कृषि

नया प्रयोग: फसल की पैदावार बढ़ा सकता है मल का उर्वरक

एक नए प्रयोग से पता चला है कि मल का उर्वरक फसल की पैदावार में वृद्धि कर सकता है

Atun Roy Choudhury, Neha singh, Namita Banka, ,

भारत ने हालिया वर्षों में स्वच्छ भारत मिशन के तहत 10 करोड़ से अधिक घरेलू शौचालयों का निर्माण किया है। इससे समग्र स्वच्छता के स्तर में सुधार हुआ है, लेकिन साथ ही इसने बड़ी संख्या में निकलने वाले पानी मिश्रित मानव मल से निपटने की चुनौती भी खड़ी कर दी है।

इसका एक समाधान यह है कि इसके ठोस व तरल पदार्थ यानी मल और जल को अलग-अलग कर उसका उपचार किया जाए। तरल को साफ कर सिंचाई और शौचालय की फ्लशिंग में उपयोग किया जा सकता है। वहीं मल से बायोसॉलिड बनाया जा सकता है और इसका इस्तेमाल जैविक उर्वरक के रूप में किया जा सकता है। उर्वरक के रूप में मल की क्षमता को समझने के लिए हमने हाल ही में तेलंगाना के अलेर में फील्ड ट्रायल किया। भिंडी की खेती पर किए गए हमारे प्रयोग से पता चला कि जैविक उर्वरक के रूप में मल से बने बायोसॉलिड्स का उपयोग अंकुरण दर को सकारात्मक रूप से प्रभावित करता है और पौधों की वृद्धि व उपज को बढ़ाता है। मल के बायोसॉलिड में आमतौर पर पौधे के विकास के लिए आवश्यक पोषक तत्वों की भरमार होती है।

परीक्षण का तरीका

प्रयोग के लिए भिंडी को दो अलग-अलग जमीन पर उगाया गया। एक जमीन (कंट्रोल बेड) लाल मिट्टी वाली थी जिसपर आमतौर पर दक्षिणी भारत में खेती की जाती है। दूसरी जमीन (एक्सपेरिमेंटल बेड) 1:1 अनुपात में मिश्रित बायोसॉलिड्स और लाल मिट्टी वाली थी। दोनों जमीनों को शुरू में 80 लीटर पानी से भर दिया गया था। इसमें पानी का समान वितरण सुनिश्चित करने और जल-जमाव से बचने के लिए सावधानी से निरीक्षण किया गया। इसके बाद प्रत्येक जमीन पर 16 ग्राम या लगभग 250 भिंडी के बीज समान रूप बोए गए। इसमें स्वस्थ पौधे के विकास के लिए इष्टतम दूरी सुनिश्चित की गई।

प्रायोगिक भूमि में बायोसॉलिड्स डालने का उद्देश्य बढ़ते भिंडी के पौधों को अतिरिक्त पोषक तत्व प्रदान करना है। उपयोग किए गए बायोसॉलिड्स में पौधों के लिए जरूरी पोषक तत्व थे। इसमें 9.57 का स्वस्थ कार्बन-टु-नाइट्रोजन अनुपात, 0.93 प्रतिशत नाइट्रोजन और 1.95 प्रतिशत फॉस्फेट की मात्रा था। पूरे प्रयोग के दौरान दोनों भूमि की नियमित निगरानी की गई। प्रयोग कुल 75 दिनों तक चला। इस अवधि में भिंडी के पौधों को परिपक्व होने और पैदावार देने का पर्याप्त समय मिला। भिंडी की पहली उपज 55वें दिन ली गई थी। इसके 10 दिनों के अंतराल के बाद दूसरी फसल ली गई। इस अवधि ने सभी प्रकार की उपज के आकलन में मदद की।



बेहतर उपज और गुणवत्ता

बायोसॉलिड्स का प्रभाव पौधे के पूरे जीवन चक्र में देखा जा सकता है। बीज बोने के महज सात दिनों के भीतर कंट्रोल यानी नियंत्रित बेड में 92 पौधे देखे गए। इसके विपरीत प्रायोगिक यानी एक्सपेरिमेंटल भूमि में 98 पौधे हुए। यह अंकुरण दर पर बायोसॉलिड्स के सकारात्मक प्रभाव का संकेत है। 55 दिनों के दौरान प्रायोगिक भूमि में भिंडी के पौधों ने नियंत्रित भूमि की तुलना में महत्वपूर्ण वृद्धि दर्ज की। प्रायोगिक भूमि में पौधों की औसत ऊंचाई 1 से 1.2 मीटर तक थी, जबकि नियंत्रण भूमि में 0.6 से 0.7 मीटर तक ही थी। यह पौधे के समग्र विकास पर बायोसॉलिड्स के सकारात्मक प्रभाव का प्रमाण है। पहली और दूसरी फसल लेने के दौरान नियंत्रण भूमि से प्राप्त भिंडी का कुल वजन क्रमशः 0.519 किलोग्राम और 0.830 किलोग्राम था। इसके विपरीत, प्रायोगिक भूमि में काफी अधिक पैदावार हुई। पहली और दूसरी फसल में यह क्रमशः 1.176 किलोग्राम और 1.713 किलोग्राम था। बायोसॉलिड्स ने भिंडी की गुणवत्ता को भी सकारात्मक रूप से प्रभावित किया। नियंत्रित भूमि की तुलना में प्रायोगिक भूमि में औसत, अधिकतम और न्यूनतम फली की लंबाई काफी थी।

हालांकि बायोसॉलिड्स के साथ उगाई जाने वाली फसलों के पोषण स्तर का पता लगाने के लिए आगे के शोध की आवश्यकता है। यह प्रयोग इस विषय को मुख्यधारा में लाने के लिए एक महत्वपूर्ण पहला कदम हो सकता है। प्रयोग से यह तो स्पष्ट है कि मल से प्राप्त उर्वरक न केवल रासायनिक उर्वरकों की तुलना में स्वस्थ होते हैं, बल्कि किफायती भी होते हैं। रासायनिक उर्वरकों की लागत 15 से 20 रुपए प्रति किलोग्राम के बीच हो सकती है। लेकिन जब बायोसॉलिड्स को बड़े पैमाने पर उत्पादित किया जाता है तो इसकी लागत केवल 5-8 रुपए प्रति किलोग्राम आएगी। ग्रामीण भारत में स्वच्छ भारत मिशन की सफलता को देखते हुए इस अप्रयुक्त मल में अपार क्षमता है।

(अतुन रॉय चौधरी हैदराबाद, तेलंगाना में क्यूब बायो एनर्जी प्राइवेट लिमिटेड से जुड़े हैं, नेहा सिंह और नमिता बंका हैदराबाद में बांका बायो लिमिटेड में कार्यरत हैं, एन चंदना सेंटर फॉर इमर्जिंग टेक्नोलॉजीज फॉर सस्टेनेबल डेवलपमेंट, इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी, जोधपुर, राजस्थान से जुड़ी हैं और जितेश लालवानी सिविल इंजीनियरिंग विभाग, वर्धमान कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग, हैदराबाद से संबद्ध हैं)