कृषि

एक एकड़ जमीन : दिल्ली के बेबस आखिरी किसान

दिल्ली के किसानों की एक पूरी उमर निकल गई लेकिन वे अपनी खेती का मालिकाना हक नहीं हासिल कर सके। सियासत जारी है और अब उन्हीं जमीनों पर कब्जे की कसरत शुरु हो गई है।

Vivek Mishra

मेरी मां किसान थी और उनका नाम धन्नो था। वह करीब 15 बरस पहले इस दुनिया को छोड़ गईं। उन्हें गुजर-बसर के लिए विधवा श्रेणी में इंदिरा गांधी के 20 सूत्री कार्यक्रम के तहत 22 जून, 1985 में 4 बीघा और 10 बिस्सा (एक एकड़ से कम) बंजर जमीन मिली थी। उस जमीन को फसल लायक बनाने में हमारे परिवार को कई साल लगे। अब मैं उस खेत पर काम करता हूं लेकिन दुर्भाग्य यह है कि 35 बरस बाद भी सरकार की नजर में मैं इस आवंटित जमीन का मालिक नहीं हूं। इतना ही नहीं, सरकार ने तो मेरे भरे-पूरे खेत को ही बंजर कहना शुरु कर दिया है। 2008 से मुझे अपने खेतों की गिरदावरी (खसरा) भी मिलना बंद हो गया है।

यह दिल्ली के किसानों की आखिरी पीढ़ी में शामिल 61 वर्षीय किसान विजय कुमार की दुखभरी दास्तान का एक हिस्सा भर है। दिल्ली में करीब 7,100 किसान परिवार अब भी ऐसे हैं, जो विजय कुमार की तरह आवंटित एक एकड़ या उससे कुछ कम जमीन पर गुजर-बसर करते हैं लेकिन उनके पास उनके आवंटित खेत का न तो मालिकाना हक है और न ही खेतों में खड़ी फसलों का कोई आधिकारिक सबूत।

देशभर में भूमिहीन और गरीब लोगों की मदद के लिए 1975 में इंदिरा गांधी के जरिए लाए गए 20 सूत्री कार्यक्रम के तहत गुजर-बसर के लिए लोगों को एक एकड़ या उससे कुछ कम क्षेत्र वाली जमीनें देशभर में आवंटित की गई थी। वहीं, दिल्ली में करीब 12 हजार परिवारों को इसका लाभ मिला था। इनमें से 30 फीसदी से अधिक लोगों की जमीनें या तो अधिकृत कॉलोनियों का हिस्सा बन गईं या फिर कुछ लोगों ने अधिकारियों की मदद से अपनी जमीनों पर पक्का अधिकार हासिल कर लिया। हालांकि अब भी करीब 7,100 परिवार में कई खेती-पाती करते हैं और उनका जमीनों पर अधिकार नहीं है।

दिल्ली के नजफगढ़ में छावला बीएसएफ कैंप के पास रहने वाले विजय कुमार डाउन टू अर्थ को 20 सूत्री कार्यक्रम के तहत मिली जमीन के सरकारी दस्तावेज उपलब्ध कराते हैं। इन दस्तावेजों में ग्राम पंचायत के प्रमाण पत्र के मुताबिक उनकी मां को नजफगढ़ खंड दिल्ली की भूमि वितरण समिति ने 1985 में भूमि सुधार अधिनियम, 1954 के नियम 47 के तहत पांच साल के लिए 4 बीघा 10 बिसवा जमीन लीज पर मिली थी। बाद में इस लीज का विस्तार होता रहा। खसरा नंबर 62/22 वाली इसी जमीन पर 2008 तक उन्हें पटवारी और तहसील से गिरदावरी (खसरा) मिलती रहती। उस गिरदावरी में यह टिप्पणी भी लिखी जाती थी कि खेत में फसलें विजय कुमार की हैं लेकिन वे नाजायज काबिज हैं। ऐसे ही अन्य किसानों के साथ भी होता रहा। 2008 से पटवारी से यह कागज भी मिलना बंद हो गया। अब आवंटी किसानों में किसी को यह गिरदावरी नहीं दी जाती है।

एक एकड़ आवंटित भूमि के मालिकाना हक की लड़ाई लड़ रहे सुरेंद्र फौजी बताते हैं कि सिर्फ गिरदावरी का मामला नहीं है। यह आवंटी जमीनों को लोगों से वापस छीनने का मामला है। यह आवंटित जमीनें आम ग्राम सभा का हिस्सा बन गईं हैं। अब यहां सरकारी कब्जे की कोशिश हो रही हैं। इस संबंध में कुछ भी लिखित बताया भी नहीं जा रहा है। मिसाल के तौर पर गोयला खुर्द गांव में 50 एकड़ जमीनें, 50 परिवारों को आवंटित दी गई थी। इस गांव में कॉलोनी में कुछ पक्के भूमिधर हो गए। कुछ कॉलोनियां बनने से उनकी जमीनें उसमें चली गई। हाल ही में एक ऐसी ही एक आवंटित एकड़ भूमि में पार्क बनाने की कोशिश की गई लेकिन हमने इसका विरोध किया। इसके बाद पार्क का काम रुकवाया गया। इसके बाद मुझे पुलिस भी ले गई लेकिन शाम तक छोड़ दिया गया। हमने महापंचायत करके इसके खिलाफ आवाज उठाई है।

सुरेंद्र फौजी कहते हैं कि हमें इस आवंटी भूमि के बारे में सही से जानकारी नहीं दी जा रही। हमसे कहा जा रहा है कि यह भूमि एलजी के पास चली गई है और केंद्र इसकी जिम्मेदार है लेकिन मेरा सवाल है कि आखिर पार्क या मोहल्ला क्लीनिक बनाने के नाम पर कैसे सरकार को कब्जे की अनुमति मिल रही है?

