भारत दाल-चावल, दाल-रोटी खाकर गुजर-बसर करने वाला देश रहा है। लेकिन पिछले कुछ दशकों से आम आदमी की थाली से दालें गायब हो रही हैं। वजह, दालों का उत्पादन-रकबा आबादी के अनुपात में नहीं बढ़ा है और कीमतें बढ़ने से दालें गरीबों के बजट से बाहर हो रही हैं। वहीं दूसरी ओर कम उपज, लाभकारी मूल्य न मिलना, जलवायु के उतार-चढ़ाव के प्रति अधिक संवेदनशीलता के कारण पोषण का खजाना और पर्यावरण हितैषी इस फसल से किसानों का मोहभंग हो चला है। बहुत से किसानों ने दलहन की जगह गेहूं, धान या सोयाबीन जैसी फसलों से नाता जोड़ लिया है। यह स्थिति क्यों आई और भारतीय कृषि पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा? आखिर क्यों दालों के सबसे बड़े उत्पादक और उपभोक्ता देश की आयात पर निर्भरता बढ़ रही है? दालों की कम उपलब्धता स्वास्थ्य को किस प्रकार प्रभावित करेगी और इसके दूरगामी परिणाम क्या होंगे? डाउन टू अर्थ ने इन तमाम प्रश्नों के उत्तर तलाशती एक रिपोर्ट तैयार की। पहली कड़ी आप पढ़ चुके हैं,पढ़ें, दूसरी कड़ी -
हालांकि, 1960 के बेहद कठिन खाद्य संकट के वक्त सोयाबीन को बेहतर बनाने के लिए वैज्ञानिकों ने काफी अनुसंधान किया, लेकिन अरहर की फसल की उपज स्थिर ही रही। आज व्यवसायिक फसलों के तौर पर सोयाबीन प्रमुख दाल उत्पादक दाल राज्यों में तुअर के क्षेत्र को न सिर्फ सीमित कर रही है बल्कि दाल उत्पादक राज्यों जैसे महाराष्ट्र में जायद सीजन (रबी और खरीफ के बीच की अवधि) में उगाई जाने वाली मूंग और उड़द की जगह सोयाबीन ने ले ली है।
आईआईटी, कानपुर की एग्रोपीडिया वेबसाइट के मुताबिक, अरहर के साथ सोयाबीन का अनुपात 2:1 का होना चाहिए। यह अनुपात पूरी तरह से न सिर्फ गड़बड़ हो रहा है, बल्कि महाराष्ट्र के उन क्षेत्रों में जहां सूखा था और पानी का इंतजाम हो रहा है वहां पर लोग तुअर के बजाए सोयाबीन की खेती को बढ़ावा दे रहे हैं।
महाराष्ट्र वाशिम जिले के बामबरदा करांजा गांव के निवासी ग्यानेश्वर डेकाले 500 किसानों के साथ एक फॉर्मर्स प्रोड्यूसर ऑर्गेनाइजेशन चलाते हैं। उन्होंने डाउन टू अर्थ को बताया कि उनके गांव में सोयाबीन और अरहर का अनुपात उल्टा है। सोयाबीन में ही पांच फुट की दूरी पर अरहर लगाते हैं। डेकाले बताते हैं कि बीते पंद्रह वर्षों में मौसम के कारण फसलों का पैटर्न बहुत ज्यादा बदला है। मिसाल के तौर पर नागपुर में संतरा अब काफी कम हो गया। हमारे यहां अरहर के क्षेत्र में दशकों से विस्तार नहीं हुआ है। इस बीच किसानों में सोयाबीन का बेहतर भाव और तत्काल नगद मिलने से आकर्षण बढ़ा है।
वह बताते हैं जहां पानी है वहां तो किसान तुअर बोने से कतराते हैं क्योंकि सोयाबीन की फसल सिर्फ 110 दिन में तैयार हो जाती है और उपज भी प्रति एकड़ 7-8 कुंतल तक पैदा हो जाती है। जबकि तुअर 152 से 183 दिनों में तैयार होती है और उपज औसतन 3 कुंतल तक ही सीमित है। जैसे ही सोयाबीन तैयार होती है, रबी में जाने के लिए दूसरी फसल की जगह बन जाती है। हालांकि, तुअर के साथ रहने पर खेत फंसा रह जाता है।
