पश्चिमी उत्तर प्रदेश के नंगला मुबारिक गांव में फरवरी महीने में हमेशा की तरह गन्ने की ऊंची-ऊंची फसल कटने को तैयार खड़ी है। यह गांव उस मुजफ्फरनगर जिले का हिस्सा है जिसे गन्ने का कटौरा की उपाधि मिली है। इस जिले में गुड़ की सबसे बड़ी मंडी भी है। देश के पैदा होने वाले गुड़ में 20 प्रतिशत हिस्सेदारी इसी जिले की है। डाउन टू अर्थ ने फरवरी में जब इस गांव का दौरा किया तब पाया कि जिले में गन्ने का प्रेम कुछ हद तक कम हुआ है, इस वजह से बहुत से किसानों ने गन्ने की जगह पॉपलर की नर्सरी लगाई है। गांव के 80 वर्षीय किसान सत्यवीर सिंह कहते हैं कि हमारे गन्ने को किसी की बुरी नजर लग गई है। उनके परिवार के हिस्से में 5 हेक्टेयर खेत हैं, जिनमें हमेशा गन्ना ही लगता था, लेकिन इस साल पहली बार उन्होंने 2 हेक्टेयर का खेत पॉपलर की खेती के लिए किराए पर दिया है। जिले के किसान प्लाइवुड इकाइयों द्वारा पॉपलर की भारी मांग को देखते हुए इसकी खेती करने लगे हैं।
इस बदलाव का कारण है गन्ने को भारी नुकसान पहुंचाने वाला रेड रॉट नामक फंगल रोग। कोलेटोट्राइकम फाल्केटम फंगस के कारण होने वाली इस बीमारी में डंठल का अंदरूनी व रसीला हिस्सा रंग लाल का हो जाता है। यही कारण है कि स्थानीय भाषा में इसे लाल सड़न कहते हैं। लाल सड़क युक्त गन्ने को चीरने पर खट्टी व मादक गंध आती है। पिछले दो सालों में यह बीमारी सिर्फ मुजफ्फरनगर ही नहीं बल्कि बिजनौर, मुरादाबाद और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के दूसरे जिलों में भी फैल चुकी है।
लखनऊ स्थित गन्ना विकास निदेशालय के अनुसार, इसका नतीजा यह निकला कि 2022-23 में 224.25 मिलियन टन गन्ने के उत्पादन के मुकाबले 2023-24 में 215.81 मिलियन टन रह गया। राज्य के चीनी उद्योग एवं गन्ना विकास विभाग (एसआईसीडी) के अनुसार, इससे चीनी के उत्पादन में भी मामूली गिरावट आई। 2022-23 में 10.48 मिलियन टन चीनी उत्पादन के मुकाबले 2023-24 में यह 10.41 मिलियन टन पर आ गया।
सत्यवीर सिंह बताते हैं, “आमतौर पर हम 5 हेक्टेयर में 6,000 क्विंटल गन्ने की उपज प्राप्त करते हैं लेकिन पिछले साल कीटनाशकों और रसायनों पर लाखों रुपए खर्च करने के बावजूद हमें मुश्किल से 3,500 क्विंटल ही गन्ना हासिल हुआ।” एक अन्य किसान अनिल कुमार कहते हैं कि बीमारी की रोकथाम के लिए हमने प्रति एकड़ करीब 50,000 रुपए कीटनाशकों पर खर्च किए। इससे जहां कीटनाशक कंपनियों ने पैसा कमाया, वहीं बहुत से किसान कर्जदार हो गए।
सबसे बड़ी चिंता की बात यह है कि यह बीमारी गन्ने की सबसे अद्भुत किस्म सीओ 0238 को प्रभावित कर रही है, जो उत्तर प्रदेश में सबसे अधिक उगाई जाती है। शाहजहांपुर स्थित उत्तर प्रदेश गन्ना अनुसंधान परिषद के अनुसार, 2013-14 में उत्तर प्रदेश में खेती वाले क्षेत्र के केवल 3 प्रतिशत हिस्से में इसे उगाया गया था। उच्च उपज के कारण इसने जल्द ही अन्य सभी किस्मों को पछाड़ दिया और 2020-21 तक राज्य के 87 प्रतिशत गन्ना खेतों को कवर कर लिया (देखें, तेज फैलाव)।
