भारत दाल-चावल, दाल-रोटी खाकर गुजर-बसर करने वाला देश रहा है। लेकिन पिछले कुछ दशकों से आम आदमी की थाली से दालें गायब हो रही हैं। वजह, दालों का उत्पादन-रकबा आबादी के अनुपात में नहीं बढ़ा है और कीमतें बढ़ने से दालें गरीबों के बजट से बाहर हो रही हैं। वहीं दूसरी ओर कम उपज, लाभकारी मूल्य न मिलना, जलवायु के उतार-चढ़ाव के प्रति अधिक संवेदनशीलता के कारण पोषण का खजाना और पर्यावरण हितैषी इस फसल से किसानों का मोहभंग हो चला है। बहुत से किसानों ने दलहन की जगह गेहूं, धान या सोयाबीन जैसी फसलों से नाता जोड़ लिया है। यह स्थिति क्यों आई और भारतीय कृषि पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा? आखिर क्यों दालों के सबसे बड़े उत्पादक और उपभोक्ता देश की आयात पर निर्भरता बढ़ रही है? दालों की कम उपलब्धता स्वास्थ्य को किस प्रकार प्रभावित करेगी और इसके दूरगामी परिणाम क्या होंगे? डाउन टू अर्थ ने इन तमाम प्रश्नों के उत्तर तलाशती एक रिपोर्ट तैयार की, पढ़ें, पहली कड़ी-
दालों की आत्मनिर्भरता का नारा 1990 के बाद एक बार फिर से गूंज रहा है। हालांकि, कई दशकों बाद 2015 से दालों के उत्पादन, क्षेत्र और उपज में आई बढ़त के बावजूद अब भी उत्पादन वास्तविक मांग से 5-6 मिलियन टन कम पर ही बना हुआ है। प्रमुख उत्पादक राज्यों के किसानों में खरीफ दलहनी फसलों के लिए उत्साह नजर नहीं आ रहा। बीते 30 वर्षों के दौरान खरीफ में अरहर के साथ इंटरक्रॉपिंग वाली सोयाबीन जैसी व्यावसायिक फसल ने जिस रफ्तार से अपनी जगह बनाई है, अरहर और उड़द के साथ मूंग के लिए निराशा उतनी ही गाढ़ी रही है। अरहर, मूंग, उड़द और चना की खुदरा कीमतें (80 से 120 रुपए प्रति किलो) आम आदमी के बजट से बाहर हैं। वहीं सरकार अगले पांच सालों के लिए दलहन आयात पर निर्भर हो गई है, जिससे यहां के किसानों को झटका लग सकता है। पानी की उपलब्धता और अनुपलब्धता ने कृषि फसलों के आयाम को कई बार पलटा है। बेहद मंद गति से खरीफ दलहनों में प्राइम दाल अरहर का अनुपात भी पलट रहा है जो दलहन किसानों की आमदनी बढ़ाने के रास्ते में बड़ी बाधा बन सकती है।
उत्तर प्रदेश के इटावा जिला मुख्यालय से 20 किलोमीटर दूर बिहारीपुर गांव में अपनी पुरानी खेती को याद करते हुए 65 वर्षीय कृषक कमलेश यादव डाउन टू अर्थ से कहते हैं, “अब हमारे गांव में रबी सीजन में उड़द और मूंग की खेती थोड़ी मात्रा में होती है लेकिन अरहर (तुअर) की खेती तो 12 बरस पहले (2010) से पूरी तरह बंद हो गई। न बीज अच्छे थे, न उपज अच्छी थी और न ही उस वक्त दाल की कीमत अच्छी थी। तब दाल 35-40 रुपए किलो थी। हमारे अरहर के खेतों में दीमक लग जाती थी। 