कृषि

चावल निर्यात मतलब पानी का निर्यात, नई प्रजातियां पानी की खपत को कर सकती हैं कम

बासमती की नई प्रजाति पानी की खपत को कम कर सकती है, करनाल में वैज्ञानिकों ने इसका सफल परीक्षण किया है।

Vivek Mishra

जलसंकट वाले क्षेत्रों में भी धान की बढ़ती खेती के बाद अब देश में कई तरह की चिंताए खड़ी हो गई हैं। मसलन पंजाब और हरियाणा में धान के अवशेष यानी पराली जलाए जाने की समस्या हो या फिर धान के लिए भू-जल का अत्यधिक दोहन, यह किसानों से लेकर नीति-नियंताओं तक के लिए चिंता का विषय बन गया है। आखिर धान और पानी का यह हिसाब-किताब कैसे ठीक हो सकता है और क्या धान की खेती को कम करना ही इलाज है। डाउन टू अर्थ ने इसकी पड़ताल की है। 

उड़ीसा के कटक में स्थित सेंट्रल राइस रिसर्च इंस्टीट्यूट के डॉक्यूमेंट विजन 2050 में कहा गया है कि देश के 55 फीसदी हिस्से में सिंचाई के पानी से ही चावल पैदा किया जाता है। एक किलो चावल पैदा करने में करीब 2500 से 3500 लीटर तक पानी खर्च होता है। साथ ही पंजाब-हरियाणा में प्रति किलोग्राम चावल उत्पादन में इससे भी ज्यादा पानी का इस्तेमाल किया जाता है।

इस विजन डॉक्यूमेंट में कहा गया है कि यदि एक किलो चावल उत्पादन में पानी की खपत को 2000 लीटर तक लाना होगा। ऐसे में कम पानी और उच्च उत्पादन वाले सीड पर काम करना होगा। अन्यथा चावल की बढ़ती मांग और सप्लाई में बड़ी खाई बन जाएगी।

इस मामले पर तेलंगाना कृषि विश्वविद्यालय के कुलपति प्रवीण राव ने डाउन टू अर्थ से कहा कि 2014 में चावल निर्यात में हमने वर्चुअली करीब 37 अरब लीटर पानी का निर्यात किया है। ऐसे में पानी की बचत और चावल का ज्यादा उत्पादन करना एक बेहद जरूरी और चुनौती भरा काम है। हमारे देश में प्राथमिक आंकड़ों की बेहद कमी हो गई है और ज्यादातर सेंकेडरी डाटा पर ही काम कर रहे हैं। लेकिन यह अनुमान ऐसा है जो हमें बताता है कि चावल निर्यात दरअसल पानी का निर्यात है। ऐसे में साफ पानी के संकट और उसके संरक्षण की समस्या को भी हमें देखना होगा।   

वैज्ञानिक इस मामले पर क्या कर रहे हैं?

हरियाणा के करनाल स्थित सेंट्रल सॉयल सैलिनिटी रिसर्च इंस्टीट्यूट (सीएसएसआरआई) के डॉ कृष्ण मूर्ति कहते हैं कि बासमती की अभी तक की जो भी प्रजातियां हैं वह पानी की समस्या का हल नहीं बन पाई हैं। आज भी सामान्य पानी की तरह ही बासमती की किस्मों में उच्च पैदावार के लिए पहले की तरह ही पानी की खपत है। डायरेक्ट सीडेड राइस (डीएसआर) यह वेराइटी पाइपलाइन में है और हरियाणा में कुछ जगहों पर इसका प्रयोग सफल रहा है। यह न सिर्फ पानी की खपत में आमूलचूल परिवर्तन करेगा बल्कि पैदावार के मामले में भी नई उम्मीद जगाएगा। इसे अभी जारी नहीं किया गया है जल्द ही यह प्रजाति भी आएगी। करनाल के ही इन वैज्ञानिकों ने बासमती की सीएसआर 30 वेराइटी पैदा की थी, जो कि काफी सफल रही। ऐसे में डीएसआर का भी सफल परीक्षण हुआ है जिसमें पानी की खपत को कम किया जा सकता है। 

सामान्य धान के मुकाबले बासमती धान के बढ़ते चलन को लेकर कई लोग यह उम्मीद जताते हैं कि सामान्य धान प्रजातियों के मुकाबले बासमती में कई सारे गुण हैं जो उत्पादन से लेकर अवशेष तक में काफी बेहतर हैं। इस मसले पर पंजाब एग्रीकल्चरल यूनिवर्सिटी के डायरेक्टर ऑफ रिसर्च डॉक्टर नवतेज सिंग बैंस ने डाउन टू अर्थ से कहा कि बासमती चावल में कई गुण हैं। मसलन इससे न सिर्फ क्रॉप डाइवर्सिफिकेशन की दिशा में पहला होगा बल्कि सामान्य धान के मुकाबले 15-20 फीसदी तक पानी बचाया जा सकता है।