भारतीय सांख्यिकी संस्थान, बेंगलुरु के आर्थिक विश्लेषण इकाई के वरिष्ठ शोध फेलो कुणाल मुंजाल कहते हैं कि जलभराव और पानी की कमी, अलग-अलग बुवाई अवधि, उपोष्णकटिबंधीय क्षेत्रों और चरम जलवायु में किस्म की अनुकूलनशीलता ने इसे बेहद लोकप्रिय बना दिया।
किसानों का कहना है कि इसके आने के बाद के वर्षों में सीओ 0238 ने गन्ने की औसत उपज को 600-700 क्विंटल से दोगुना करके 1,200-1,250 क्विंटल प्रति हेक्टेयर कर दिया और गन्ने से औसत चीनी रिकवरी दर 9 प्रतिशत से बढ़कर 12-14 प्रतिशत हो गई। इससे किसानों का मुनाफा बढ़ गया। कोयंबटूर स्थित आईसीएआर-गन्ना प्रजनन संस्थान के पूर्व निदेशक बख्शी राम ने 2009 में इस किस्म को विकसित किया था। उन्होंने डाउन टू अर्थ को बताया, “सीओ 0238 लाल सड़न के प्रति भी मध्यम प्रतिरोधी थी।”
भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद-भारतीय गन्ना अनुसंधान संस्थान (आईसीएआर-आईआईएसआर) के अनुसार, भारत में लाल सड़न रोग 1901 से ही जाना जाता है। इसने सीओ 213, सीओ 312, सीओ 1148, सीओ 7717, सीओएस 8436, सीओएसई 92423 और सीओएसई 95422 जैसी कई बेहतरीन गन्ना किस्मों को नुकसान पहुंचाया है। यह हवा, पानी, सेट (नई फसल लगाने के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले गन्ने के डंठल के टुकड़े) और मिट्टी के माध्यम से फैलता है, जिससे प्रभावित खेत में उपज कम हो जाती है, गन्ने के रस की गुणवत्ता घटती है और चीनी, गुड़ और खोई का उत्पादन कम हो जाता है।
इंटरनेशनल जर्नल ऑफ ट्रॉपिकल एग्रीकल्चर में प्रकाशित 2021 के एक शोधपत्र में बताया गया है कि प्रदेश के पश्चिमी भागों में मौजूदा प्रकोप से पहले ही लाल सड़न रोग मध्य और उत्तरी भागों में भी फैल चुका था। इसका फैलाव 40 से अधिक जिलों में 20,000 हेक्टेयर से अधिक क्षेत्र में था। मुंजाल कहते हैं कि 2022 में पश्चिमी भागों में फैलने से पहले यह रोग पूर्वी उत्तर प्रदेश में भी देखा गया था। शोधकर्ताओं ने डाउन टू अर्थ को बताया कि सीओ 0238 लाल सड़न रोग की चपेट में आ सकता है, क्योंकि इसकी खेती बहुत अधिक मात्रा में की जाती है। बक्शी राम कहते हैं, “जब भी किसी एक किस्म की अधिकता होती है तो कीटों, पेस्ट और बीमारियों को हर जगह समान वातावरण मिलता है, इसलिए उनकी मात्रा गुणात्मक रूप से बढ़ती है।”
आईसीएआर-आईआईएसआर के निदेशक आर विश्वनाथन कहते हैं कि लाल सड़न “बूम एंड बर्स्ट” चक्र का अनुसरण करती है, जिसमें रोगजनक पौधे के आनुवंशिक प्रतिरोध को दूर करने के लिए विकसित होता है। इससे कारण पहले से प्रतिरोधी फसलों में रोग का गंभीर प्रकोप होता है। सीओ 0238 के मामले में फंगस का एक नया अत्यधिक विषैला रोगजन्य सीएफ 13 प्रतिरोध को तोड़ने के लिए जिम्मेदार पाया गया है। बक्शी राम कहते हैं, “रोगजनक पर जीवित रहने का दबाव था, इसलिए यह सीओ 0238 पर हमला करने के लिए विकसित हुआ। वैज्ञानिक शब्दों में इसे मेजबान और रोगजनक का सह-विकास कहा जाता है।”
लाल सड़न के फैलने का एक अन्य प्रमुख कारक अत्यधिक वर्षा और बाढ़ है। बक्शी राम कहते हैं कि ऐसी परिस्थितियां सीओ 0238 के लिए उपयुक्त नहीं हैं क्योंकि यह किस्म जैविक और अजैविक तनावों के लिए पहले ही तय हो जाती है और पौधे की प्रणाली कमजोर हो जाती है। मुंजाल ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश में 2016-23 के लिए भारतीय मौसम विभाग के वर्षा के आंकड़ों का विश्लेषण किया और पाया कि 2020-23 में सामान्य और वास्तविक वर्षा में विचलन हुआ है। इस दौरान विभिन्न क्षेत्रों में बाढ़ व्यापक रूप से रिपोर्ट की गई और इसी समय लाल सड़न रोग भी फैला।
