कृषि

नाइट्रोजन युक्त उर्वरकों से भारत में हर साल हो रहा है 16.6 करोड़ टन ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन

भारत हर साल उर्वरकों के रूप 1.8 करोड़ टन नाइट्रोजन का इस्तेमाल कर रहा है, जिससे 16.6 करोड़ टन ग्रीनहाउस गैसें उत्सर्जित हो रही हैं, जोकि जलवायु के लिए बड़ा खतरा हैं

Lalit Maurya

वैश्विक स्तर पर केवल नाइट्रोजन युक्त उर्वरकों के उपयोग से हर साल 113 करोड़ टन ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन हो रहा है, जोकि जलवायु के लिए एक बड़ा खतरा है। उत्सर्जन का यह खतरा कितना बड़ा है इसका अंदाजा आप इसी बात से लगा सकते हैं कि यह कृषि क्षेत्र से होने वाले कुल उत्सर्जन का करीब 10.6 फीसदी हिस्सा है जबकि ग्रीनहाउस गैसों के वैश्विक उत्सर्जन में इसकी हिस्सेदारी करीब 2.1 फीसदी है।

यदि भारत से जुड़े आंकड़ों को देखें तो चीन के बाद भारत दूसरा सबसे ज्यादा नाइट्रोजन युक्त उर्वरकों को इस्तेमाल करने वाला देश है, जोकि हर साल करीब 1.8 करोड़ टन नाइट्रोजन का इस्तेमाल उर्वरकों में कर रहा है। वहीं चीन में यह आंकड़ा 2.81 करोड़ टन है। देखा जाए तो भारत जितने नाइट्रोजन युक्त उर्वरकों का इस्तेमाल कर रहा है उनसे करीब 16.6 करोड़ टन ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन हो रहा है। जोकि वैश्विक स्तर पर नाइट्रोजन युक्त उर्वरकों से होने वाले उत्सर्जन का करीब 15 फीसदी हिस्सा है। वहीं चीन की हिस्सदारी करीब 28 फीसदी है।

आज दुनिया भर पैदावार बढ़ाने के लिए कृषि में बड़े पैमाने पर सिंथेटिक उर्वरकों का उपयोग किया जा रहा है। इनमें सिंथेटिक नाइट्रोजन उर्वरक भी एक हैं। यह सही है कि इन उर्वरकों ने दुनिया भर में पैदावार को बढ़ाने में बड़ी भूमिका निभाई है लेकिन साथ ही इन उर्वरकों के बढ़ते इस्तेमाल ने पर्यावरण, स्वास्थ्य और जलवायु के लिए बड़ी समस्याएं भी पैदा कर दी हैं।

अंतराष्ट्रीय जर्नल साइंटिफिक रिपोर्टस में प्रकाशित इस अध्ययन के मुताबिक यदि सिंथेटिक नाइट्रोजन युक्त उर्वरकों की सप्लाई चेन से होने वाले ग्रीनहाउस उत्सर्जन को अलग-अलग बांट कर देखें तो 113 करोड़ टन ग्रीनहाउस गैसों में से करीब 38.8 फीसदी का उत्सर्जन उत्पादन के कारण हो रहा है। वहीं इसके कृषि में उपयोग से करीब 58.6 फीसदी उत्सर्जन होता है जबकि बाकी 2.6 फीसदी उत्सर्जन के लिए दुनिया भर में इनको लाने ले जाने के कारण हो रहा उत्सर्जन जिम्मेवार है।

एफएओ द्वारा की गई गणना के अनुसार सिंथेटिक उर्वरकों में मौजूद नाइट्रोजन की कुल वैश्विक खपत 2018 में 10.8 करोड़ टन तक पहुंच गई थी। चीन, भारत, अमेरिका, यूरोप और ब्राजील इसके करीब 68 फीसदी हिस्से का उपयोग कर रहे हैं। वहीं यदि मिस्र और मॉरीशस को छोड़ दें तो अन्य अफ्रीकी देश इसकी बहुत कम मात्रा ही उपयोग कर रहे हैं।

भारत, चीन, अमेरिका और यूरोप इसके 62 फीसदी उत्सर्जन के लिए हैं जिम्मेवार

अपने इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने दुनिया भर में  कृषि के लिए किए जा रहे नाइट्रोजन युक्त उर्वरकों के उपयोग और उनसे होने वाले उत्सर्जन का राष्ट्रीय, क्षेत्रीय और वैश्विक डाटासेट भी तैयार किया है। इस रिसर्च से प्राप्त आंकड़ों से पता चला है कि इस उत्सर्जन में भारत, चीन, अमेरिका और यूरोप की हिस्सेदारी करीब 62 फीसदी है।

