कृषि

हिमालयी क्षेत्रों से विलुप्त हो रही है सेब की उम्दा दो प्रजातियां, जलवायु परिवर्तन का असर

हिमालय क्षेत्र में बदल रहे मौसम की वजह से सेबों को 72 दिन की चिलिंग नहीं मिल रही है, इस वजह से सेब की पैदावार प्रभावित हो रही है, इसलिए किसान अब नई प्रजाति की ओर ध्यान दे रहे हैं

Manmeet Singh

ग्लोबल वार्मिंग के प्रभाव से आने वाले एक दशक में उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश सेब की सबसे उम्दा प्रजाति ‘गोल्डन डिलिसियस’ और ‘रेड डिलिसियस’ से महरूम हो सकते हैं। उत्तराखंड में नब्बे प्रतिशत तक डिलिसियस प्रजाति समाप्त हो चुकी है। जबकि हिमाचल का उद्यान विभाग अब डिलिसियस प्रजाति के बदले काश्तकारों को ‘स्पर प्रजाति’ लगाने के लिये प्रोत्साहित कर रहा है।

वाडिया हिमालय भू-विज्ञान संस्थान के वरिष्ठ ग्लशियर वैज्ञानिक डॉ. डीपी डोभाल बताते हैं कि पूरे हिमालय परिक्षेत्र में मौसमी चक्र में भारी बदलाव आया है। मसलन, पोस्ट मानसून (सितंबर से दिसंबर) के वक्त में ही 3000 मीटर से ऊचारी ऊंचाई वाली पहाडिय़ां हिमाच्छादित हो जाती थी, लेकिन पिछले दस सालों में बर्फबारी जनवरी, फरवरी, मार्च और अप्रैल तक हो रही है। इसके बाद गर्मी भी जुलाई आखिरी तक जा रही है और मानसून भी फिर देरी से ही आ रहा है। इस साल तो मानसून दस दिन से ज्याद देरी से पहुंचा।

उत्तराखंड में उद्यान विभाग के निदेशक आरसी श्रीवास्तव बताते हैं कि राज्य में गोल्डन और रेड डिलिसियस मुख्य तौर पर उत्तरकाशी और देहरादून जिले के ऊंचाई वाले इलाकों में होता था। डिलिसियस प्रजाती को सीजन में कुल 33 दिन की चिलिंग चाहिये होती है। जो अब नहीं मिल पा रही है। प्रयाप्त बर्फबारी भी नहीं हो रही है। इसलिये उद्यान विभाग अब काश्तकारों को ‘स्पर’ प्रजाति को लगाने के लिये कह रही है। वहीं रामनगर तरला में तो काश्तकार अब सेब के बजाये आड़ू की खेती करने लगे हैं।

उत्तराखंड में देहरादून जिले में सबसे बड़ी सेब पट्टी जौनसार बावर सेब बागवान समिति के अध्यक्ष लक्ष्मीकांत जोशी बताते है कि अब बड़ी तादाद में स्पर के साथ रॉयल प्रजाती के सेब उगाये जा रहे हैं। अब उतनी ठंड और हिमपात नहीं होता। जितनी डिलिसियस प्रजाति के लिये चाहिये। सबसे बड़ी बात है कि चिलिंग भी उस महीने नहीं मिल रही। जब सेब के पेड़ों को जरूरी होती है। पतझड़ के दौरान अगर चिलिंग मिले तो उसका फायदा नहीं होता। चिलिंग तो दिसंबर और जनवरी में ही चाहिये होती है।

हिमाचल के शिमला में बड़े काश्तकार रामनायक शर्मा बताते हैं कि पहले वो गोल्डन और रेड डिलिसियस सेब ही उगाते थे। लेकिन अब नहीं उगाते। क्योंकि उतनी चिलिंग नही मिल पा रही है। हिमाचल में रोहडू सेब काश्तकार कल्याण समिति से रविंद्र बिट्टा बताते हैं कि, सभी किसान अब स्पर प्रजाती की ओर जा रहे हैं। स्पर में भी जर्मनी प्रजाती का ज्यादा फायदेमंद साबित हो रहा है। उसकी डिमांड ज्यादा आ रही है। वैसे राष्ट्रीय हो या अंतर्राष्ट्रीय बाजार। सबसे ज्यादा डिमांड और कीमत डिलिसियस प्रजाती की ही मिलती थी। लेकिन अब वो उस पैमाने पर नहीं हो रहा है।

हिमालय में जहां गिरती थी केवल बर्फ, अब हो रही बारिश उत्तराखंड में इस बार मानसून में जून और जुलाई में औसत से कम मानसून बरसा। जो औसतन 1234 एमएम से कम 836 एमएम रहा। यानी लगभग साठ प्रतिशत कम। लेकिन अगस्त में जितना बरसना चाहिये था, उससे 40 फीसद ज्यादा बरस गया। जिससे सेब काश्तकारों की खड़ी फसल में नमी लग गई और अस्सी फीसद तक फसल में फफूंद लग गई। इसी तरह पहले जहां तीन हजार मीटर से ऊपर की पहाडिय़ों में अगस्त से दिसंबर तक बर्फबारी हो जाती थी और 3500 से 4000 मीटर तक की पहाडिय़ों में साल भर बर्फ ही पड़ा करती थी। वहां पर गर्मियों में बर्फबारी न होकर बारिश हो रही है।

