कृषि

दाल का संकट: गेहूं चावल की तरह मुफ्त में क्यों नहीं मिल रही दाल

कोविड-19 की पहली लहर के दौरान लगाए गए लॉकडाउन के बाद गरीबों को गेहूं चावल के साथ दाल भी दी गई, लेकिन दूसरी लहर के दौरान दाल नहीं दी जा रही है

Shagun, Vivek Mishra, Raju Sajwan, Anil Ashwani Sharma, Bhagirath

भारत दाल-चावल, दाल-रोटी खाकर गुजर-बसर करने वाला देश रहा है। लेकिन पिछले कुछ दशकों से आम आदमी की थाली से दालें गायब हो रही हैं। वजह, दालों का उत्पादन-रकबा आबादी के अनुपात में नहीं बढ़ा है और कीमतें बढ़ने से दालें गरीबों के बजट से बाहर हो रही हैं। वहीं दूसरी ओर कम उपज, लाभकारी मूल्य न मिलना, जलवायु के उतार-चढ़ाव के प्रति अधिक संवेदनशीलता के कारण पोषण का खजाना और पर्यावरण हितैषी इस फसल से किसानों का मोहभंग हो चला है। बहुत से किसानों ने दलहन की जगह गेहूं, धान या सोयाबीन जैसी फसलों से नाता जोड़ लिया है। यह स्थिति क्यों आई और भारतीय कृषि पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा? आखिर क्यों दालों के सबसे बड़े उत्पादक और उपभोक्ता देश की आयात पर निर्भरता बढ़ रही है? दालों की कम उपलब्धता स्वास्थ्य को किस प्रकार प्रभावित करेगी और इसके दूरगामी परिणाम क्या होंगे? डाउन टू अर्थ ने इन तमाम प्रश्नों के उत्तर तलाशती एक रिपोर्ट तैयार की। पहली कड़ी आप पढ़ चुके हैं। दूसरी कड़ी में आपने पढ़ा कि किसान सोयाबीन की फसल को तरजीह दे रहे हैं । पढ़ें इससे आगे की कड़ी- 

जब भारत ने पहली बार 2020 में लॉकडाउन लगाया तो सरकार ने प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना (पीएमजीकेएवाई) का ऐलान किया था, जिसके तहत 80 करोड़ से ज्यादा गरीबों को सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) के माध्यम से वितरित राशन से अतिरिक्त चावल, गेहूं और दालें दी जानी थीं। घोषणा के अनुसार, प्रत्येक परिवार को प्रतिमाह एक किलोग्राम दालें दी जानी थी। पीएमजीकेएवाई के तहत अप्रैल से नवंबर 2020 के बीच 12 लाख टन से ज्यादा दालें बांटी गईं।

चूंकि, चावल और गेहूं पहले से भारत के खाद्य सुरक्षा कार्यक्रम का हिस्सा हैं, इसलिए यह पहला मौका था कि सरकार इतने बड़े पैमाने पर दालों का वितरण कर रही थी। हालांकि इसे लागू करने में चुनौतियां थीं। नेफेड को शुरुआत में दाल मिलों के मालिकों के साथ तालमेल बैठाने में परेशानियों का सामना करना पड़ा, क्योंकि इसके पास पीडीएस के तहत दालों को बांटने का पहले से कोई अनुभव नहीं था।

नेफेड के कार्यकारी निदेशक कमलेंद्र श्रीवास्तव ने कहा, “एफसीआई के विपरीत, जहां यह एक नियमित गतिविधि है, नेफेड के लिए यह एक अलग ही गतिविधि थी। सामान्य तौर पर, हम साबुत दालों की आपूर्ति में लगे हैं, न कि मिल्ड दालों की। हमारे पास साबुत अनाज का भंडार था, इसलिए इतने कम समय में और इतनी बड़ी मात्रा के लिए मिलर्स को जोड़ना, वह भी महामारी के समय में, जहां लॉजिस्टिक की समस्याएं थीं, वास्तविक चुनौती थी।”