सोयाबीन और अरहर के बीच लेकर आईआईपीआर के वैज्ञानिक सी भारद्वाज बताते हैं कि इंदिरा नहर से राजस्थान के श्रीगंगानगर में पानी की उपलब्धता हुई और उसने वहां बाजरे की फसल को ही पूरी तरह समाप्त कर दिया। पानी की उपलब्धता फसल चक्र को बदल देती है। ऐसे में सूखे क्षेत्रों में पानी का इंतजाम करने वाले किसान सोयाबीन के खेतों में अच्छा भाव और उन्नत किस्म बीज न मिलने के कारण अरहर की इंटरक्रॉपिंग को धीरे-धीरे और ज्यादा कम कर सकते हैं।
भारद्वाज कहते हैं कि यदि किसी को उसकी उपज का लाभकारी मूल्य नहीं मिलेगा तो वह क्यों ऐसी फसल पैदा करेगा? न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) दालों पर जरूर है लेकिन उसकी उतनी खरीद नहीं होती। इसलिए किसान कम उपज और लंबी अवधि वाली तुअर की फसलों को छोड़कर सोयाबीन की फसल को अपना लेते हैं क्योंकि बाजार से इन्हें आसानी से भाव मिल जाता है।
ऑल इंडिया दाल मिल एसोसिएशन के अध्यक्ष सुरेंद्र अग्रवाल ने डाउन टू अर्थ से बातचीत में कहा कि दालों की एमएसपी बढ़ाई जरूर गई है लेकिन किसानों के दाल पैदा करने में जितनी लागत लगती है, एमएसपी उसके बराबर या उससे कम है। ऐसे में अरहर की एमएसपी 6,000 रुपए के बजाए कम से कम 7,000 रुपए तक होनी चाहिए।
अरहर को खरीदारी नेफेड एजेंसी करती है लेकिन महाराष्ट्र के वाशिम जिले में किसान उत्पादन संगठन चलाने वाले ग्यानेश्वर डेकाले बताते हैं कि नेफेड किसानों से दाल खरीदने के लिए बहुत कम समय देती है। रजिस्ट्रेशन की प्रक्रिया जटिल होती है, उसके बाद 45 दिन की तय सीमा में दालों को देना होता है। दालों की वैराइटी और गुणवत्ता का भी मुद्दा होता है। ऐसे में किसान नेफेड के बजाए मंडी में ही दाल बेच देते हैं। पांच प्रमुख दलहन हैं जो न्यूनतम समर्थन मूल्य के दायरे में हैं, उनमें चना, अरहर, उड़द, मूंग, मसूर शामिल हैं।
कीमतों को नियंत्रित करने और आयात घटाने को लेकर रबी मार्केट सीजन 2021-2022 के लिए सरकार ने चना का एमएसपी 4,875 रुपए से बढ़ाकर 5,100 रुपए और मसूर का 4,800 रुपए से बढ़ाकर 5,100 रुपए किया है। जबकि अरहर और उड़द का एमएसपी अभी 6,000 रुपए है और मूंग का एमएसपी 7,196 रुपए है। मध्य प्रदेश में सिहोर जिले के कृषक प्रवीण परमार बताते हैं कि अरहर के क्षेत्र का विस्तार तो थमा है लेकिन सोयाबीन की खली का अंतरराष्ट्रीय बाजार भाव अच्छा रहता है। इससे किसानों को बेहतर दाम मिल जाता है।
भारत में सोयाबीन की इंट्री
1960 में दालों की उपज स्थिर बनी हुई थी और देश खाद्य संकट से जूझ रहा था। ऐसे में 1960 में उत्तराखंड के पंतनगर स्थित जीबी पंत यूनिवर्सिटी ऑफ एग्रीकल्चर और जबलपुर में जवाहर नेहरू कृषि विश्वविद्यालय व अमेरिका की यूनिवर्सिटी ऑफ इलिनॉस ने संयुक्त रूप से सोयाबीन की उपज बढ़ाकर प्रोटीन की कमी को दूर करने का एक प्रयास शुरू हुआ। प्रारंभिक ट्रायल 1965-66 में हुए। 110 से 130 दिनों में तैयार होने वाली, प्रति हेक्टेयर 3 से 4 टन की उपज वाली दक्षिणी अमेरिका के सोयाबीन किस्म का इस्तेमाल किया गया।
बाद में 1 अप्रैल 1967 से इसे इंडियन काउंसिल एग्रीकल्चरल रिसर्च (आईसीएआर) के जरिए प्रमोट किया गया। वैज्ञानिकों के प्रयास जारी रहे। भारतीय सोयाबीन अनुसंधान संस्थान के मुताबिक, 1970-71 में भारत में सोयाबीन का रकबा 32 हजार हेक्टेयर क्षेत्र में था जो 2020-21 में बढ़कर 1.29 करोड़ हेक्टेयर पहुंच गया है। इसी तरह सोयाबीन का उत्पादन भी 1960 में 14 हजार टन व उपज 426 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर थी।