इसी तरह जर्नल नेचर में छपे एक अन्य शोध से पता चला है कि नाइट्रोजन उर्वरकों के बढ़ते उपयोग के कारण वातावरण में नाइट्रस ऑक्साइड का स्तर औद्योगिक काल से पहले की तुलना में करीब 20 फीसदी बढ़ चुका है। वहीं इसमें हो रही वृद्धि की बात करें तो यह हर दशक 2 फीसदी की दर से बढ़ रही है।

देखा जाए तो वैश्विक उत्सर्जन में कृषि और खाद्य प्रणालियों की बढ़ी भूमिका है जो इंसानों द्वारा किए जा रहे कुल उत्सर्जन के करीब एक तिहाई हिस्से का प्रतिनिधित्व करती हैं।

गौरतलब है कि जब नाइट्रोजन युक्त उर्वरकों को मिट्टी में डाला जाता है तो पौधे उसका केवल एक हिस्सा ही ग्रहण करते हैं। जबकि उसका दूसरा हिस्सा मिट्टी में मौजूद सूक्ष्म जीवों द्वारा सोख लिया जाता है जो अपने मेटाबोलिज्म की मदद से उसे नाइट्रस ऑक्साइड में बदल देते हैं। वहीं उस स्थान पर मौजूद नाइट्रोजन का एक अन्य हिस्सा वहां से पानी की मदद से बह जाता है या फिर वाष्प में बदल कर वातावरण में घुल जाता है।

नाइट्रस ऑक्साइड जलवायु के दृष्टिकोण से कितनी खतरनाक है इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि यह ग्रीनहाउस गैस, कार्बन डाइऑक्साइड की तुलना में 300 गुना ज्यादा शक्तिशाली होती है। साथ ही यह हमारे जीवनकाल से भी ज्यादा समय तक वातावरण में बनी रह सकती है।

2050 तक 50 फीसदी बढ़ जाएगा इन उर्वरकों का उपयोग

अनुमान है कि खाद्य प्रणलियों की वजह से हर साल 5,400 करोड़ टन से ज्यादा ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन हो रहा है। वहीं संयुक्त राष्ट्र कृषि संगठन एफएओ का अनुमान है कि 2019 में कृषि से होने वाला उत्सर्जन बढ़कर 1,070 करोड़ टन प्रति वर्ष तक पहुंच गया है।

समस्या सिर्फ मौजूदा उत्सर्जन ही नहीं है, एफएओ का अनुमान है कि वैश्विक स्तर पर जिस तरह से नाइट्रोजन युक्त उर्वरकों का उपयोग बढ़ रहा है उसके चलते 2050 तक इसके उपयोग में 50 फीसदी की वृद्धि होने की आशंका है। इससे नाइट्रस ऑक्साइड के उत्सर्जन में भारी वृद्धि हो सकती है। देखा जाए तो यह बढ़ा उत्सर्जन पैरिस समझौते के लिए भी एक बड़ा खतरा है।

ऐसा नहीं है कि इन सिंथेटिक नाइट्रोजन उर्वरकों का उपयोग केवल जलवायु लक्ष्यों के लिए ही खतरा है। वातावरण में घुलता यह उर्वरक धरती और समुद्री पारिस्थितिक तंत्र को भी प्रभावित कर रहा है। जो मिट्टी के साथ-साथ वहां रहने वाले जीवों के लिए भी खतरा है।

ऐसे में यह जरुरी है कि हम जितना हो सके कृषि को सस्टेनेबल बनाने का प्रयास करें। उर्वरकों के उपयोग में कमी ऐसी ही एक पहल है जो इस दिशा में सार्थक हो सकती है। समस्या इन उर्वरकों के बेतहाशा बढ़ते उपयोग के कारण पैदा हुई है।

ज्यादा पैदावार के लालच में किसान ज्यादा से ज्यादा सिंथेटिक उर्वरकों का उपयोग कर रहे हैं जो वातावरण में जहर बनकर घुल रहा है। जैविक खेती ऐसा ही एक विकल्प है जो न केवल पैदावार में वृद्धि के साथ-साथ पर्यावरण और लोगों के स्वास्थ्य के लिए भी फायदेमंद है। इसके माध्यम से किसान न केवल पैदावार में वृद्धि कर सकते हैं बल्कि अपनी मेहनत की सही फल भी पा सकते हैं।