चाहे इन चुनौतियों की वजह से या बफर स्टॉक में गिरावट के कारण, दालें धीरे-धीरे कोविड राहत कार्यक्रम से गायब हो गईं। अप्रैल 2020 में क्षेत्रीय प्राथमिकताओं के अनुसार, दालों को पीडीएस में शामिल करना था लेकिन नवंबर 2020 में सिर्फ चना दाल तक इसमें शामिल रही। नवंबर में कोविड राहत कार्यक्रम को आगे बढ़ाया गया था जिसके बाद केवल चावल और गेहूं पीडीएस का हिस्सा रहे, दालों को पूरी तरह वितरण से बाहर कर दिया गया। यानी पहले जैसी स्थिति बहाल हो गई।

हालांकि यह पहला मौका था, जब दालों को पीडीएस में शामिल किया गया था। वर्षों से नेफेड और भारतीय दलहन व अनाज संघ (आईपीजीए) की ओर से यह मांग उठती रही है कि सरकार को पीडीएस में दो अन्य प्रमुख अनाजों के साथ दालों को भी शामिल करना चाहिए।

वर्तमान में मूल्य समर्थन योजना के तहत एमएसपी के आधार पर केंद्र सरकार के लिए नेफेड किसानों से पांच प्रमुख दालें- चना, मूंग, उड़द, मसूर, अरहर या तूअर खरीदता है। ऐसे देश में दालों को पीडीएस में शामिल करना सही कदम है, जहां पोषण के संकेतक निराशाजनक हैं। ग्लोबल हंगर इंडेक्स (2020) ने भारत को 107 देशों की सूची में 94वें स्थान पर रखा।

हालांकि, कुछ राज्यों ने दालों को पहले से अपने आईसीडीएस (समेकित बाल विकास योजना) और मिड डे मील कार्यक्रमों में शामिल किया हुआ है, लेकिन इसे पीडीएस में शामिल करने का कदम सरकार को पोषण अभियान के तहत 2022 तक कुपोषण मुक्त भारत का अपना लक्ष्य पूरा करने में मदद कर सकता है।

डाउन टू अर्थ को श्रीवास्तव ने बताया, “हमने कृषि लागत और मूल्य आयोग (सीएसीपी) सहित विभिन्न मंचों पर सुझाव दिए हैं कि दालों को पीडीएस में शामिल करना चाहिए। प्रोटीन का सेवन पहले से ही कम है, इसलिए पोषण सुरक्षा के लिए हमें इसे करना चाहिए।” यहां तक कि सीएसीपी ने विपणन सत्र (मार्केटिंग सीजन) 2021-22 के लिए जारी अपनी हालिया रिपोर्ट में कहा है कि गेहूं और चावल की तरह दालों के भंडार की बिक्री के लिए एक नीति बनाने की जरूरत है।

उनका कहना है, “प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना (पीएमजीकेएवाई) के तहत लगभग 19.5 करोड़ परिवारों को दालों का वितरण एक स्वागतयोग्य कदम है और यह बाजार की दालों की कीमतों को घटाए बगैर स्टॉक को कम करने में मदद करेगा और कुपोषण की समस्या को भी दूर करेगा। हालांकि, दालों के भंडार के निपटान के लिए एक दीर्घकालिक स्थायी नीति बनाने की जरूरत है।” पिछले दो वर्षों में चने की बंपर पैदावार हुई और यह मुख्य वजह है कि पीएमजीकेएवाई के तहत सरकार एक साल तक चने को बांट सकती है। 2021 में अन्य दालों के बफर स्टॉक घट गए और इसी वजह से हमने देखा कि वे योजना से गायब हो गईं।

सबसे पहले, यहां दालों की खरीद में 25 प्रतिशत की पाबंदी है। यानी नेफेड की कुल खरीद उस वर्ष/सत्र के वास्तविक उत्पादन के 25 प्रतिशत से ज्यादा नहीं होनी चाहिए। श्रीवास्तव कहते हैं, “गेहूं और चावल में खरीद से जुड़ी ऐसी कोई सीमा तय नहीं है। अगर (दालों के मामले में) इस सीमा को हटा दिया जाए तो इससे आपूर्ति और मांग को सरल बनाने में कुछ मदद मिलेगी। हम इस पाबंदी को हटाने के लिए आवाज उठा रहे हैं, लेकिन हो सकता है कि खाद्य सुरक्षा के तहत पर्याप्त पैसे ही न हों।”