2020-21 में यह उत्पादन बढ़कर 1.37 करोड़ टन व उपज 1,056 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर हो चुकी है (देखें, सोयाबीन ने पछाड़ा, पेज 33)। इस बीच दलहन की फसलें उपेक्षित रही हैं और अपनी उपज को लेकर अब तक जूझ रही हैं। इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ ट्रॉपिकल एग्रीकल्चर के वैज्ञानिक बीबी सिंह ने अपने सहयोगियों के साथ भारत में सोयाबीन की सफलता और शुरुआती चुनौतियों पर समर्थन नाम के एक शोध पत्र में लिखा है कि आईसीएआर के तत्कालीन निदेशक रहे एमएस स्वामीनाथन ने 1970 की शुरुआत में कहा, “जब तक फसल 10 लाख हेक्टेयर क्षेत्र और 10 लाख टन प्रतिवर्ष का उत्पादन न दे तो भारतीय अर्थव्यवस्था में कोई खास बदलाव नहीं आएगा। इसके बाद वैज्ञानिकों ने मध्य प्रदेश की उन जमीनों को सोयाबीन के लिए प्रयोगस्थल बनाया जो कि अर्धशुष्क थीं।”
खरीफ के साथी दलहन और तिलहन
यदि पांच प्रमुख दलहन फसलों को रबी और खरीफ के आधार पर बांटकर देखें तो दलहन फसलों में कुल 60 फीसदी की हिस्सेदारी अकेले रबी सीजन में चना (2020-21 में रिकॉर्ड 126 लाख टन) रखता है। यदि दलहन के कुल उत्पादन (2020-21 में 255 लाख टन) में से चना को हटा दें तो अरहर, मूंग, उड़द और मसूर के उत्पादन, क्षेत्र और उपज का सिर्फ 40 फीसदी आंकड़ा शेष रहेगा। दलहन में चना एक मजबूत स्तंभ है और अन्य दालों के मुकाबले इसका उपभोग कई तरह से किया जा सकता है।
हालांकि, रबी सीजन में चना क्षेत्र, उत्पादन और उपज बढ़ाना अब भी एक चुनौती है। अच्छे और उन्नत बीजों का अभाव है। दलहन क्षेत्र में एक बड़ा संकट खरीफ सीजन में बोई जाने वाली प्राइम दालों का है, जिसकी कीमतें करीब हर वर्ष बढ़ने के कारण गरीब और मध्यम वर्ग को झटका लगता है। इन प्राइम दालों में तुअर (अरहर), मूंग, उड़द शामिल हैं।
वहीं, खरीफ सीजन में ही बोई जाने वाली तिलहन फसलों में सोयाबीन की हिस्सेदारी सबसे ज्यादा है जिसने दाल पैदा करने के लिए बेहतरीन कृषि जलवायु वाले क्षेत्र विदर्भ में जल्दी बोई जाने वाली (अप्रैल-मई) मूंग और उड़द की पैदावार को न सिर्फ कम कर दिया है बल्कि तुअर की फसल को सीमित और स्थिर रखने में भी हिस्सेदारी कर रही है।
हालांकि आंकड़ों के हिसाब बुवाई क्षेत्र के मामले में कुल दलहन और तिलहन बिल्कुल बराबरी पर खड़ी दिखाई देती हैं। कृषि मंत्रालय के आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक, कुल दलहन का क्षेत्र वर्ष 2007-08 में 13 फीसदी था जो 2019-20 में एक फीसदी की बढ़त के साथ 14 फीसदी रहा। वहीं तिलहन 13 वर्षों बाद बिना किसी बदलाव के 14 फीसदी पर कायम है।
हालांकि, खरीफ सीजन में प्रमुख दलहन और तिलहन उत्पादन राज्यों के दलहन में अरहर, मूंग और उड़द और तिलहन में सोयाबीन के क्षेत्र, उत्पादन और उपज की तुलना से यह स्पष्ट होता है कि तय अनुपात ठीक नहीं है। बल्कि इस वक्त किसानों में सोयाबीन का आकर्षण ज्यादा है और प्रमुख क्षेत्रों में दलहन की उपेक्षा जारी है।
