कृषि

बिहार के मशहूर लीची बागानों पर स्टिंक बग का कहर, किसानों को लाखों का नुकसान

विशेषज्ञों का कहना है कि धूप के दिनों में कमी के कारण स्टिंक बग को पनपने का माहौल मिल जाता है

Shashi Shekhar

हामिद रजा के पास 30 एकड़ में फैला हुआ एक लीची बागान है। 2 साल पहले तक वे सालाना कम से कम 5 लाख रुपये की लीची बेच लेते थे। पिछले साल उन्हें पूरे बागान का महज 1.5 लाख रुपये ही मिला। खरीदार को भी कोई खास मुनाफा नहीं हुआ।

बिहार के मोतीहारी-मुजफ्फरपुर हाइवे पर जैसे ही आप मेहसी पहुंचते हैं, दोनों तरफ लगातार आपको शाही लीची (लीची का एक बेहतरीन किस्म) के बागान दिखते हैं। हामिद रजा जैसे सैकड़ों परिवार की पारिवारिक कमाई का जरिया ये लीची बागान ही हैं।

लेकिन, पिछले 2 साल से कमाई के इस जरिये पर स्टिंक बग नामक कीड़ा लगने लगा है। पेड़ सूखते जा रहे हैं। लीची के फल का साइज छोटा होता जा रहा है। नतीजा, लीची किसानों की कमाई में भारी कमी आ रही है।

मेहसी प्रखंड के ही मिर्जापुर गांव के अब्दुल कलाम बताते हैं कि अब तक सिर्फ मेहसी में 20 एकड़ जमीन पर फैले लीची बगान को काट कर किसान दूसरे विकल्पों की तलाश में जुट गए हैं। 

क्या है स्टिंक बग? 

स्टिंक बग का जैविक नाम टेसाराटोमा जावानिका (थनबर्ग) है, जो मुख्य रूप से लीची का दुश्मन माना जाता है। स्टिंक बग को बदबूदार कीट के नाम से भी जाना जाता है। स्टिंक बग का रंग लीची की शाही किस्म के रंग जैसा ही होता है। जैसे टिड्डी दल हमला करते हैं, स्टिंक बग भी झुण्ड में ही आते हैं। 

ये लीची के पेड़ पर आने के बाद नए-नए पत्तियों और नए फलों को चूसना शुरू कर देते हैं। नेशनल रिसर्च सेंटर ऑन लीची, मुजफ्फरपुर से जुड़े हॉर्टिकल्चर साइंटिस्ट एस के पूर्वे ने डाउन टू अर्थ को  बताया, “बेतहाशा पेरासाईट ग्रुप कीटनाशकों के इस्तेमाल से पेरासाईट ग्रुप कीट खत्म तो हो गए,  लेकिन अब नए ग्रुप के कीट का आगमन होने लगा है। स्टिंक बग ऐसा ही एक नया ग्रुप का कीट है।  उस पर मौजूदा कीटनाशक बेअसर साबित हो रहे हैं।”

वे बताते हैं, “बोरोल ग्रुप का कीट जहां पत्ते, डाली आदि की च्यूइंग, कटिंग और पीयर्सिंग (काटना, चबाना) कर लीची के पेड़ को नुकसान पहुंचाते है, वही स्टिंक बग पेड़ की सकिंग (चूस लेना) और बर्निंग (जला देना) का काम करता है और धीरे-धीर लीची का पेड़ सूखने लगता है.”

क्लाइमेट (जलवायु) और स्टिंक बग के बीच क्या कोई संबंध है? इस सवाल पर पूर्वे कहते है कि बिलकुल है। उनके मुताबिक, “पिछले 2 से 3 साल के दौरान बिहार में, अप्रैल से आधे जून के बीच औसत सन आवर (धूप का समय) घटा है। पहले यह 20 से 21 दिन का होता था, जो अब घट कर 17 से 18 दिन का हो गया है। उच्च तापमान भी कभी-कभी लीची के लिए नुकसानदेह हो सकता है, लेकिन यह पेस्ट कंट्रोल के लिए अच्छा रहता है। सन आवर में आई कमी और बड़ी हुई ह्यूमिडिटी ने स्टिंक बग को पनपने और अपनी संख्या बढाने में सहायता की है।”

डाउन टू अर्थ ने जब अक्टूबर महीने में मेहसी के कुछ लीची बागानों का दौरा किया तो पाया कि अधिकांश बागानों में अभी भी पानी जमा है। इस कीट का रंग भी ऐसा है, जिससे कि वे आसानी से पेड़ में खुद को छिपा लेते हैं। स्टिंक बग क्या सिर्फ मेहसी के लीची बागानों को ही नुकसान पहुंचा रहा है, इस पर पूर्वे कहते हैं, जिस तरह से क्लाइमेट फेवरेबल होता जा रहा है, मेहसी का स्टिंक बग मुजफ्फरपुर तक (40 किलोमीटर दूर) तक भी पहुंच सकता है, बल्कि पिछले 2 सालों में यह कांटी (मुजफ्फरपुर का नजदीकी इलाका) तक पहुंच भी चुका होगा.”