25 वर्ष पहले कानपुर लोअर गंगनहर का पानी हमारे गांव पहुंचा तो लोगों ने धीरे-धीरे धान उपजाना शुरू कर दिया। मैं भी अब धान, फिर आलू उसके बाद गेहूं, मूंग की खेती करता हूं।” वह आगे बताते हैं, “मेरे गांव की आबादी करीब एक हजार परिवार की है, अब यहां नई पीढ़ी दाल कम, आलू ज्यादा खा रही है।” इस ग्रामीण अनुभव को सरकारी आंकड़ों में भी पुष्टि मिलती है। 1976 के राष्ट्रीय कृषि आयोग की सिफारिश ने संतुलित आहार में रोजाना 70 ग्राम दाल प्रति व्यक्ति उपलब्ध होने की सिफारिश की थी, लेकिन इसे आज तक पूरा नहीं किया जा सका है। वर्तमान में प्रति व्यक्ति प्रतिदिन दालों की उपलब्धता महज 55 ग्राम है। कृषि मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक, भारत दुनिया में दाल उत्पादन में 25 फीसदी (22-25 मिलियन टन), उपभोग में 27 फीसदी और आयात मे सबसे बड़ी हिस्सेदारी करता है, इसके बावजूद 1975 की किसान आयोग की सिफारिश के आसपास दाल की उपलब्धता नहीं पहुंच पाई।
केंद्रीय कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय के अधीन भोपाल स्थित दाल विकास निदेशालय के निदेशक एके तिवारी ने 2016 में “पल्सेस इन इंडिया : रेट्रोस्पेक्ट एंड प्रॉस्पेक्ट्स” रिपोर्ट में बताया है कि वर्ष 1990 में गंगा के मैदानी भागों के किसानों ने दलहन के बजाए दूसरी फसलों का रुख किया था। उस दशक में जब कमलेश जैसे कई किसान दालों से दूर जाने का फैसला कर रहे थे, उस वक्त गेहूं की उपज 3,000 से 4,000 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर थी और दालों की उपज महज 800 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर थी।
कानपुर स्थित भारतीय दलहन अनुसंधान संस्थान (आईआईपीआर) के वैज्ञानिक आईपी सिंह ने डाउन टू अर्थ से कहा कि उत्तर भारत के प्रमुख दाल उत्पादक राज्य (उत्तर प्रदेश, बिहार, हरियाणा, पंजाब) के किसानों ने पानी और सिंचाई का बेहतर इंतजाम होते ही दूसरी फसलों का रुख किया जिसकी वजह से दालों की खेती मध्य और दक्षिण भारत की तरफ कूच कर गई। हालांकि, उत्तर प्रदेश में नीलगायों और जानवरों की वजह से भी किसानों ने दलहन की खेती छोड़ दी, क्योंकि जानवर दलहनों को ज्यादा नुकसान पहुंचाते हैं।
उत्तर प्रदेश का सूखा प्रभावित क्षेत्र बुंदेलखंड दलहन की खेती के प्रसिद्ध रहा है लेकिन यहां के किसान दालों के बदले अधिक पानी की खपत वाली गेहूं की फसल को तवज्जो देने लगे हैं। बांदा जिले के बसहरी गांव के किसान बच्ची प्रसाद बताते हैं कि दो दशक पहले वह हर साल दाल की खेती करते थे लेकिन अब वह दालों के बदले गेहूं और तिलहन को प्राथमिकता देते हैं। वह बताते हैं कि पहले कभी उन्हें दाल खरीदकर नहीं खानी पड़ती थी लेकिन अब उन्हें पैसे देकर दाल खानी पड़ रही है। इस साल उन्होंने करीब 100 किलोमीटर दूर छतरपुर से 70 किलो अरहर की दाल खरीदी है। बच्ची प्रसाद के परिवार का दालों का उपभोग भी दाल की खेती से दूर होने के