कृषि

परागणकारी जीवों की कमी के बावजूद वैश्विक अनाज उत्पादन में बढ़ोत्तरी

वैश्विक संस्था आईपीबीईएस की ड्राफ्ट रिपोर्ट के मुताबिक बीते 50 वर्षों में परागण पर निर्भर रहने वाली वैश्विक फसलों में 300 फीसदी की बढोत्तरी हुई है।

Richard Mahapatra, Vivek Mishra

क्या आपको मालूम है कि हमारे लिए फल-फूल और जरूरी अनाज पैदा करने वाले परागणकारी जीवों की संख्या भले ही तेजी से कम हो रही हो लेकिन इसका वैश्विक अन्न उत्पादन पर असर नगण्य है। अनाज उत्पादन में परागण की प्रमुख भूमिका होती है। यदि इसी स्थापित तथ्य के विपरीत यह सवाल आपसे पूछा जाए कि परागण की प्रक्रिया को अंजाम देने वाले परागणकारी जीवों की संख्या घटने के बावजूद वैश्विक अन्न उत्पादन में बढ़ोत्तरी कैसे हो रही है? तो शायद आप सोच में पड़ जाएं। बहरहाल इस सवाल के जवाब का एक सिरा आपको यहां मिल सकता है।

सबसे पहले यह तथ्य जानना  आपके लिए दिलचस्प होगा कि बीते 50 वर्षों में परागण पर निर्भर रहने वाली वैश्विक फसलों में 300 फीसदी की बढोत्तरी हुई है। यह तब हुआ है जब परागणकारी जीवों जैसे - मधुमक्खियों, कीट, पक्षी आदि की संख्या में बड़ी गिरावट है। इस गिरावट के साथ ही दुनिया भर में अनाज की मांग के दबाव के चलते खेती का दायरा भी बढ़ रहा है।

परागण को लेकर हमारी अब तक कि तैयार सोच को हिला देने वाला यह अहम सवाल जैव-विविधता और पारिस्थितिकी सेवाओं के अंतरराज्यीय विज्ञान  नीति मंच (आईपीबीईएस) ने अपनी वैश्विक आकलन ड्राफ्ट रिपोर्ट में उठाया है। संस्था की ओर से  2005 के बाद दूसरी बार यह ड्रॉफ्ट रिपोर्ट तैयार की गई है।

इस तथ्य पर बढ़ने से पहले थोड़ा परागण प्रक्रिया को भी जान लेते हैं। परागण के बारे में आपने स्कूल में एक पाठ जरूर पढ़ा होगा। परागणकारी जीव यानी मधुमक्खी या अन्य कीट नर फूलों में पैदा होने वाले पराग कणों को मादा फूलों के गर्भ तक पहुंचाते हैं। इससे नए फल, फूल, बीज आदि का जन्म होता है। यही प्रक्रिया हमारे खाने के लिए जरूरी फसलों का इंतजाम करती है। इसी तरह चिड़िया भी बीजों को इधर से उधर पहुंचाती रहती है।

रिपोर्ट तैयार करने वाली वैश्विक संस्था आईपीबीईएस में 132 सदस्यों की नुमाइंदगी है। इस संस्था के जरिये पारिस्थितिकी सेवाओं और जैवविविधता का आकलन किया जाता है। संस्था के जरिये अगली 4 मई को निर्णायक रिपोर्ट जारी की जाएगी। आईपीबीईएस ने फिलहाल ड्राफ्ट रिपोर्ट पर पूछे गए सवालों का अभी जवाब नहीं दिया है। इसकी निर्णायक रिपोर्ट में तथ्यों में कुछ बदलाव भी हो सकते हैं। 

रिपोर्ट के मुताबिक द मिलेनियम इकोसिस्टम  ने जिन 15 पारिस्थितिकी सेवाओं में गिरावट को दर्ज किया है उनमें फसलों के उत्पादन में जरूरी परागण की प्रक्रिया भी शामिल है। आईपीबीईएस का कहना है कि ऐसी फसलें जिनमें परागण पशुओं के जरिये होता है उनपर निर्भरता भी खूब बढ़ी है। इसके चलते खासतौर से विकासशील देशों में खेती का दायरा भी बढ़ा है। इसका यह असर हुआ है कि ज्यादा खेती के लिए परागणकारी जीवों  की मांग भी ज्यादा बढ़ी है। 