मौसम विज्ञान केंद्र के वैज्ञानिक ऐसा ग्लोबल वार्मिंग के कारण मारते हैं। मौसम विज्ञान केंद्र के निदेशक बिक्रम सिंह बताते हैं कि पूरे हिमालय बेल्ट में मौसमी चक्र में बदलाव आ रहा है। ये धीरे धीरे हैं। उन्होंने बताया सितंबर आखिरी तक मानसून को लौट जाना चाहिये था। लेकिन अब मानसून अक्टूबर मध्य तक जा रहा है। इससे भी बहुत फर्क पड़ रहा है।

निदेशक बिक्रम सिंह बताते हैं, असल में जैसे ही सितंबर आखिरी मंे मानसून लौटता था। भू-मध्य सागर से साउदी अरब और वहां से पाकिस्तान होते हुये पश्चिमी विक्षोभ (नॉदर्न डिस्टर्बेंस) उत्तराखंड और हिमाचल की पहाडिय़ों में टकराता है। जिससे पोस्ट मानसून की शुरूआत होती है। लेकिन पिछले काफी समय से मानसून वक्त पर लौट नहीं रहा है और इसी बीच पश्चिमी विक्षोभ भी आ जा रहा है। जिससे दोनों बादल एक दूसरे को पीछे धकेल दे रहे हैं। इससे सबसे ज्यादा असर कृषि और बागवानी पर पड़ रहा है।

दोनों प्रजातियों से हो रहा मोह भंग
दो से तीन साल में जिस तरह सर्दियों में बर्फबारी के पैटर्न में बदलाव देखने को मिल रहा है, इसके चलते बागवानों का मोह इन प्रजातियों से भंग होने लगा है। वह ऐसी प्रजातियों को तरजीह देने लगे हैं जो अधिक तापमान में भी फल दे दें। इन प्रजातियों में अमेरिकन प्रजाति के स्केरलेट गाला, सुपर चीफ, ऑरगन स्पोर प्रमुख हैं। इन प्रजातियों के सेब को पनपने के लिए रेड डिलिशियस और गोल्डन डिलिशियस प्रजाति की अपेक्षा 800 से 1000 घंटे (करीब 33 दिन) तक ही कम तापमान की आवश्यकता होती है। इन प्रजाति के सेब को पनपने के लिए 1400 से 1600 घंटे (करीब 56 दिन) तक दो से तीन डिग्री तापमान की आवश्यकता होती है। लेकिन इस साल बर्फबारी न के बराबर होने से इस प्रजाति के सेब पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं।

कहां कितना सेब
भारत में लगभग बीस लाख टन सेब की पैदावार हर साल होती है। जिसमें जम्मू कश्मीर का स्थान पहला है। पूरे देश का सत्तर फीसद सेब कश्मीर में ही होता है। उसके बाद बाद 21 प्रतिशत सेब हिमाचल और सात प्रतिशत उत्तराखंड में होता है। लगभग दो प्रतिशत अरुणाचल और सिक्कम में होता है।

इंग्लैंड से आई थी डिलिसियस प्रजाति
हिमाचल और उत्तराखंड में सेब इंग्लैंड से आया है। सबसे पहले फेडरिक ई विल्सन ही वह शख्स था जो भारत में सेब के बीज लेकर आया। पहाड़ी विल्सन या फेडरिक विल्सन के बारे मेंं सबसे ज्यादा प्रामाणिक किताब कनाडाई पत्रकार राबर्ट हिट्चन ने लिखी है। राबर्ट के मुताबिक फ्रेडरिक ई विल्सन 1835 में कलकत्ता आया था। उस वक्त वह 17 साल का नौजवान था और रोजगार की तलाश में यार्कशायर के एक गांव से भटकता-भटकता यहां आ गया। पहले उसने फौज में नौकरी की और मेरठ छावनी में रहा। कहा जाता है कि 1841 के आसपास एक आदमी की हत्या कर वह मेरठ से भागकर मसूरी चला गया।

उस समय ईस्ट इंडिया कंपनी की फौजें एक तरफ तो अफगानियों से भिड़ी हुई थीं और दूसरी तरफ उनके निशाने पर लाहौर की सिख रियासत थी। इसी बीच विल्सन का अचानक मसूरी भाग जाना एक अपराध हो गया और कंपनी सरकार ने उसके खिलाफ वारंट जारी कर दिया। मसूरी से वह और उत्तर की तरफ बढ़ा तथा टिहरी के राजा के पास पहुंच गया। टिहरी के राजा ने उसे शरण देने से मना कर दिया। उसके बाद विल्सन भागते भागते उत्तरकाशी से 80 किलोमीटर दूर और गंगोत्री से लगभग बीस किलोमीटर पहले हर्षिल पहुंचा। बाद में विल्सन ने पाया कि इंग्लैड में जितनी ऊंचाई और वातावरण उसके गांव का है। उतना ही हर्षिल भी है। उसने किसी तरह वहां से सेब की कलम मगाईं और स्थानीय लोगों के साथ बाग तैयार किये।