बाद कम हो गया है। पहले उनके घर में हर दूसरे दिन दाल बनती थी लेकिन अब हफ्ते में एक या दो बार ही दाल बन पाती है। इसकी वजह बताते हुए वह कहते हैं कि दालें आसानी से नहीं मिलतीं और इतनी महंगी हैं कि बजट बिगड़ जाता है। दाल की खेती छोड़ने की तात्कालिक वजह बताते हुए बच्ची प्रसाद कहते हैं कि उनके क्षेत्र में अन्ना मवेशी (आवारा पशु) बड़ी संख्या में हैं। ये मवेशी फसलों खासकर दलहन की फसलों को ज्यादा नुकसान पहुंचाते हैं, इसलिए भी किसान दालों की खेती से बचते हैं।
उपज और रकबा स्थिर
वर्तमान में दालों के प्रमुख उत्पादक छह राज्य हैं जिनमें मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और उत्तर प्रदेश शामिल है। इन राज्यों की दालों के कुल उत्पादन में 80 फीसदी की हिस्सेदारी है। दालों में चने (करीब 50 फीसदी) के बाद सबसे ज्यादा हिस्सेदारी खरीफ में अरहर और उड़द की है। मूंग और मसूर की उपज देश में बेहद कम है। दालों के रकबे, उत्पादन और पैदावार के आधिकारिक आंकड़े बताते हैं कि दालों के क्षेत्र और उपज की स्थिति कई दशकों तक स्थिर रही है और बीते पांच-छह वर्षों से न्यूनतम समर्थन मूल्य और प्रमाणित बीजों के लेन-देन को प्रोत्साहित किए जाने के बाद तालाब में कंकड़ फेंकने के बाद उठने वाली तरंगों जैसी गति उपज को मिली है।
मसलन 1951 में कुल दालों की उपज 441 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर थी जो करीब 70 वर्षों बाद 757 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर पहुंच पाई है। कन्फेडेरेशन ऑफ इंडियन इंडस्ट्री (सीसीआई) की 2010 में जारी रिपोर्ट “ओवरकमिंग द पल्सेस क्राइसिस” में कहा गया है कि 1951 से 2008 तक दालों के उत्पादन में केवल 45 प्रतिशत तक ही वृद्धि हुई जबकि गेहूं का उत्पादन 320 प्रतिशत और चावल का उत्पादन 230 प्रतिशत बढ़ा है (देखें, रकबा, उत्पादन और पैदावार में अपर्याप्त बढ़त,)।
दालों पर नीति आयोग की ओर से फरवरी, 2018 में तैयार वर्किंग ग्रुप रिपोर्ट के मुताबिक, दालों में खरीफ दाल (प्रमुख अरहर, उड़द, मूंग) के क्षेत्र में 1980 में विकास दर 8 फीसदी थी जो 1990 तक -8 फीसदी हो गई। वहीं, 2000 के दशक तक यह स्थिर ही रही। जबकि उत्पादन के मामले में 1980 में विकास दर 8.7 फीसदी थी जो 1990 में घटकर -6.6 फीसदी हो गई। इसके बाद किलोग्राम प्रति हेक्टेयर पैदावार की दर बढ़ने के कारण वर्ष 2000 तक उत्पादन में कुछ बढ़ोतरी हुई। रबी फसलों में भी इसी तरह का अनुभव रहा। 1980 में 5.5 फीसदी की विकास दर 1990 तक घटकर -3.2 फीसदी हो गई। स्कीम ऑफ ऑयलसीड, पल्सेस, ऑयल पॉम एंड मेज (आईएसोपीओएम) और राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन (एनएफएसएम) जैसे कार्यक्रमों के कारण रबी दलहनों के क्षेत्र और उपज बढ़ने से 4.2 फीसदी का विकास हुआ। हालांकि, दलहनी फसलों के मुकाबले तिलहन व व्यवसायिक फसलों (कॉटन, बीटी कॉटन, गन्ना, सोयाबीन) का इस अवधि में विकास अच्छा रहा।