इंडियन काउंसिल फॉर रिसर्च ऑन इंटरनेशनल इकोनॉमिक रिलेशंस (आईसीआरआईईआर) [B13] के वरिष्ठ सलाहकार संदीप दास का कहना है कि पीडीएस के तहत दालों को बांटना इतना आसान नहीं है। उन्होंने कहा, “हमारा (दालों का) उत्पादन इतना नहीं है कि भंडार का पीडीएस के लिए इस्तेमाल किया जा सके। अगर पीडीएस के तहत दालों का वितरण होता है तो इससे बाजार में इसकी बहुत ज्यादा किल्लत हो जाएगी।”

इसके अलावा, अलग-अलग दालों के लिए क्षेत्रीय प्राथमिकताएं अलग-अलग हैं। इसलिए, रसद संबंधी समस्याएं भी होगीं। उनके अनुसार, “सिर्फ चना अकेली ऐसी दाल है, जिसका भारत के कई क्षेत्रों में किसी न किसी रूप में सेवन या उपयोग होता है। चना भी कुल दलहन उत्पादन का लगभग आधा है। इसलिए, पीडीएस के तहत चने का वितरण करना आसान हो सकता है, लेकिन दूसरी कोई दाल नहीं।”

हालांकि, विशेषज्ञों का यह भी तर्क है कि अगर पीडीएस में दालों को शामिल किया जाता है, तो यह किसानों को अधिक दाल उत्पादन करने के लिए प्रोत्साहित करेगा, जिससे उत्पादन बढ़ेगा और बदले में हमारी आयात पर निर्भरता को घटा सकता है। श्रीवास्तव कहते हैं, “जब तक मांग नहीं पैदा होती है और किसान दलहन उगाने के लिए प्रोत्साहित नहीं होते हैं, तब तक आयात पर निर्भरता बनी रहेगी।” यह किसानों को दलहन की खेती के लिए प्रोत्साहित कर सकता है और उन्हें पानी की ज्यादा खपत वाली धान जैसी फसलें उगाने से दूर कर सकता है। बेंगलुरू स्थित इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंसेज के सेंटर फॉर इकोलॉजिकल साइंसेज के सलाहकार वैज्ञानिक एमडी सुभाष चंद्रन ने कहा कि दालों को पीडीएस से बाहर करने का एक प्रमुख कारण इसमें शामिल ऊंची लागत है।

दास कहते हैं, “हमारे पास धान के स्तर की दालों की मिलिंग क्षमता नहीं है। इसके अलावा, दालों का वितरण भी इतना आसान नहीं है। राज्यों के पास दालों के वितरण के लिए पैकिंग, देखभाल, प्रोसेसिंग और भंडारण की क्षमता नहीं है।” इसके अलावा, भारत में अलग-अलग क्षेत्र अलग-अलग दालें पसंद करते हैं, जो वितरण की लागत को काफी हद तक बढ़ा सकता है।

दिल्ली स्थित अंबेडकर यूनिवर्सिटी के ग्लोबल स्टडीज के एसोसिएट प्रोफेसर कौस्तव बनर्जी कहते हैं, “पीडीएस में क्षेत्रीय प्राथमिकता जोड़ने में तय लागत से ज्यादा खर्च आने की चुनौती होगी। यह सरकार के लिए खरीद और वितरण की लागत को बढ़ा देगा। सरकार इस खर्च को उठाने की स्थिति में है। वह आगे बताते हैं, “अगर दालों का उत्पादन बढ़ता है, तो आउटपुट बढ़ेगा और इससे जीडीपी भी बढ़ेगी। इसलिए, समय के साथ जीडीपी के प्रतिशत के रूप में राजकोषीय घाटा कम हो जाएगा। एक अन्य वजह है कि अगर उत्पादन बढ़ेगा तो देश का (दालों का) आयात बिल भी कम हो जाएगा।”