कृषि

आवारा पशुओं के लिए गौशाला नहीं, उपलब्ध हैं दूसरे विकल्प

Dr D K Sadana

पूरे भारत में सड़कों पर घूमतीं, कूड़ा खाती गायों के नजारे आम हैं। आवारा मवेशियों की समस्या दूर करने के कई सरकारी प्रयासों के बावजूद यह खत्म नहीं हुई है। हाल ही में राष्ट्रीय राजधानी के चार नगर निकायों में एक नई दिल्ली नगर पालिका परिषद (एनडीएमसी) ने इस समस्या से छुटकारा पाने के मकसद से एक महत्वाकांक्षी योजना की घोषणा की है।

एनडीएमसी के अनुसार, मवेशियों पर एक चिप लगाई जाएगी जिसमें उनके मालिकों की जानकारी होगी। इस चिप का उपयोग करते हुए अधिकारी मवेशी के मालिकों का पता लगा सकेंगे और प्रत्येक बार मवेशी को खुला छोड़ने पर 25 हजार रुपए का जुर्माना लगाएंगे।

मवेशियों का परित्याग इसलिए दुर्भाग्यपूर्ण है क्योंकि ये काफी महत्वपूर्ण संसाधन होने के साथ ही पोषण सुरक्षा में योगदान और स्थानीय आजीविका को मजबूती देते हैं। केंद्रीय मत्स्यपालन, पशुपालन और डेयरी मंत्रालय द्वारा जनवरी 2020 को जारी 20वीं पशुधन जनगणना के अनुसार, भारत में 50 लाख से अधिक आवारा मवेशी हैं। देश में आवारा मवेशियों के बढ़ने के कई कारण हैं।

पिछले कुछ दशकों में स्वदेशी मवेशियों की उपेक्षा हुई है और क्रॉसब्रीडिंग (संकर) पर अत्यधिक ध्यान केंद्रित किया गया है। मशीनीकरण बढ़ने व गोहत्या पर राष्ट्रीय प्रतिबंध ने इस समस्या को और बढ़ा दिया है।

आवारा मवेशियों में गाय, बैल या बछड़े मुख्य रूप से शामिल होते हैं जिन्हें अनुत्पादक होने के कारण छोड़ दिया जाता है। इनमें कम दूध देने वाली गाय भी शामिल हैं, जिनके ज्यादातर मालिक शहरों में रहने वाले होते हैं। ये मालिक दिन के समय अपने मवेशियों को खुला छोड़ देते हैं। आवारा मवेशी जहां शहरों में यातायात की परेशानी का कारण बनते हैं, वहीं गांवों में फसलों को नुकसान पहुंचाते हैं।

समस्या इस कदर विकराल हो चुकी है कि छुट्टा मवेशियों को गोशालाओं में रखना पर्याप्त नहीं है। यही वजह है कि राष्ट्रीय गोकुल मिशन के तहत बनी गोशालाएं अधिक प्रभावी नहीं हो पा रही हैं। पशुधन जनगणना बताती है कि आवारा मवेशियों की सबसे अधिक आबादी वाले 10 राज्यों में से सात में 2012 से 2019 के बीच इनकी संख्या बढ़ी है।

अंत: केंद्र को आवारा मवेशियों को कम करने के लिए अपनी रणनीति को व्यापक बनाने की जरूरत है। सबसे पहले मवेशियों की अपनी समझ में सुधार की जरूरत है। खासकर उन उपेक्षित नस्लों को समझना जरूरी है जिन्हें लोकप्रिय नस्लों के सामने दरकिनार किया गया है।

कमजोर कड़ी

भारत में मवेशियों को चार व्यापक समूहों में वर्गीकृत किया जा सकता है- परिभाषित (डिफाइंड) नस्लें, समरूप (यूनिफॉर्म) नस्लें, संकर (क्रॉसब्रीड) और गैर-वर्णनात्मक (नॉन डिस्क्रिप्ट)। परिभाषित नस्लों में गीर, साहीवाल, लाल सिंधी, थारपारकर और राठी जैसी 50 सबसे मूल्यवान स्वदेशी प्रजातियां शामिल हैं। ये मवेशियों की कुल आबादी का लगभग 20 प्रतिशत हैं।