2020-21 में केंद्रीय कृषि मंत्रालय के तृतीय अग्रिम अनुमान के मुताबिक, देश में 134 लाख टन सोयाबीन का उत्पादन हुआ है जबकि कुल दलहन में अरहर, मूंग और उड़द 91.16 लाख टन है। 1990 में महाराष्ट्र का सोयाबीन का रकबा 20.0 लाख हेक्टेयर था और उत्पादन 1.89 लाख टन था जो 2019-20 में बढ़कर 37.36 लाख हेक्टेयर पहुंचा और उत्पादन 39.41 लाख टन जबकि 1990 में अरहर का रकबा 10.07 लाख हेक्टेयर था और उत्पादन 4.2 लाख टन था। 30 वर्षों में बाद 2019-20 में तृतीय अग्रिम अनुमान में अरहर का रकबा 11.95 लाख हेक्टेयर है और उत्पादन 9.72 लाख टन है। विकास के हिसाब से महाराष्ट्र में सोयाबीन हावी है।
वैज्ञानिक सी भारद्वाज ने कहा कि दाल उत्पादन के मामले में कभी अनाज या तिलहन को कभी मुकाबला नहीं कर पाएगा। 4 ग्राम कार्बोहाइड्रेट एक ग्राम प्रोटीन के बराबर होता है। मिसाल के तौर पर किसी जगह पर यदि 40 किलोग्राम अनाज मिला है तो वहां 20 किलोग्राम तिलहन की फसल और 10 किलोग्राम ही दलहन मिलेगा।
दलहन को उत्पादन के मामले में तिलहन के बराबर खड़ा करने के लिए काफी क्षेत्र बढ़ाना होगा और फसल चक्र की अच्छी रणनीति अपनानी होगी। हालांकि तिलहन के बराबर दलहन क्षेत्र को बढ़ाने का विचार किसान के लिए काफी जोखिम भरा हो सकता है क्योंकि यह बाजार की प्रतिक्रिया पर ही निर्भर है।
जिन राज्यों में सोयाबीन नहीं है और वह अरहर की खेती बंद कर चुके हैं, वहां गेहूं और धान की लगातार फसल चक्र के कारण नुकसान उठाना पड़ रहा है। उत्तर प्रदेश के जिला मुख्यालय इटावा से 20 किलोमीटर दूर बिहारीपुर गांव में “द अन्नदाता सॉयल टेस्टिंग लैब” संचालित करने वाले मोहित यादव बताते हैं कि उनके क्षेत्र में अब खरीफ में 10 फीसदी भी दलहन की फसल नहीं बची है।
10 वर्ष पहले तुअर का रकबा काफी ज्यादा था। जैसे ही सिंचाई की व्यवस्था हुई वैसे लोगों ने तुअर छोड़कर धान की पैदावार शुरू कर दी। वह बताते हैं कि दलहन की फसलों के खत्म होने से मिट्टी में न सिर्फ नाइट्रोजन की कमी आ गई है बल्कि ऑर्गेनिक कार्बन भी सामान्य 0.5 फीसदी से कम ही मौजूद है। ऐसे में उत्पादकता पर असर आ रहा है और लागत भी बढ़ रही है। अरहर की खेती में काफी समय देना पड़ता था जबकि किसान नगदी फसलों की तरफ ज्यादा झुक गए हैं।
बिहारीपुर गांव में तीन वर्ष पहले खरीफ सीजन में कम पानी और लागत व उपज के साथ बेहतर आमदनी के लिए नगदी फसलों के विकल्प में बैंगन की खेती को चुना है। किसानों का कहना है कि इटावा के इस गांव से बैंगन की ज्यादातर मांग बिहार से आती है। अब किसान ऊंचे खेतों में इस ओर ज्यादा ध्यान दे रहे हैं। सीमांत किसान दाल की खेती में नुकसान का बोझ नहीं उठा सकते।
उत्तर प्रदेश के श्रावस्ती जिले में पटना खरगौरा गांव की प्रधान ममता पांडेय बताती हैं कि छह हजार की आबादी वाले गांव में कभी 60 फीसदी लोग अरहर पैदा करते थे लेकिन अब 10 परिवार भी अरहर की खेती नहीं करते। गांव के ही बक्षराज पासवान बताते हैं, “1990 के दशक में हमारे पास 10-12 बीघा जमीन थी, कुछ बिक गई और जो बची वो चार भाइयों में बंटी और करीब दो बीघे मेरे हिस्से आई।
इसमें 6 कुंतल धान और 4 कुंतल गेहूं पैदा होता है, जबकि छेदा रोग के कारण दाल की उपज ही 20 से 25 किलो ही बची थी। एक कुंतल धान और 2 कुंतल गेहूं अपने सात सदस्य वाले परिवार के लिए रखता हूं। बाकी की बिक्री होती है तो खेती से मेरी आमदनी प्रतिमाह 1,200 से 1,500 रुपए स्थिर है।