मध्य प्रदेश के मंदसौर जिले के श्यामगढ़ गांव के ओमजी पहले प्लास्टिक मल्चिंग का इस्तेमाल करते थे, लेकिन अब नहीं करते।
वह बताते हैं, “प्लास्टिक जब तक उपयोग करते हैं तब तक तो ठीक है, लेकिन उसे खेतों से निकालना मुश्किल हो जाता है। टूटकर मिट्टी में मिले प्लास्टिक के कण पानी को नीचे जाने से रोकते हैं। जब भी जुताई करते हैं ये कण बाहर आ जाते हैं।” वह उस दिन को कोस रहे हैं, जब उन्होंने अपने खेतों में मल्चिंग का इस्तेमाल करना शुरू किया था।
जब खेतों में पौधे लगाए जाते हैं या बुआई की जाती है, उसके ठीक बाद खेत को प्लास्टिक की पन्नियों से ढक दिया जाता है। इसे मल्चिंग कहा जाता है। इसका फायदा यह होता है कि मिट्टी सूखती नहीं है, मिट्टी की नमी बनी रहती है। साथ ही, पौधे खरपतवार से बचे रहते हैं। सर्दियों में पाले से भी पौधे प्रभावित नहीं होते।
लेकिन मल्चिंग और पॉलीहाउस के लिए उपयोग होने वाली घटिया प्लास्टिक से खेत की मिट्टी को नुकसान हो रहा है। उत्तर प्रदेश में फैजाबाद के उन्नतशील किसान राकेश दुबे कहते हैं, अभी इसके अच्छे पक्ष देखे जा रहे हैं, लेकिन आगे इसका नुकसान ज्यादा है। जहां कई सालों से मल्चिंग की जा रही है उन खेतों की मिट्टी बहुत खराब हो गई है।”
मल्चिंग से मिट्टी का बायोलॉजिकल तंत्र नष्ट हो जाता है। बुलंदशहर के बिहटा गांव निवासी पद्मश्री किसान भरत भूषण त्यागी कहते हैं, “प्लास्टिक मल्चिंग को ऐसे दिखाया जा रहा है कि जैसे जमीन को ढक कर हम कोई बड़ा काम कर रहे हैं। मल्चिंग से जमीन का तापमान बढ़ता है, जिससे माइक्रोब्स बढ़ने की बजाय नुकसान ही होता है। प्लास्टिक की मल्चिंग और पॉलीहाउस प्रकृति विरोधी है, इससे आगे चलकर नुकसान ही होता है। एक तरफ हम जलवायु परिवर्तन की बात कर रहे हैं, दूसरी ओर ऐसे काम कर रहे हैं जिससे मिट्टी की सतह खराब हो।”
संयुक्त राष्ट्र की संस्था खाद्य एवं कृषि संगठन (एफएओ) की रिपोर्ट के अनुसार महासागरों से कहीं अधिक मात्रा में प्लास्टिक कृषि भूमि में मिली हुई है। अगर ऐसे ही दुनियाभर में खेती में प्लास्टिक का उपयोग बढ़ता रहा, तो ये वर्ष 2018 के 6.1 मिलियन टन से 50% बढ़कर वर्ष 2030 तक 9.5 मिलियन टन पहुंच जाएगा।
केंद्रीय मृदा लवणता अनुसंधान संस्थान लखनऊ के मृदा विज्ञानी संजय अरोड़ा कहते है, “चाहे मल्चिंग से हो, पॉलीहाउस हो, या पाइप से कृषि में प्लास्टिक के इस्तेमाल की बात हो, पॉलीमर या माइक्रो प्लास्टिक जब मिट्टी में चला जाता है, तो जो बैक्टीरिया या पोषक तत्व पौधे की वृद्धि कराने में सहायक होते हैं, वो प्रभावित होते हैं। क्योंकि बैक्टीरिया जब पॉलीमर के साथ होता है तो उसे सांस लेने में दिक्कत होती है। उसका रेस्पिरेशन (सांस लेने व छोड़ने की प्रक्रिया) कमजोर हो जाता है। कई पोषक तत्व ऐसे हैं जो पॉलीमर की सतह पर अवशोषित हो जाते हैं और पौधे को उपलब्ध नहीं हो पाते। माइक्रोप्लास्टिक (पांच मिमी से कम प्लास्टिक कण) के कण बहुत छोटे होते हैं तो उनसे हैवी मेटल रिलीज होता है तो हानिकारक तत्व पौधे में आ जाते हैं। जो खाद्य श्रृंखला से होते हुए मनुष्यों सेहत खराब कर रहे हैं।”
पर्यावरण विज्ञान पर आधारित वेबसाइट फ्रंटियर में छपे एक शोध के अनुसार अगर माइक्रोप्लास्टिक मिट्टी में मिलती है, तो उसका पीएच मान बढ़ जाता है, और सूक्ष्म जीवों की मौजूदगी कम होने लगती है। अमेरिका की कॉसस स्टेट यूनिवर्सिटी की प्रोफेसर मेरी बेथ के प्रयोग पर आधारित एनवायर्नमेंटल हेल्थ न्यूज में छपे एक आर्टिकल के अनुसार माइक्रोप्लास्टिक (5 मिमी से छोटे कण) मिश्रित मिट्टी में उगाए गए गेहूं में कैडमियम (एक जहरीला पदार्थ) की मात्रा काफी अधिक मिली।