यह सर्वविदित है कि मधुमखी समेत अन्य परागणकारी जीवों की संख्या तेजी से घट रही है। यह कारण  भी ठीक से ज्ञात नहीं हो सका है कि परागणकारी जीवों की संख्या में गिरावट आखिर वैश्विक खाद्य उत्पादन पर असर क्यों नहीं डाल पाया है।  जबकि स्थानीय परागणकारी जीवों की कमी के साथ आर्थिक क्षति के भी मामले जुटाए जा रहे हैं। परागणकारी जीवों की कमी और अनाज उत्पादन पर उनके प्रभाव की गुत्थी आईपीबीईएस की निर्णायक रिपोर्ट सुलझा सकती है।

 फिलहाल ड्राफ्ट रिपोर्ट में कहा गया है कि फसलवार परागणकारी जीवों की निर्भरता में काफी अंतर होता है। कुल कृषि उत्पादन में हमारे खाने लायक जो  भी बीज और फल है उसमें परागणकारी जीवों की प्रत्यक्ष हिस्सेदारी महज 5 से 8 फीसदी की है। वहीं, बीते पांच दशक में कुल कृषि उत्पादन में इस छोटे से हिस्से में प्रत्यक्ष तौर पर परागणकारी जीवों पर निर्भरता में चार गुना की बढोत्तरी हुई है। जबकि ऐसी जगह जहां अनाज का उत्पादन सीधे परागणकारी जीवों पर निर्भर नहीं है वहां इस तरह की निर्भरता में दोगुना बढोत्तरी हुई है। 

इसका मतलब है कि दुनिया अनाज उत्पादन को लेकर जितना पांच दशक पहले परागण वाले फसलों पर  निर्भर थी उससे दोगुनी निर्भरता इस वक्त है। परागण युक्त फसलों पर निर्भरता 1990 के दौर से बढ़ी। 2015 का एक आकलन है कि वैश्विक स्तर पर परागण की प्रक्रिया में तेजी से अतिरिक्त फसल उत्पादन की लागत 235 अरब डॉलर से लेकर 577 अरब डॉलर रही है। 

रिपोर्ट में यह कहा गया है कि स्थानीय स्तर पर यह गौर किया गया है कि परागणकारी जीवों की विविधता में हो रही कमी के चलते फसलों में गिरावट का तथ्य अर्धसत्य है। यह प्रवृत्ति वैश्विक स्तर पर नहीं देखी गयी है। स्थानीय स्तर पर फसलों का परागणकारी जीवों से गहरा रिश्ता है।

वहीं, खाद्य और कृषि संघ (एफएओ) की ओर से किए गए एक अन्य वैश्विक आकलन में यह बात कही गई है कि परागण मुक्त खेती के मुकाबले परागण पर निर्भर रहने वाली फसलों में भी गिरावट नहीं पाई गई है। एफएओ ने अपने आकलन में कहा है कि परागण पर निर्भर रहने वाली फसलों में जबरदस्त विस्तार हुआ है। जबकि वे पूर्व में बेहद मंद गति से विकसित हो रही थीं। मौजूदा समय में दुनिया के भीतर खेती योग्य भूमि के विस्तार में परागणकारी जीवों पर निर्भर फसलों की हिस्सेदारी 30 फीसदी है। यही वजह है कि हम फसल उत्पादन के लिए हम परागणकारी जीवों का इस्तेमाल कर रहे हैं। वैश्विक स्तर पर कृषि उत्पादन में एक तिहाई फसलें पशुओं के परागण पर निर्भर रहती हैं। 

रिपोर्ट में इस बात पर आगाह भी किया गया है कि परागण करने वालों का फसल बीज के उत्पादन में अप्रत्यक्ष भी बहुत ही अहम भूमिका होती है। यदि अधिक अनाज के लिए खेती की जमीन में बढ़ोत्तरी होती है और परागणकारी जीवों की आबादी में कमी के कारण अनाज उत्पादन को नुकसान होता है तो हमें इसकी बहुत बड़ी पर्यावरणीय लागत चुकानी होगी। इसका खामियाजा यह होगा कि हम अपना प्राकृतिक पर्यावास खोते चले जाएंगे।