दौलतपुर गांव के रहने वाले संजीत कुमार बताते हैं कि उन्हें भी जमीन आवंटित की गई थी। अब पटवारी उसे बंजर बताते हैं जबकि खेतों में मैंने गेहूं की बुआई की है। यह एक साजिश है। पटवारी जब हमारे खेत को बंजर कह रहा है और हमें कोई गिरदवारी भी नहीं दी जा रही है तो बंजर के नाम पर जमीनें नायब तहसीलदार को सुपुर्द हो रही हैं और उसे कब्जे के लिए दिल्ली विकास प्राधिकरण (डीडीए) को दिया जा रहा है।  

इस मामले पर दिल्ली सरकार में सामाजिक न्याय मंत्री राजेंद्र पाल गौतम ने डाउन टू अर्थ से बातचीत की। उन्होंने किसानों के आरोपों को खारिज किया और कहा कि 20 सूत्री कार्यक्रम के तहत आवंटित जमीनों पर दिल्ली सरकार कोई भी सरंचना नहीं बनाएगी। न ही मोहल्ला क्लीनिक और न ही पार्क। उन्होंने कहा कि 1975 में दिल्ली के 360 गांवों के करीब 12,500 परिवारों को गुजर-बसर के लिए 20 सूत्री कार्यक्रम के तहत जमीन आवंटित की गई थी। इनमें मालिकाना हक से वंचित ज्यादातर दलित और गरीब तबके के लोग हैं, जो 40 वर्षों से भटक रहे हैं, यह मेरे लिए चुनावी मुद्दा नहीं है।

राजेंद्र पाल गौतम बताते हैं कि करीब चार महीने पहले (जुलाई में) दिल्ली सरकार ने करीब 89 गावों के 7,100 आ‌वंटी परिवारों को मालिकाना हक देने के लिए न सिर्फ विधानसभा में प्रस्ताव पास किया है बल्कि मुख्य सचिव के साथ बैठक कर आवंटियों के इस मामले को जल्द सुलझाने के लिए भी कहा है। साथ ही डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट और डिविजनल कमिश्नर को लंबित मामलों को सुलझाने के लिए आदेश भी दिया गया है। हालांकि, 7,100 परिवारों में किसका मामला सुलझा है, अब तक यह बता पाना मुश्किल है।

वे मालिकाना हक में हो रही देरी के लिए मुख्य सचिव और मजिस्ट्रेट को कसूरवार ठहराते हैं। उन्होंने कहा कि हाल ही में दिल्ली के भीतर आवंटी भूमि पर एक मॉल बनाने का मामला सामने आया है। मेरा यही कहना है कि यदि मॉल का मामला सामने आया है तो उस पर कार्रवाई की जाए।

वहीं, मालिकाना हक की मांग करने वाले भूमिहीन संघर्ष समिति से जुड़े किसानों का कहना है कि न ही बीजेपी, न ही कांग्रेस और न ही आम आदमी पार्टी कोई भी उनके हक के बारे में बात नहीं कर रहा है। दिल्ली में जमीनों की मारा-मारी है ऐसे में पुराने किसानों की जमीनों को भी छीना जा रहा है। मालिकाना हक के लिए 8 और 9 दिसंबर को किसानों की एक रैली भी दिल्ली में निकाली गई है। किसानों ने दिल्ली के राजस्व मंत्री कैलास गहलोत के घर से मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के कार्यालय तक रैली निकाली। हालांकि समिति का कहना है कि मुख्यमंत्री से मुलाकात नहीं हो पाई। समिति के सचिव राधेश्याम ने आरोप लगाया कि गोयला डेरी पपरावट में आवंटित भूमि को किसानों से छीन लिया गया है।

समिति से जुड़े और चावला के किसान विजय कुमार कहते हैं कि 2012 में शीला दीक्षित सरकार के समय राजस्व मंत्री रहे अशोक कुमार वालिया ने आवंटी की फाइल को एलजी के पास भेजा था। तब से 2019 आ चुका है और फाइल लटकी हुई है। कुल 6861 एकड़ जमीन दिल्ली में आवंटित की गई थी। हमारे चावला गांव में 350 एकड़ ग्राम सभा जमीन में 107 एकड़ जमीन आवंटियों को दी गई थी। ग्राम सभा की आवंटित जमीनों की सूची और सामान्य ग्राम सभा की जमीन को अलग-अलग तैयार किया जाना चाहिए। लेकिन भ्रम की स्थिति के लिए सभी जमीनों को ग्राम सभा की जमीन और बंजर बताया जा रहा है।  दिल्ली सरकार, एलजी और केंद्र की रस्साकशी में किसानों को बेबस बना दिया गया है। तमाम किसानों को कोर्ट में मालिकाना हक के लिए चक्कर काटना पड़ रहा है और नतीजा कुछ भी सामने नहीं आ रहा।

पर्यावरण के जानकार दीवान सिंह बताते हैं कि दिल्ली में 1983 के बाद से पंचायत के कोई चुनाव नहीं हुए। पंचायत का अस्तित्व भी खत्म हो गया। ऐसे में ग्राम सभा की जमीनों पर विकास और निर्माण से जुड़े पंचायत के अधिकार जैसी चीजें भी खत्म हो गईं। अब इन जमीनों पर डीडीए ही तय करता है कि क्या विकास होना चाहिए।  

राष्ट्रीय राजधानी में खेती-किसानी के आखिरी अवशेष अब बुझने वाले दिए की फड़फड़ाती लौ में बदल गए हैं। दलित, गरीब और वंचितों की जमीनों पर यह सियासी कसरत भी 40 वर्षों से जारी है। और कब तक जारी रहेगी, मालूम नहीं।