ्य संबंधी गंभीर चिंताएं बनी हुई हैं।
सर्वे किए गए किसानों में से केवल कुछ ही ने कहा कि वे बीज चयन पर सरकारी कृषि-सेवाओं से सलाह लेते हैं। अधिकांश किसान बीज डीलरों, निजी एजेंटों और अन्य किसानों पर निर्भर रहते हैं। इस कमी के चलते अनौपचारिक बीज नेटवर्क ही प्रमुख भूमिका निभा रहे हैं।
शुरुआती दौर में खरपतवारनाशी-सहिष्णु बीजों को अपनाने वाले कुछ बड़े किसान अब फिर से बीजी II कपास की ओर लौट रहे हैं या फिर सोयाबीन, मक्का या केला उगाने लगे हैं। उदाहरण के लिए कटनेरा गांव में किसानों ने बताया कि किलर किस्म का बीज के मुकाबले कपास के रेशे का अनुपात अधिक था, जिससे प्रति हेक्टेयर वजन के हिसाब से उपज कम हुई। इसका मतलब यह हुआ कि खेत से मिलने वाली कीमत घट गई, भले ही कपास मिलें इसकी रेशे की गुणवत्ता को स्वीकार कर रही थीं। नतीजतन कई किसान दोबारा बीजी II बीज पर लौट आए।
यह पूरा सर्वे यह दर्शाता है कि यह सिर्फ इक्का-दुक्का अवैध बीज वितरण की घटनाएं नहीं हैं, बल्कि यह कमजोर नियामक व्यवस्था, कृषि अनुसंधान और विकास में सार्वजनिक निवेश की कमी और विश्वसनीय कृषि विस्तार सेवाओं के लगभग अभाव की ओर इशारा करता है।
अब जरूरी है कि इन नियामकीय खामियों को दूर किया जाए और जीएम फसलों पर एक राष्ट्रीय नीति तैयार की जाए, जिसमें अनधिकृत जीएम किस्मों के व्यापक उपयोग और प्रभावों पर भी ध्यान दिया जाए। जुलाई 2024 में जीएम सरसों पर चल रहे एक मामले के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने भी इस ओर इशारा किया था। दो जजों की खंडपीठ ने विभाजित निर्णय देते हुए केंद्र सरकार को 4 महीने के भीतर जीएम फसलों पर राष्ट्रीय नीति बनाने का निर्देश दिया था। लेकिन यह अभी भी लंबित है। यदि ऐसे सुधार कदम नहीं उठाए गए तो अवैध बीज तंत्र धीरे-धीरे फलेंगे-फूलेंगे और कृषि नवाचार, किसानों, तकनीकों और राज्य के बीच के रिश्ते को ही बदल देंगे।
(अंबिका सुभाष, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र की पीएचडी शोधार्थी हैं। प्रस्तुत विचार उनके निजी हैं और यह डाउन टू अर्थ पत्रिका के नहीं हैं)