लाल सड़न के प्रसार को रोकने के लिए वैज्ञानिक और कृषि अधिकारी सीओ 0238 के रकबे को कम करने की सलाह दे रहे हैं। लेकिन किसानों का दावा है कि कई अन्य किस्मों में सीओ 0238 जैसी उपज, रिकवरी दर और रैटूनिंग क्षमता की कमी है। रैटूनिंग एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें काटे गए गन्ने के ठूंठ को खेत में छोड़ दिया जाता है, ताकि उससे नई फसल उगाई जा सके। एसआईसीडी विभाग ने किसानों को इस किस्म को सीओएस 19231, सीओएसई 17451, सीओ 15023, सीओ 0118, सीओएलके 14201, सीओएलके 16202, सीओएस 13235, सीओएस 17231, सीओएस 18831 और सीओएलके 15466 जैसी अन्य किस्मों से बदलने की सलाह जारी की है। नंगला मुबारक गांव के किसान सुधीर चौधरी कहते हैं, “मिलें भी हमें सीओ 0118 जैसी किस्मों पर स्विच करने के लिए कह रही हैं, लेकिन इससे हमें रटून नहीं मिलता।” 2024 में उन्होंने सीओ 0238 के स्थान पर सीओएस 13253 से लगाया था। उनका कहना है कि “सीओएस 13253 उपज के मामले में सीओ 0238 के सबसे करीब है, जो प्रति 0.4 हेक्टेयर 50-60 क्विंटल ही कम है। इसमें अभी तक लाल सड़न नहीं है।”
बीज की उपलब्धता भी एक समस्या रही है। मिलों और एसआईसीडी विभाग ने 400 रुपए प्रति क्विंटल की दर से नए गन्ने के बीज जारी किए हैं, लेकिन इस साल अचानक उत्पादन में कमी के कारण बीज की कमी हो गई है। मुंजाल कहते हैं कि कुछ बड़े किसान अब 600-1,200 रुपए प्रति क्विंटल की बढ़ी हुई कीमतों पर बीज बेच रहे हैं, जो विनियमित दरों से काफी अधिक है। मुंजाल कहते हैं कि किसान एक नई “अद्भुत” किस्म के लिए भी बेताब हैं और वे सीओपीबी 95 (पंजाब में स्वीकृत लेकिन उत्तर प्रदेश में नहीं) जैसे बीज महाराष्ट्र खरीद रहे हैं। वैज्ञानिकों का कहना है कि किसी भी मामले में एक किस्म को पूरी तरह से बदलने में तीन से पांच साल लगेंगे। रैटूनिंग एक अतिरिक्त चुनौती पेश करती है, क्योंकि किसान सीओ 0238 फसलों को पूरी तरह से उखाड़ने, मिट्टी और भूमि को लाल सड़न से बचाने के लिए उपचारित करने में सक्षम नहीं होंगे।
पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बीमारी से नष्ट होती फसलों को देखते हुए मुजफ्फरनगर में केवल कुछ किसान मार्च में फिर से गन्ना उगाने की योजना बना रहे हैं। सत्यवीर सिंह कहते हैं कि युवा किसान पहले से ही नौकरियों के लिए शहरों की ओर जा रहे हैं। इसका बड़ा असर होने वाला है, क्योंकि महाराष्ट्र और कर्नाटक जैसे अन्य प्रमुख उत्पादक भी तापमान में वृद्धि और अत्यधिक वर्षा के कारण समय से पहले फूल आने के कारण उपज में कमी जैसी समस्याओं का सामना कर रहे हैं। नेशनल फेडरेशन ऑफ कोऑपरेटिव शुगर फैक्ट्रीज लिमिटेड ने हाल ही में अपने पूर्वानुमान में अनुमान लगाया है कि गन्ने की भारी कमी के कारण 2024-25 सीजन में भारत में चीनी उत्पादन में 15 प्रतिशत की गिरावट आएगी।