ये नस्लें क्षेत्र-विशिष्ट हैं और स्थानीय जलवायु स्थितियों के अनुकूल हैं। इस नस्ल के मवेशी भोजन की कमी और जलवायु के उतार-चढ़ाव का सामना करने में सक्षम हैं। उदाहरण के लिए उत्तरी और पश्चिमी राज्यों में पाई जाने वाली नस्लों में अधिक दूध देने की क्षमता होती है, जबकि दक्षिणी राज्यों में ये नस्लें भार ढोने के लिए प्रयोग में लाई जाती हैं। इन्हें भार ढोने के लिए आदर्श माना जाता है।

पूर्वी राज्यों में पाई जाने वाली इन नस्लों का इस्तेमाल दूध और भार ढोने के लिए किया जाता है। इनकी इन्हीं खूबियों और रखरखाव में कम खर्च के कारण इनका कभी परित्याग नहीं किया जाता।

यूनिफॉर्म श्रेणी में वे मवेशी आते हैं जिन्हें नस्ल के रूप में अब भी मान्यता नहीं मिली है, भले ही किसानों द्वारा उनका व्यापक इस्तेमाल हो रहा हो। ये स्थानीय परिस्थितियों में आसानी से ढल जाते हैं।

चूंकि इनकी नियमित पहचान नहीं हुई है इसलिए इन्हें क्रॉसब्रीड और दोयम दर्जे का माना जाता है। इस श्रेणी के इसी छोटे से समूह का परित्याग किया जाता है। अगर अधिकारी इनकी पहचान कर मान्यता प्रदान कर दें तो इससे बचा जा सकता है। कुछ यूनिफॉर्म किस्में आलमबाड़ी, संचौरी, जलिकट, कसारगोड, कृष्णागिरी, मनपरी, शाहबादी, तराई और जोबांग हैं। ये कुल संख्या का लगभग 10 प्रतिशत हैं।

क्रॉसब्रीड मवेशी तीसरा समूह बनाते हैं, जो देश में कुल मवेशियों का 21 प्रतिशत है। ये सरकार समर्थित उन तमाम असफल कार्यक्रमों के उत्पाद हैं जो पिछले 60 वर्षों के दौरान सहीवाल, लाल सिंधी, थारपरकर जैसी देसी नस्लों को जर्सी और होल्स्टीन फ्राइजीन जैसे विदेशी नस्लों से क्रॉसबीड के लिए चलाए गए हैं। क्रॉसब्रीड से आई पहली नस्लें तो ज्यादा दूध दे पाईं लेकिन बाद की नस्लों में यह सिलिसला जारी नहीं रह पाया। क्रॉसब्रीड से पैदा हुई अधिकांश नस्लें भारतीय परिस्थितियों में नहीं ढल पाईं।

सीमांत और लघु किसानों के लिए इन्हें पालना मुश्किल हो गया क्योंकि इन पर खर्च ज्यादा होता था। इनकी उम्र भी देसी नस्लों से कम थी। इतना ही नहीं, क्रॉसब्रीड नस्लों में दूध देने की क्षमता भी देसी नस्लों से कम थी। इन तमाम कारणों को देखते हुए अधिकांश क्रॉसब्रीड नस्लों का परित्याग कर दिया गया।

मवेशियों का अंतिम समूह नॉन डिस्क्रिप्ट ब्रीड है। कुल मवेशियों में ये 49 प्रतिशत हैं। इस समूह के मवेशी आमतौर पर निम्न उत्पादकता वाले होते हैं। यही वजह है कि उनकी पहचान तक नहीं हो पाती। आवारा मवेशियों में इनकी बहुतायत है। अगर इनकी क्षमताओं का सही से आकलन हो तो इनका व्यवसायिक इस्तेमाल किया जा सकता है।

संपूर्ण समाधान

मवेशियों की कुल आबादी के 70 प्रतिशत से अधिक हिस्से (क्रॉसब्रीड एवं नॉन डिस्क्रिप्ट) पर आवारा अथवा परित्याज्य होने का खतरा मंडरा रहा है। इसको रोकने का पहला उपाय यह हो सकता है कि हम तुरंत देसी और विदेशी मवेशियों की क्रॉसब्रीडिंग पर रोक लगा दें। शोध संस्थानों को इसके बजाय देसी नस्लों के वीर्य का इस्तेमाल करना चाहिए।