दलहन के इतिहास में 2017-18 ऐसा वर्ष है जब सर्वाधिक 254.1 लाख (25.41 मिलियन) टन दालों का उत्पादन हुआ था और अब 2020-21 में भी तृतीय अग्रिम अनुमान के मुताबिक, यह 255.7 लाख टन (25.5 मिलियन) रिकॉर्ड उत्पादन हो सकता है। लेकिन यहां ध्यान देने लायक है कि कुल आंकड़ों में यह बढ़त रबी सीजन में चना की वजह से दिखाई देती है। यदि दलहनों में दूसरी सबसे ज्यादा हिस्सेदारी करने वाली अरहर के उत्पादन की स्थिति देखें तो उसमें बढ़त की जगह गिरावट दर्ज की गई है। 2017-18 रिकॉर्ड उत्पादन वर्ष में 113.8 लाख टन की हिस्सेदारी चना की थी जबकि 42.9 लाख टन उत्पादन अरहर का था। यदि 2020-21 के तीसरे अग्रिम अनुमान को देखें तो चना की हिस्सेदारी 126.1 लाख टन है, जो 2017-18 से ज्यादा है। वहीं, अरहर की हिस्सेदारी 41.4 लाख टन ही है, जो 2017-18 के मुकाबले कम है (देखें, बढ़त चने की बदौलत,)।
छह राज्यों में कम हुई बुवाई
जलवायु परिवर्तन के कारण बढ़ने वाली चरम घटनाएं और अत्यधिक वर्षा कृषि के फसल चक्र को प्रभावित कर रही है। यही कारण है कि दालों के क्षेत्र, उत्पादन और उपज के इस लंबी दशकीय संघर्ष की दुखांत कहानी अभी रुकी नहीं है। केंद्रीय कृषि मंत्रालय की ओर से 16 जुलाई, 2021 को जारी किए गए ताजा आंकड़े खरीफ सीजन में बीते छह वर्षों के बुवाई की स्थिति स्पष्ट करते हैं कि खरीफ सीजन में छह प्रमुख दलहन राज्यों (मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, उत्तर प्रदेश, राजस्थान) में बुआई 12-14 जुलाई, 2021 तक सामान्य रकबे से कम ही रह गई है। 12-14 जुलाई तक खरीफ सीजन का सामान्य रकबा 135.294 लाख हेक्टेयर क्षेत्र है। वर्ष 2017-18 में खरीफ सीजन मे रिकॉर्ड बवाई 100.044 लाख हेक्टेयर हुई थी, जिसका परिणाम रिकॉर्ड उत्पादन के रूप में हुआ था। 2021-22 में खरीफ सीजन में बुवाई 70.643 लाख हेक्टेयर ही रह गई है। सभी प्रमुख दाल उत्पादक छह राज्यों में बुवाई में बीते वर्षों के मुकाबले गिरावट आई है। सबसे ज्यादा कमी राजस्थान में रही जहां वर्ष 2017 में इस अवधि तक 27.228 लाख हेक्टेयर बुवाई थी, वहीं इस वर्ष महज 9.198 लाख हेक्टेयर ही बुवाई हो सकी है (देखें, बुवाई में पीछे)।
कानून, आयात और कीमतें
