...दुर्भाग्य से जो भारत लगभग 1925 तक खाद्यान्नों का निवल निर्यात करता था, (1943 के) बंगाल दुर्भिक्ष के बाद से वह उनका आयात करने लगा है। 1970 तक के बीस वर्ष में खाद्य-सामग्री के आयात पर हमें औसतन 207.8 करोड़ रुपया प्रतिवर्ष खर्च करना पड़ा। और 1970 के बाद के पांच वर्षों में अर्थात 1971-76 में इस मद में खर्च बढ़कर 441.14 करोड़ वार्षिक हो गया। 1974, 1975 तथा 1976 के तीन वर्षाें की अवधि में ही 187,96,000 मीट्रिक टन खाद्यान्न का आयात किया गया, जिसका मूल्य 2,503 करोड़ रुपए हुआ। (इसमें 461 करोड़ रुपये किराया भी सम्मिलित है।)
इसमें भारत-अमेरिकी समझौते, विश्व खाद्य कार्यक्रम, केयर इत्यादि के समान कार्यक्रमों के अन्तर्गत उपहार के रूप में प्राप्त खाद्य सम्मिलित नहीं है। 1965-67 के दो वर्षों के दौरान 45,76,000 मीटरी टन गेहूं भेंट के रूप में मिला। 1975 में केवल कनाडा से 37.8 करोड़ रुपये मूल्य का 2,50,000 मीटरी टन गेहूं भेंट में मिला। हमें केवल खाद्यान्न ही नहीं, कृषि से प्राप्त होने वाले कच्चे माल का भी आयात करना पड़ा—मिसाल के लिए, कपड़ा, भोजन के बाद मनुष्य के लिए सबसे अधिक आवश्यक वस्तु है, उसके उत्पादन के लिए आवश्यक कच्चा माल भी हमें बाहर से मंगाना पड़ा। 1971-72 तक विश्व मण्डी में लम्बे रेशे की कपास के मुख्य खरीदारों में भारत की गिनती होती थी।
विकासोन्मुख कृषि से उत्पन्न अतिरिक्त खाद्य-पदार्थ व कच्चा माल हमें विदेशी मुद्रा कमाने में बहुत मदद दे सकते हैं और इस विदेशी मुद्रा से हम औद्योगिक विकास के लिए पूंजीगत माल का आयात कर सकते हैं—ऐसे पूंजीगत माल का जिसकी आवश्यकता हर देश को होती है चाहे उसकी अर्थव्यवस्था कैसी भी हो। कनाडा ने अपने उद्योगों का निर्माण इमारती लकड़ी का निर्यात करके किया था और जापान ने रेशम का निर्यात करके।
सत्तारूढ़ दल ने यद्यपि कृषि की उपेक्षा की, फिर भी 1974-75 तक में हमारे देश से निर्यात हुए मुख्य माल का पूरा दो-तिहाई ऐसा माल था जो कृषि की उपज था—कच्ची उपज तथा प्रक्रमणित माल मिलाकर। कृषि में मत्स्य, वन तथा पशुपालन क्षेत्र के उत्पाद शामिल हैं। उस वर्ष हमारे देश से निर्यात हुए माल का 79 प्रतिशत ऐसा माल था जिसे हमारे यहां का मुख्य निर्यात-माल कहा जाता है और शेष 21 प्रतिशत ऐसा निर्यात था जिसे छोटा-मोटा समझना चाहिए। इस छोट-मोटे निर्यात में कृिष व कृषितर दोनों क्षेत्रों का ही माल था। 1950-51 में मुख्य निर्यात का 77 प्रतिशत कृषि का उत्पाद था और छोटा-मोटा निर्यात 23 प्रतिशत था।
इसके अतिरिक्त, औद्योगिक विकास भी तभी हो सकता है जब कृषि में समृद्धि हो या बहुत हुआ तो दोनों साथ-साथ हो सकते हैं। लेकिन औद्योगिक विकास पहले हो, बाद को कृषि में खुशहाली आये—यह नहीं हो सकता। लेकिन दुर्भाग्य यह है कि जिस राजनीतिक दल ने देश पर तीस वर्ष तक शासन किया उसकी नेताशाही समझती थी और शायद अभी तक समझती है कि औद्योगिक विकास पहले हो सकता है। जब कृषक के पास क्रय-शक्ति हो तभी औद्योगिक व कृषीतर क्षेत्र के माल व सेवाओं (जैसे शिक्षा, परिवहन, विद्युत) की मांग पैदा हो सकती है।
क्रय-शक्ति कृषि की उपज बेचकर ही उत्पन्न हो सकती है—चाहे बिक्री देश में हो या चाहे देश के बाहर। जितना अधिक बिक्री के लिए अतिरिक्त उत्पादन होगा, उतनी ही बेचने वाले अथवा कृषि के उत्पादक की क्रय-शक्ति बढ़ेगी। जहां जनसाधारण की क्रय-शक्ति नहीं बढ़ती, अर्थात जहां कृषकों के उपयोग से अधिक अतिरिक्त उत्पादन नहीं होता, वहाँ कोई औद्योगिक संवृद्धि नहीं हो सकती।
कृषि विकास से एक ओर तो जन-समुदाय को क्रय-शक्ति मिलेगी, जिससे वह तैयार माल व सेवाएं खरीद सकेंगे, दूसरी ओर कामगारों को अवसर मिलेगा जिससे वे औद्योगिक तथा रोजगार कर सकें।...
साभार: चौधरी चरण सिंह आर्काइव्स