दूसरा उपाय यह हो सकता है कि हम क्रॉसब्रीडिंग को उल्टा कर दें। ऐसी स्थिति में क्रॉसब्रीड नस्ल की मादा को फोस्टर मां के रूप में इस्तेमाल करते हुए शुद्ध देसी गाय पैदा कराई जाएं। इस काम में एम्ब्रायो ट्रांसफर तकनीक प्रयोग की जा सकती है। देसी गायों के भ्रूण को तकनीकी माध्यमों से विकसित कर बड़ी कामयाबी हासिल की जा सकती है। शोधकर्ता देसी नस्लों का ऐसा वीर्य विकसित करें जिससे कम मांग वाले बछड़ों की पैदाइश पर नियंत्रण लगाया जा सके। देश में विदेशी नस्लों का ऐसा वीर्य विकसित किया जा चुका है।

भारतीय नस्लों के साथ अच्छी बात यह है कि वे प्राकृतिक रूप से ए2 गुणवत्ता वाला दूध देती हैं जो मनुष्यों के लिए लाभप्रद है। देसी गाय के दूध में कंजुगेटेड लिनोलिक एसिड, आमेगा 3 फैटी एसिड और सेरेब्रोसाइड्स जैसे उपयोगी तत्व होते हैं। शोधकर्ताओं को देसी गाय के दूध के फायदों का सावधानीपूर्ण अध्ययन करना चाहिए। इससे नॉन डिस्क्रिप्ट नस्लों की उपयोगिता बढ़ेगी, साथ ही भार ढोने में भी इसका उपयोग किया जा सकता है।

हालांकि मशीनीकरण के कारण भार ढोने में मवेशियों का इस्तेमाल कम हुआ है, लेकिन दूरस्थ इलाकों में इनका उपयोग किया जा सकता है। अगर शोधकर्ता भार ढोने में उपयोगी टूलों को डिजाइन या लागू कर पाएं तो मवेशियों के भार ढोने की क्षमता में और सुधार हो सकता है। देश में एक ऐसी नीति की जरूरत है जो कृषि कार्यों में मवेशियों के इस्तेमाल को प्रोत्साहित करे। इससे जहां पेट्रो डॉलर की बचत होगी, वही पर्यावरण में भी सुधार होगा।

विदेशी नस्लों के मुकाबले देसी नस्लों के और भी कई फायदे हैं जिनका गहन अध्ययन और प्रोत्साहन जरूरी है। उदाहरण के लिए इंटरनेशनल जर्नल ऑफ एडवांसेस इन फार्मेसी, बायोलॉजी एंड केमिस्ट्री में 2015 में प्रकाशित भारती शर्मा और मनीषा सिंह का अध्ययन बताता है कि देसी नस्ल के गोबर में बहुत से फायदा पहुंचाने वाले बैक्टीरिया होते हैं जो विषाणुओं से फैलने वाले रोगों की रोकथाम करते हैं। ये प्राकृतिक प्यूरीफायर का भी काम करते हैं। इनमें यह भी कहा गया है कि गाय का गोबर माइक्रो फ्लोरा का अच्छा स्रोत है जिसका प्रोबायोटिक में उपयोग किया जा सकता है।

स्प्रिंगर जर्नल में 2018 में प्रकाशित एसए मांडवगाने और बीडी कुलकर्णी का अध्ययन बताता है, “देसी गाय का मूत्र कृषि में बायो पेस्टीसाइड के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है। यह उपज व मिट्टी की गुणवत्ता बढ़ाने, बीमारियों की रोकथाम, मच्छरों को नियंत्रित करने, रोगाणुनाशक और मछलियों के भोजन के रूप में भी इस्तेमाल हो सकता है। गोबर से गैस बनाने का प्रचलन भी कई सालों से है। गाय के गोबर की राख का इस्तेमाल निर्माण गतिविधियों में किया जाता है।” गाय का दूध, दही, घी, मूत्र और गोबर का इस्तेमाल पंचगव्य बनाने में किया जाता है जिससे प्रतिरोधक क्षमता में मजबूती आती है।

(लेखक हरियाणा के करनाल में स्थित आईसीएआर-नेशनल ब्यूरो ऑफ एनीमल जेनेटिक रिसोर्स के पूर्व प्रमुख हैं)