खरीफ बुवाई में कमी एक बार फिर से उत्पादन आंकड़ों को नुकसान पहुंचा सकती है और प्रमुख दाल तुअर और उड़द, मूंग का उत्पादन और कम कर सकती है। यह न सिर्फ आयात बल्कि कीमतों के लिए भी निराशाजनक सबित होता है। इन दलहनों के उत्पादन की कमी सीधा कीमतों में उछाल और आयात निर्भरता और कानूनी फेरबदल के तौर पर दिखाई देती है। सरकार दाल की कीमतों पर नियंत्रण रखने के नाम पर लगातार यही रास्ता अपनाती रही है। वर्ष 2015 से लेकर अब तक बीते पांच वर्षों में सरकार ने आवश्यक वस्तुओं की कीमतों को नियंत्रित करने के नाम पर आवश्यक वस्तु अधिनियम, 1955 के विरुद्ध जाकर दाल के भंडारण के लिए दो बार सीमा तय की है। 2 जुलाई, 2021 को जारी अधिसूचना का इस बार थोक विक्रेताओं, खुदरा विक्रेताओं, मिल मालिकों और आयातकों ने खूब विरोध किया। इसके चलते सरकार को दोबारा विचार करना पड़ा और भंडारण सीमा को फिर से बढ़ाना पड़ा है। कन्फेडेरेशन ऑफ ऑल इंडिया ट्रेडर्स एसोसिएशन के रमणीक छेड़ा ने डाउन टू अर्थ से कहा कि 200 मीट्रिक टन की भंडारण सीमा 1955 में लगाई गई थी, जब जनसंख्या महज 25 करोड़ थी। इस वक्त 2,000 मीट्रिक टन की सीमा होनी चाहिए।
हालांकि, सरकार ने विशिष्ट खाद्य पदार्थों पर लाइसेंसी अपेक्षाएं, स्टॉक सीमाएं और संचलन प्रतिबंध हटाना (संशोधन) आदेश, 2021 को संशोधित करते हुए 19 जुलाई को कहा है कि अब सभी राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों के लिए तुअर, उड़द सहित सभी दालों के लिए 31 अक्टूबर 2021 तक के लिए स्टॉक सीमा निर्धारित की गई है। इसके तहत थोक विक्रेताओं के लिए ये स्टॉक सीमा 200 मीट्रिक टन के बजाए अब 500 मीट्रिक टन (बशर्ते एक किस्म की दाल 100 मीट्रिक टन के बजाए अब 200 मीट्रिक टन से ज्यादा नहीं होनी चाहिए)। खुदरा विक्रेताओं के लिए 5 मीट्रिक टन और मिल मालिकों के लिए ये सीमा उत्पादन के अंतिम 3 महीनों के बजाए अब 6 महीनों या वार्षिक स्थापित क्षमता का 25 प्रतिशत के बजाए अब 50 फीसदी, जो भी ज्यादा हो, वो होगी। नए बदलाव में आयातकों को इस भंडारण सीमा से बाहर कर दिया है। इसका आशय है कि सरकार अभी दलहन आयात को लेकर उदार भी बने रहना चाहती है। हर वर्ष दलहन की मांग और आपूर्ति का अनुपात ठीक करने के लिए करीब 30 लाख टन तक दालों को आयात करना पड़ता है।
आवश्यक वस्तु संशोधन अधिनियम, 1955 से अलग जाकर किए गए इस आदेशों पर ऑल इंडिया दाल मिल एसोसिएशन के अध्यक्ष सुरेंद्र अग्रवाल ने डाउन टू अर्थ से बातचीत में कहा कि खाद्य महंगाई दलहन में नहीं चल रही है। किसानों को अरहर और उड़द में तय न्यूनतम समर्थन मूल्य से भी कम दाम मिल रहे हैं। ऐसे में सरकार के द्वारा दालों की भंडारण की सीमा को लेकर उठाया गया कदम उन्हें हतोत्साहित करेगा। तीन कृषि कानूनों के साथ भंडारण सीमा की शक्ति के लिए केंद्र सरकार ने आवश्यक वस्तु संशोधन अधिनियम, 1955 में बदलाव किया था जिसे सुप्रीम कोर्ट ने दो वर्षों के लिए रोक दिया है। इसके बाद सरकार ऐसे आदेशों का सहारा ले रही है।