बहरहाल, अगर ऐसा है, तो यह न सिर्फ मेहसी या मुजफ्फरपुर, बल्कि पूरे उत्तर बिहार समेत बिहार के सभी क्षेत्रों के लीची उत्पादकों के लिए बहुत ही डरावनी खबर है। उत्तर बिहार का एक बड़ा इलाका लीची जैसे कैश क्रॉप की इकोनोमी पर निर्भर है. इससे जुड़ी एक पूरी की पूरी इंडस्ट्री है, जो साल भर काम करती है। फिर चाहे वह लीची फल भेजने का बिजनेस हो या फिर इसका पल्प तैयार कर बड़ी कंपनियों को बेचने का काम।

कहाँ से आया स्टिंक बग? 

नेशनल रिसर्च सेंटर ऑन लीची, मुजफ्फरपुर से जुड़े हॉर्टिकल्चर साइंटिस्ट डॉक्टर एस के पूर्वे ने डाउन टू अर्थ से बातचीत में बताया, “स्टिंक बग पहले से ही रांची में मौजूद था. स्टिंक बग के झारखंड से आने की संभावना जताई जा रही है। बिहार और झारखंड के बीच लीची का आयात-निर्यात होता रहा है। संभवत:, लीची के बक्से के जरिये ही ये झारखंड से आया है।”

झारखंड में लीची की खेती होती है। वहां साल 2011 से ही स्टिंक बग का प्रकोप देखने को मिल रहा है। इस समस्या को ले कर इन्डियन काउंसिल फॉर एग्रीकल्चरल रिसर्च, बिहार एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी के रिसर्चर्स ने सितंबर 2012 में एक स्टडी भी की थी। जिसमें कहा गया है कि पानी से घिरे वूडी ट्री (लकड़ी वाले पेड़) पेस्ट आउटब्रेक के लिए फेवरेबल कंडीशन (कीटों के लिए अनुकूल माहौल) मुहैया कराते हैं। पूर्वे ने बताया कि जब तक यह स्टिंक बैग अपने छोटे रूप में रहता है, तभी तक इसे हैंडल करना आसान रहता है। एक बार जब यह अपने वयस्क हो जाता है, तब इस पर आम कीटनाशक का भी असर कम हो जाता है, क्योंकि स्टिंक बग का उपरी लेयर (परत) काफी कठोर होता है। उलटे, उस कीटनाशक का लीची के फल पर बुरा असर होगा।

वे कहते हैं,“हम लोगों ने इस समस्या से निपटने के लिए पूरे साल भर प्रबंधन की अनुशंसा की है, लेकिन दिक्कत ये है कि आम-लीची उगाने वाले किसान मंजर आने के बाद एक्टिव होते है। जबकि, बरसात के ठीक बाद से ही, यानी सितंबर-अक्टूबर से ही, जिन बागों में स्टिंक बग पाया जाता है, वहां स्प्रे करने की जरूरत है। आसपास के बागों में भी ध्यान रखने की जरूरत है। एक साथ मिल कर जब सभी किसान इस पर ध्यान देंगे और एक्शन लेंगे, तभी स्टिंक बग पर नियंत्रण पाया जा सकेगा.” डॉक्टर पूर्वे मानते है कि स्टिंक बग की समस्या असल में मैनेजेरियल प्रॉब्लम (प्रबंधकीय समस्या) है. लेकिन, सवाल है कि क्या इतनी बड़ी समस्या से किसान स्वयं अकेले लड़ पाएंगे? या फिर उन्हें इस समस्या से निपटने के लिए सरकारी मदद की भी जरूरत है? 

कितना नुकसान, क्या है समाधान 

स्थानीय पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता और लीची उत्पादक सुदिष्ट नारायण ठाकुर ने बताया कि स्टिंक बग का मुद्दा बिहार विधानसभा में भी उठ चुका है। स्थानीय प्रशासन को इस पर एक्शन लेने के लिए भी कहा जा चुका है। पूर्वी चंपारण के पीपरा स्थिति कृषि अनुसंधान केंद्र के वैज्ञानिकों ने सलाह भी दी है कि इलाके के सभी बागानों में समय रहते और एक साथ कीटनाशक का छिड़काव किया जाए। लेकिन, कोरोना और पंचायत चुनाव में व्यस्त प्रशासन को इस मुद्दे पर गंभीरता से काम करने का वक्त ही नहीं मिल पा रहा है। 

लीची ग्रोअर असोसिएशन ऑफ़ बिहार के सदस्य और विश्वकर्मा एग्रो एंड डेयरी प्राइवेट लिमिटेड के मालिक कृष्ण गोपाल बताते है, “स्टिंक बग जिस तरह से नुकसान पहुंचा रहा है, वह हमलोगों के लिए काफी चिंता की बात है. ऊपर से असमय और अत्याधिक बारिश के कारण बागानों में जमा पानी भी आगे नुकसान पहुंचा सकता है।