दुनिया में कृषि क्षेत्र में उपयोग होने वाली कुल प्लास्टिक की मात्रा में आधे से अधिक सिर्फ एशिया में उपयोग होती है। चीन और भारत बड़ा बाजार हैं।
संजय अरोड़ा कहते हैं, “प्लास्टिक की मोटाई और क्वालिटी कितनी होनी चाहिए, किसान नहीं जानते। घटिया प्लास्टिक टूट कर मिट्टी में ही मिल जाता है, वो कहां जाएगा। हर साल इसे खरीदना पड़ता है, तो प्लास्टिक का कूड़ा भी काफी इकट्ठा होता रहता है।”
ओमजी कहते हैं, “जो कंद वाली फसलें हैं, उसमें मल्चिंग का बेहतर इस्तेमाल होता है। इसमें उत्पादन बढ़ जाता है। बाकी फसलों में खरपतवार को नियंत्रित करने के लिए होता है। इसके अलावा कोई खास उपयोग नहीं होता है। लेकिन इसके नुकसान भी हैं, केचुओं और जो अच्छे जीव होते हैं, उनको भी जरूरत होती है। निमेटोड नमी में ज्यादा पनपते हैं तो मिट्टी को नुकसान पहुंचाते हैं। अभी गर्मियों में हमने खूब धूप में सुखा दिया तो फंगस आदि खत्म हो गई है, अगर मैं प्लास्टिक की मल्चिंग रखता तो ये पनपते रहते।”
वह आगे कहते हैं, “लेकिन कभी न कभी तो उसे हटाकर निस्तारण करना ही पड़ेगा। जब जलाते हैँ तो पर्यावरण को नुकसान करती है।”
भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के पूर्वोत्तर क्षेत्र के निदेशक एवं मृदा विज्ञानी डॉ. विनय मिश्रा कहते हैं, “मल्चिंग के बाद मिट्टी प्रकृति से दूर हो जाती है। अगर छह महीने तक मिट्टी के ऊपर पॉलीथीन लगा दी, तो उसे खुला वातावरण नहीं मिलेगा। इस वजह से फ्लोरा-फॉना (विशेष क्षेत्र में जीव-जंतु व वनस्पति) पर विपरीत प्रभाव पड़ता है।”
वह आगे कहते हैं, “जितनी भी नई तकनीक है सब पॉलिमर आधारित है। जब ये पॉलिमर टूटने के बाद मिट्टी में मिलते हैं, तो भारी तत्वों की मात्रा बढ़ जाती है। इससे मिट्टी में लोहा, शीशा, कोबाल्ट आदि की मात्रा बढ़ रही है। जिससे मिट्टी में प्रदूषण बढ़ता है। ये तत्व मिट्टी में कितने होने चाहिए, कितना मिट्टी में रह सकते हैं, इसकी कोई विशेष आंकड़ा नहीं है। इस पर ध्यान देने की जरूरत है, इस पर एक लैब बने जो इसका अध्ययन करे कि जो पॉलीमर मिट्टी में आ रहे है उनका कितना प्रभाव पड़ रहा है।”
इन तरीकों से प्लास्टिक का बढ़ता प्रयोग
टपका सिंचाई, पानी के पाइप, मल्चिंग, बंधन और मचान, पॉलीहाउस, ड्रिप सिंचाई, स्प्रिंकलर/पाइप लाइन, वाटर गन, पैकेजिंग, स्प्रे मशीन, खाद की बोरी, कीटनाशक की पैकिंग, फसल ढकने के लिए प्लास्टिक कवर, बीज की पैकिंग, खेतों की बाड़, ड्रम कंटेनर, डेयरी, मछली पालन, नर्सरी के लिए सुरंग बनाना, गोदाम और साइलोज।
ऑर्गेनिक मल्चिंग है विकल्प
उत्तर प्रदेश के सीतापुर जिले में केवीके कटिया के प्रमुख व वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. दया श्रीवास्तव मानते हैं कि खेती को प्रकृति से बाहर नहीं लेकर जाना चाहिए। प्लास्टिक से बेहतर है कि मल्चिंग के लिए जूट, और पराली आदि का प्रयोग किया जाए। जो आसानी से डिकंपोज भी हो जाती है। इस पर उपभोक्ता से लेकर किसानों तक असर देखना चाहिए। इसके लिए राष्ट्रीय स्तर पर नीति बने।
इसके लिए व्यापकस्तर पर कदम उठाने की बात कहते हुए भरत भूषण त्यागी कहते हैं, “ये सब कंपनियों का खेल है, कंपनियां मुनाफा दिखाकर किसानों से पैसे ऐंठ रही हैं। सरकार भी किसानों की व्यवहारिकता से ज्यादा कॉर्पोरेट के प्रभाव में काम कर रही है।”