किसान संगठन से जुड़े किरण कुमार विस्सा बताते हैं कि आवश्यक वस्तु अधिनियम, 1955 में किया गया संशोधन केंद्र सरकार को यह शक्ति देता है कि वह आवश्यक वस्तुओं पर तत्काल प्रभाव से भंडारण सीमा (स्टॉक लिमिट) को तय कर सके। दरअसल यह शक्ति कृषि व्यवसाय से जुड़े कारोबारियों को फायदा दिलाने के लिए है। इसमें किसानों की आय को कोई फायदा नहीं होने वाला। उनका कहना है कि आवश्यक वस्तु अधिनियम, 1955 में बदलाव नाजायज है। इसी कानून की वजह से देशव्यापी लॉकडाउन के समय में खाद्यान्न महंगाई ठहरी रही थी। सरकार यह बात अच्छी तरह जानती है लेकिन लगता है कि भंडारण सीमा को लेकर उसकी मंशा कारोबारी हितों की है। दाल भंडारण सीमा को लेकर अचानक जारी होने वाली इस अधिसूचना से पहले वर्ष 2020 में सरकार ने आवश्यक वस्तु अधिनियम, 1955 के संशोधन में कहा था कि आवश्यक वस्तु अधिनियम या स्टॉक सीमा तभी लागू होगी जब दालों की कीमत या तो एमएसपी से 50 फीसदी अधिक होंगी या देश में कोई आपातकालीन स्थिति होगी। ऐसी कोई स्थिति नहीं होने के बावजूद सरकार ने भंडारण सीमा का इस्तेमाल किया।
कीमतें और किसान
थोक महंगाई के मामले में यह देखा गया है कि त्योहारों के मौकों पर मांग अत्यधिक बढ़ जाती है। ऐसे में एक कृत्रिम मंहगाई पैदा होती है। हालांकि खुदरा महंगाई ग्रामीण और मध्यम वर्गीय उपभोक्ताओं को ज्यादा परेशान करती है। जून, 2016 में तुअर 170 रुपए किलो और 196 रुपए किलो उड़द बेची गई थी। इस वर्ष 2021 में तुअर की खुदरा कीमतें 100 रुपए तक पहुंची हैं। जबकि चना मूंग और उड़द की कीमतें 80 रुपए से अधिक हैं। 2020-21 में रिटेल कीमतों को स्थिर रखने के लिए सरकार ने दालों के बफर का इस्तेमाल किया। मसलन मूंग, उड़द, तुअर राज्यों को छूट के साथ दिया गया। आपूर्ति का खर्च विभागों पर छोड़ा गया है। ऐसे में 2.3 लाख टन दालों को रिटेल हस्तक्षेप के तौर पर ओपन मार्केट बिक्री के तहत जारी किया गया है। सरकार का कहना है कि इस वर्ष एक अप्रैल से 16 जून तक कीमतों में स्थिरता आई है। हालांकि संकट का विषय यह है कि इससे किसानों को बड़ा झटका लग रहा है। भारतीय राष्ट्रीय कृषि सहकारी विपणन संघ (नेफेड) के जरिए एमएसपी पर जो भी दलहन की खरीद होती है, उसी स्टॉक को ओपन मार्केट में कम कीमत में दे दिया जाता है। इससे भाव नीचे आते हैं और अन्य दलहन किसानों को बाजार में दाल की बिक्री के लिए अच्छी कीमत नहीं मिल पाती है।
इंडियन काउंसिल फॉर रिसर्च ऑन इंटरनेशनल इकोनॉमिक रिलेशंस (आईसीआरआईईआर) के वरिष्ठ सलाहकार संदीप दास के मुताबिक, “दलहनों की बड़ी खरीद करने वाली नेफेड ने 2014-2015 से 2019-20 तक 38 लाख किसानों से 76.3 लाख टन दाल खरीदी है और बफर स्टॉक को ओपन मार्केट सेल स्कीम के तहत घाटे पर बेचा है। यह न सिर्फ बाजार में कीमतों को प्रभावित करता है बल्कि प्राइवेट उद्यमों को सीधा किसानों से दलहन खरीदने की प्रक्रिया को हतोत्साहित भी करता है।”
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